Sunday, 30 June 2019

प्रेम - बन्धन

तू जब से मेरे जीवन में आया ,
मन में प्यार ही प्यार समाया ।
अपना सब कुछ वारुं तुझपे ,
दिया तुझे वो जो भी पाया ।
अपनी हर थाली का भोजन ,
तुझे खिलाकर ही खुद खाया ।
मैं हूँ तेरी बड़ी बहन  पर ,
मुझमें  माँ का रूप समाया ।
तू  है मेरी आँखों का तारा ,
तुझसे जीवन में उजास छाया ।
साथ रहें हम हर पल , हर दम ,
पड़े न कोई दुःख का साया ।
एक पेड़ की हम दो शाखें ,
एक आँगन ने हमें खिलाया ।
भाई - बहन का रिश्ता पावन ,
प्रेम - बन्धन ने अटूट बनाया ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 28 June 2019

ग़ज़ल

अपने तसव्वुर में तेरी तस्वीर बसाये रखा  ,
यादों को तेरी अपने सीने में दबाये रखा ।

ठहर जाती है शबनम ज्यों कलियों पर ,
अश्कों को नजरों में यूँ छुपाये रखा ।

राह - ए - जिंदगानी को करती रहे रोशन ,
वफाओं से इश्क - ए - शमा जलाये रखा ।

कभी थे मुसाफ़िर हम एक राह के ,
जुदा होकर भी आँखों  में बिठाये रखा ।

बेपर्दा न हो जाये  मोहब्बत अपनी ,
खामोश रहकर आबरू बचाये रखा ।

आँधियों , धूप से सूख न जाये शज़र ,
एहसासों की नमी को बनाये रखा ।

जी ली  इक उम्र महक उठी जिंदगी' दीक्षा ' ,
प्यार  भरे इन लम्हों को सजाये रखा ।

स्वरचित - डॉ.  दीक्षा  चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 26 June 2019

शब्द - सीढ़ी

जीवन के समंदर में नाव सा # पिता ,
संघर्षों के तेज धूप में छांव सा पिता ।

सूखी धरती में बरसी बारिश सी # माँ ,
मौत को देख जी लेने की ख्वाहिश सी माँ ।

दृढ़ निश्चयी पहाड़ सा अटल रहा # बेटा ,
परिवार का आधार बना संबल देता बेटा ।

नदियों सी पावन निश्छल बहाव # बेटी ,
दो कुलों के स्वाभिमान का खूबसूरत पड़ाव बेटी ।

सूरज की रोशनी  चाँदनी की शीतल फुहार ,
अपनेपन ,प्यार से समृद्ध खुशहाल # परिवार ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 23 June 2019

हाथों की लकीरें

न जाने क्या लिखा है ,
इन हाथों की लकीरों में ।
जो चाहा मिल न पाया ,
जाने क्या  है तकदीरों में ।

प्रयास अनवरत करके भी,
सामने रह कर मंजिल न मिली ।
सजाए सुर - साज सभी ,
फिर भी कोई महफ़िल न मिली ।

मेहनतकश इन हाथों ने ,
बदली है तकदीर अपनी ।
जहाँ भाग्य ने साथ न दिया ,
काम आई तदबीर अपनी ।

सुलझा लें  ताने - बाने  ,
किस्मत की लकीरों के ।
भर लो उजाले जीवन में ,
चलो उस पार अंधेरों के ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 22 June 2019

चाय

आओ  साथ बैठकर ,
पी लें एक कप गरमागरम चाय...
जी लें कुछ मधुर पल ,
कह  दें अपने मन की बात..
सुन लें एक - दूजे के  ,
दिल की धड़कन....
बाँट लें  जीवन के अनुभव ...
रोजमर्रा की जरूरी व
कई गैरजरूरी बातें ,
कुछ अनकहा भी हो..
तो तैरने दें  दोनों के बीच
खामोश निगाहों को ,
करने दें गुफ्तगू....
चाय में कूटे इलायची की तरह,
महकता रहे साथ हमारा...
केतली से गिरते चाय की तरह ,
न गिरे वक्त की शाख से...
खूबसूरत लम्हे ,
जिंदगी की ऊब , थकान ,
तनाव को उबाल दें ...
प्यार की मद्धम आंच पर ,
घुलने दें विश्वास की मिठास...
गाढ़ा होने दें सम्बन्धों के रंग ,
पक जाने दें जिंदगी की चाय ।
आओ पी लें एक कप ,
गरमागरम चाय ....
यह सिर्फ चाय नहीं है ,
अवसर है  ,
जिंदगी में ताजगी भरने का...

