Friday, 1 June 2018

सूखे पत्ते

कल तक थे...
आकर्षण के केंद्रबिंदु ,
सबके पोषक..
हरे -  भरे..छायादार ,
पंछियों के नीड़...
कीड़े - मकोड़े के आश्रय ,
हवा में सरसराते...
शीतलता बिखराते ,
पंछियों के कलरव...
बच्चों के खेल का हिस्सा ,
हरते पथिक की थकान...
लाते चेहरों पर मुस्कान ,
सूख गए वे पत्ते...
पेड़ की बाहों से ,
टूट गए वे पत्ते ...
ना दिलों में बची जगह ,
न दुनिया में ...
उपादेयता खत्म होने के बाद,
अस्तित्त्वहीन , बेघर , बेवजूद....
सूनी आँखों से खंगालते ,
अपना अतीत , अपना वजूद...
धुंधलाई नजर ,शरीर जर्जर ,
उन काँपते झुर्रीदार हाथों ने...
थाम लिया है उन्हें ,
क्योंकि वे महसूसते  हैं...
बेघर.... बेकदर होने का दर्द ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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