Wednesday, 6 June 2018

किस्से सुखीराम के भाग 6

  सुखीराम जी  की मुलाकात  उनके एक पुराने मित्र आशीष से  हुई...सामान्य हालचाल पूछने के बाद मित्र महोदय ने उन्हें अपनी एक समस्या बताई ..कि उनका बेटा बहुत बदतमीजी  से बात करता है... वह  हमारी बात सुनता ही नहीं ..वह बिफर पड़े थे , माँ- बाप को तो कुछ समझते ही नहीं ये बच्चे.. मानो  हमें कुछ आता ही नहीं.. और ये जो इतनी सुख - सुविधाओं में पल रहे है ये इन्हें ऐसे ही मिल गया । माता - पिता अपनी इच्छाओं को मारकर अपने बच्चों की सारी माँगे पूरी करते हैं... उनके पालन - पोषण को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं... बदले में इनसे थोड़े आदर व स्नेह की उम्मीद नहीं रख सकते यार...।  मैं बहुत त्रस्त हूँ पता नहीं इन्हें पालने में कहाँ गलती हो गई.. बड़ों का आदर करने की संस्कृति हमारे खून में है पता नहीं उसमे इतनी कड़वाहट कहाँ से भर गई । सुखीराम को अपने घर की रात की घटना याद आ गई थी जब मोबाईल में दिन भर लगी रहने वाली बेटी और माँ के बीच खाना खाने को लेकर बहस हो गई थी और माँ - बेटी  दोनों ने खाना नहीं खाया था...थाली में परोसा खाना फेंकना पड़ गया था ।
     यह तो हर दूसरे घर की कहानी है... बच्चों के व्यवहार में  आक्रोश  बढ़ता जा रहा है , धैर्य की कमी होती जा रही है जो विवादों के रूप में सामने आता है ।दो पीढ़ी के सोच में अंतर तो रहता ही है । हम अपने पिता को अपने से कमतर समझते थे और हमारे बच्चे हमें समझते हैं.. कल उसके बच्चे उसे समझेंगे...वक्त के साथ बदलाव तो आते ही हैं... सोच में , व्यवहार में , जीवन - शैली में.... तकनीकी उन्नत होती जायेगी तो आने वाला समय बदलता ही जायेगा पर हम यह बात भूल जाते हैं कि हर काल की अपनी विशेषता होती है जो हमारे पूर्वजों ने पाया वो हमें खोना पड़ा... जो सुविधा हमारे पास है वह उन्हें नहीं मिली ..कुछ न कुछ तो छूटता ही जाता है.. सब कुछ लेकर आगे बढ़ा नहीं जा सकता । वातावरण के अनुसार अपने - आप को ढाल लेने में ही भलाई है । थोड़ा तुम चलो थोड़ा हम चलें की विचारधारा को लेकर सामंजस्य पैदा किया जाये शायद यही उपयुक्त होगा । युवा पीढ़ी भी गलत नहीं है , उनके सोचने का अंदाज भले ही जुदा हो पर वे भी उतने ही सेंसिटिव और समझदार हैं... फर्क समझ की है , उनके तौर - तरीकों की है  यदि हम भी उन्हें अपनी बात कहने का मौका दें...अपने - आप को उन पर न थोपें तो शायद विवाद की नौबत ही न आये ।
    आशीष ने सुखीराम की बात तो सुनी पर उन पर गौर किया या नहीं ..हम कुछ कह नहीं सकते ।क्या  हम अभिभावक कभी अपनी गलती स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हैं.... हम गलत हो ही नहीं सकते इस धारणा को छोड़ दीजिए क्योंकि सच में कई बातें हमें बच्चे सिखा जाते हैं... तो समय की धारा के साथ अपनी सोच की धारा को बदलने के लिए तैयार रहिये ....फिर मिलेंगे जीवन के एक नये अनुभव के साथ... एक नई बात के साथ तब तक के लिए नमस्कार , प्रणाम , जय जोहार ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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