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 19 June 2019

मिट्टी की खुशबू ( लघुकथा )

         *मिट्टी की खुशबू* (लघुकथा )

         काम माँगने आये उस लड़के को देखकर संदीप को अपना गाँव , अपना बचपन और उनसे जुड़ी हर वो बात याद आ गई थी जो जीवन की आपाधापी में वे भुला बैठे थे । साधारण से कपड़े और चेहरे में  मासूमियत , वह बातचीत में भी सीधा सा लगा था ...संदीप ने तुरंत उसे काम पर रख लिया था । वह भी तो एक दिन ऐसे ही चला आया था गाँव से.. काम तलाशने । एक अदद डिग्री , निश्छल मन और परिश्रम करने की जिजीविषा बस यही साथ लेकर निकला था घर से । किसी ने उसके भीतर  अपने आप को ढूँढा था और उसे मौका दिया । अब उसकी बारी है ...शायद माली दिन भर के सूखे पौधों में पानी दे रहा था... मिट्टी की सोंधी महक उसके तन - मन को सुवासित कर गई थी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़ 

Tuesday, 18 June 2019

ख्वाहिश

अत्यंत वृहद है ख्वाहिशों का आसमान ,
पूरी होते ही एक के, दूजा ले लेता स्थान ।

कोशिशें अनवरत ,पूरी करने की जद्दोजहद ,
ख्वाहिशों की जादू में ,उलझ गया सारा जहान ।

पनपते  हैं कई  अरमां इन दरख्तों के साये में ,
न हों ये तो  मुश्किल में  पड़ जाता इंसान ।

पूरी हों गर ख्वाहिशें तो हसीन हो जाते नजारे ,
अधूरी रहने पर खुल न पाती शायर की जुबान ।

बड़ा मुश्किल सफर है ये सम्भलकर चलना ,
चमक ख्वाहिशों की भटका न दे तेरा ईमान ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 15 June 2019

बारिश का टुकड़ा ( लघुकथा )

प्रचंड गर्मी के बाद  मौसम की पहली बारिश बेहद सुकून दे गई थी परंतु बाजार गये श्रीकांत को एक दुकान के नीचे शरण लेनी पड़ी । वहीं कुछ बच्चे बारिश की खुशी में नाच रहे थे और छप - छप कर खेल रहे थे ।
श्रीकांत को बेटी तन्वी याद आ गई थी ..वह भी बारिश के जी भर मजे लेती । अपनी  हथेलियों में बारिश का पानी भरकर पापा की ओर छिड़क देती और उनकी प्रतिक्रिया देख खुश हो जाती । कागज की नाव बनाकर
छोटे गड्ढों में तैराती और पापा को अपनी नाव लेने दौड़ाती ...अपने हर क्रियाकलाप में पापा को साथ लेने वाली उसी  बेटी से नाराज चल रहे थे श्रीकांत क्योंकि उसने अपनी मर्जी से सौरभ से शादी कर ली थी । पिता की अनुमति लेने के लिए भी नहीं रुकी थी । आज बच्चों के खेल ने उन्हें सारी शिकवे - शिकायतें  भुला दी थी और प्यारी बेटी की याद दिला दी थी...तुरन्त फोन कर तन्वी से बात कर लिया था उन्होंने ..उसकी आवाज में खुशी की तरंग महसूस कर रहे थे वे । बारिश थम चुकी थी पर वे अपने साथ उसका एक टुकड़ा ले आये थे अपनी बेटी के बचपन वाला ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 14 June 2019

