एक तो इतनी गर्मी...ऊपर से ढेर सारी रोटियाँ बनाते -बनाते थक गई थी उमा...पसीने से पूरा शरीर भीग गया था..ऐसे ही समय संयुक्त परिवार में रहना अखरता था उसे...काम , काम और काम...दूसरे मौसम में यह सब नहीं अखरता था पर ये उमस भरी गर्मी..उफ़्फ़
खाना बना कर निकली ही थी कि सासूमाँ ने आवाज लगा दी..बेटा खाना बन गया हो तो अपने पापा को बुलाकर दे दो..उन्हें जल्दी सोना होता है न..सुबह इतनी जल्दी क्यों उठ जाते हैं पता नहीं , अब तो कुछ काम नहीं पर आदत का क्या करें । तब तक देवरानी भी आ गई मदद के लिए और उसने खाना परोसने में मदद की । दरअसल अभी उसकी परीक्षा चल रही है इसलिए दोनों वक्त का खाना उमा के जिम्मे आ गया था...नहीं तो दोनों मिलजुलकर काम निपटा लेते हैं । गर्मी से बेहाल उमा को नहाने की इच्छा हो रही थी..देवरानी ने उसकी हालत समझ ली थी..मैं रसोई समेट लूँगी , आप जाइये...देखिये भैया बाहर टहल रहे हैं.. लगता है इंतजार हो रहा है । हुँह.. तू सुधरेगी नहीं..बच्चे बड़े हो गए , अब क्या रोमांस । ऐसा नहीं है दीदी..मैं सब जानती हूँ.. अभी भी बहुत मस्ती होती है - देवरानी आज उसे छेड़ने पर तुली हुई थी । हे भगवान...तो मेरी जासूसी की जा रही है ..तुझे तो मैं देख लूँगी... बनावटी गुस्से के साथ उमा ने देवरानी को झिड़का...कमरे तक आते - आते मौसम बदल चुका था..उसे पसीने से सराबोर देख पतिदेव बोले...बहुत गर्मी है चलो छत पर टहल आते हैं... सीढ़ी चढ़ते वक्त हाथ थाम लिया था उन्होंने...और शादी के इतने वर्षों बाद भी लजा गई थी उमा...आसमान में छाये काले मेघ भी शरारत के मूड में आ गए थे और अपनी बड़ी - बड़ी बूंदों से उसके गालों का स्पर्श कर लिया था ...लजीली नायिका मधुर स्मृतियों की गलियारों में निकल पड़ी थी जहाँ अपने प्रियतम का हाथ थामे वह कई खूबसूरत मोड़ पार कर रही थी... उनके प्यार के रंगों में सराबोर हो रही थी..अतीत के बादल उमड़ -घुमड़ रहे थे... और वह यादों की बारिश की फुहार में भीग गई थी ।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
आसमान में उड़ते बादलों की तरह भाव मेरे मन में उमड़ते -घुमड़ते रहते हैं , मैं प्यासी धरा की तरह बेचैन रहती हूँ जब तक उन्हें पन्नों में उतार न लूँ !
Tuesday, 12 June 2018
यादों की बारिश ( लघुकथा )
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