लम्हे वक्त के सरकने लगे हैं ,
मद्धिम पड़ रही दीये की लौ...
साँसों के मोती चटखने लगे हैं ।
संकुचित हो रहे अपनों के दायरे .
स्नेह के तार टूटते जा रहे...
रिश्तों के बाने दरकने लगे हैं ।
फासले आ गये लोगों के दरमियाँ...
दौलत ने बढ़ा दी दिलों की दूरियाँ ,
वो वादों से अपने पलटने लगे हैं
फैलने लगे हैं हसरतों के पर..
स्वहित हो गया सबसे ऊपर ,
सोच के दायरे सिमटने लगे हैं ।
स्वरचित --
डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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