किताबें


विषय - # किताबें

तुम बिन अधूरा है ,
जिंदगी का सफर...
रेल की यात्राओं से प्रारम्भ
तुम्हारा साथ ..
अब जिंदगी की यात्रा में
शामिल है
मेरे आस - पास ही घूमते हैं ,
तुम्हारे किरदार
तुम्हारी दुनिया में
मैं खो जाती हूँ
कभी रोती कभी मुस्कुराती हूँ
जीवंत हो उठते हो तुम
मेरी दुनिया में
मेरी तनहाई , तनाव,
सुख - दुःख के साथी
बन जाते कभी प्रेरणा
दे जाते दिलासा...
लौटा लाते विश्वास ।
बचाया है कई बार मुझे
टूटने , बिखरने से
लगने लगे हो तुम
बिल्कुल अपने से ।
विविध , वृहद है तुम्हारी दुनिया
असीमित , अनगिनत
विचरण करते रहना चाहती हूँ
इनमें जब तक है  साँस ।
किताबें रहना  तुम  ,
हमेशा मेरे साथ ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

ग़ज़ल

चीखकर हर बात पर मचाते बवाल हैं ,
बैठ कर खामोश वो उठाते सवाल  हैं ।

मजे लेना हँसकर दूसरों की मुसीबतों पर ,
बात अपने ऊपर आई तो हाल बेहाल हैं ।

बेगैरत  रहे उम्र भर बैठे  थे हाथ बाँध कर  ,
इज्जत पे बात ठहरी तो दिखाते कमाल  हैं ।

खून नहीं मजहबपरस्ती दौड़ने लगी शायद ,
बात - बात पर रगों में  आते उबाल  हैं ।

आये हैं वो गिरकर शोहरत की बुलन्दी से 'दीक्षा'
लड़खड़ाते कदम अब रखते सम्भाल  हैं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 11 June 2019

त्राहिमाम

कुपित मानव क्रियाओं पर ,
प्रचंड सूर्यदेव...
बढ़ाते जा रहे तापमान ,
सूखी प्यासी धरा..
निरभ्र हुआ आसमान ,
तरसे पानी को पंछी ,
जीव- जंतु ,इंसान..
धरती पर पड़ी दरारें ,
भूमिगत जल भी अंतर्धान,
हाहाकार मचा है ,
भीषण गर्मी ने किया परेशान,
पहाड़ों की शरण में ,
वन ही बचाये प्राण..
घुटनों पर बैठा मानव ,
कर रहा त्राहिमाम...
प्रकृति से छेड़छाड़ का,
भुगत रहा अंजाम ।
उपेक्षा की प्रवृत्ति का ,
यह भयानक परिणाम..
सबक न लेता आपदाओं से,
तरक्की की होड़ में ,
किया अपना नुकसान ।
वक्त रहते सचेत हो कर,
कर ले सुरक्षा का इंतजाम ।
प्रकृति का कोई पर्याय नहीं ,
इसके आँचल में ही आराम ।।

