Tuesday, 26 June 2018

खामोश निगाहें ( लघुकथा )


    लोगों की भीड़ कौतूहल भरी नजरों से  उस  किशोर को देख रही थी जिसने अपने पिता को मार डाला था । माँ उसकी हथेली थामकर बैठी थी मानो उसकी पीड़ा  खींच रही हो अपने भीतर...एक बारह वर्ष के बच्चे के मन में इतना आक्रोश क्योंकर आया कि उसने अपने पिता को मार डाला  , हर व्यक्ति के मन में यही सवाल उठ रहा  था पर नदी की गहराई की तरह वह बिल्कुल शांत था मानो उसने कुछ भी गलत नहीं किया ...वह पुलिस के आने का इंतजार कर रहा था... बस खामोश निगाहों से कभी आँगन में पड़ी पिता की लाश को देखता कभी अपनी माँ की ओर...... माँ की कमाई पर पलने वाला नाली का कीड़ा...उसका मर जाना ही सही था...उसके न रहने पर माँ सुखी  तो रहेगी... झाड़ू - पोंछा करने वाली उसकी माँ की कमाई उसे कम पड़ रही थी और वह उसे देह - व्यवसाय के लिए मजबूर  कर रहा था..बेटे से यह सब देखा नहीं गया था ....जेल में रहकर भी वह निश्चिन्त तो रहेगा । अब उसके होठों पर मुस्कुराहट थी...और निगाहों में चमक...माँ ने उन खामोश निगाहों की भाषा पढ़ ली थी  ।

स्वरचित -- डॉ.  दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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