Monday, 10 June 2019

पर्यावरण और तापमान

पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है परि + आवरण
परि का अर्थ है चारों ओर से  और आवरण का अर्थ  है
परत या ढका हुआ। हमारी पृथ्वी चारों ओर से जिनके द्वारा ढकी हुई है वह पर्यावरण है । हवा , पानी , पेड़ , मृदा , जीव - जंतु आदि जिन्हें प्रकृति ने असीमित मात्रा में हमें उपलब्ध कराया है । प्रकृति प्रदत्त इन उपहारों का मनुष्य हमेशा से दुरुपयोग करता आया है , अपनी सुविधा के लिए उसने प्रकृति के साथ वर्षों से छेड़छाड़ की है और उसके दुष्परिणाम अब हमें प्रकृति के असंतुलन के रूप में देखने को मिल रहे हैं ।
       हरे - भरे वनों को काटकर उसने शहर बसा लिये , कल - कारखाने खड़े कर लिये , नदियों के पानी को जी भर प्रदूषित किया , पहाड़ों  का खनन कर प्राकृतिक सम्पदा का मनमाना दोहन किया पर उनकी देखभाल नहीं की ।
       संतुलन का ख्याल नहीं रखा और आज वही प्रकृति अपना विकट रूप दिखा रही है तो वह त्राहि - त्राहि कर उठा । मनुष्य कितना भी विकास कर ले परन्तु प्रकृति माँ के प्रकोप के आगे वह बेबस ही नजर आता है । आप कोई भी उदाहरण उठा कर देख लें चाहे वह भूकम्प हो , सुनामी के रूप में समुद्र का क्रोध हो , चाहे बाढ़ की विनाशलीला ,  तूफान हो या बादल फटने की घटनाएं.. वह कुछ नहीं कर पाता , सिर्फ बेबस होकर आँसू बहाता है । पहाड़ों को काटकर उसकी छाती में कितने ही शहर बसा दिये , जंगलों को काट - काट धरा का तापमान बढ़ा दिया , बारिश में कमी हो गई , वातावरण का संतुलन बिगड़ गया । बारिश में सूखा और ठंड में बारिश ,मौसम अपने वास्तविक चक्र से भटक गया । इस बार की प्रचंड गर्मी ने सबके होश उड़ा दिये हैं । धरती का तापमन पैंतालीस और पचास के पार जा रहा है तो अब सबको वृक्षारोपण  और जल - स्तर की चिंता सताई है ।
     खैर ! जो हुआ  सो हुआ पर अब भी वक्त है अपनी गलतियों को सुधारने की , बिगड़ी बातों को बनाने की । यदि समय रहते प्रकृति  का सन्तुलन बना लिया जाये तो हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए अच्छा रहेगा  । ऋतु चक्र फिर से अपने समय पर चलेंगे , हिमालय का बर्फ सुरक्षित बचा रह पायेगा ,ग्लोबल वार्मिंग शायद कम हो जाये । हमारी हालत कहीं उस  हिरण की तरह न हो जाये जिसने शिकारी से बचने के लिए अंगूर के हरे - भरे बेलों की शरण ली और बाद में लालच के कारण सारी पत्तियाँ खा ली ।  शिकारी और अपने बीच के आवरण को उसने स्वयं ही खत्म कर दिया और मारा गया । लालच के कारण मनुष्य का भी यही हाल हो सकता है उसे अपने लालच पर लगाम लगाना होगा और प्राकृतिक  संसाधनों के दोहन पर नियंत्रण रखना होगा तभी यह धरा सुरक्षित रह पायेगी ।
    देव मान कर पूजा इन्हें , पूर्वजों ने हमारे ।
    शामिल किया हर क्रियाकलाप में ,
     जन्म से लेकर मरण तक संस्कार सारे ।
     प्रकृति के हर रुप का सम्मान करना ,
     भूख , प्यास और बीमारी में यही हैं सहारे ।
      वन,  नदी , पहाड़ , अम्बर , धरा ,
      प्रकृति के  बहुमूल्य रत्न हमारे ।
      सूर्य , चंद्र , ग्रह करते परिक्रमा ,
      नतमस्तक हो  सागर  चरण पखारे ।
      अक्षय ,अखण्ड रहे धरा हमारी ,
      अपना तन , मन , धन इस पर वारें ।
      संतुलित कर अपने क्रियाकलाप ,
      अस्तित्व को बचा अपना कल सँवारें ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
    

तेरी मेरी यारी

साथ जिसके रहने से  दूर हो जाती दुश्वारी  ,
जाति ,धर्म के भेद से ऊपर तेरी मेरी यारी ।

क्या तेरा क्या मेरा ,बेझिझक थी साझेदारी ,
तन दो पर मन एक थे ,काहे की हिस्सेदारी ।

दोनों फक्कड़ मदमस्त , दिखावे की न बीमारी ,
जीवन संघर्ष एक था  ,न  सीखी दुनियादारी ।

सुविधा न थी  ,पर फिक्र थी एक दूजे की भारी ,
असफलता व दुःख  में , जाग के काटी रात सारी ।

उम्मीद की किरण बनकर आई दोस्ती हमारी ,
हाथ थामे  एक- दूसरे  का , सफर रहे यह जारी ।

सफल होकर भी दूर न होंगे , है यह जिम्मेदारी ,
राग - द्वेष  , अहंकार से ऊपर तेरी मेरी यारी ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़