पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है परि + आवरण
परि का अर्थ है चारों ओर से और आवरण का अर्थ है
परत या ढका हुआ। हमारी पृथ्वी चारों ओर से जिनके द्वारा ढकी हुई है वह पर्यावरण है । हवा , पानी , पेड़ , मृदा , जीव - जंतु आदि जिन्हें प्रकृति ने असीमित मात्रा में हमें उपलब्ध कराया है । प्रकृति प्रदत्त इन उपहारों का मनुष्य हमेशा से दुरुपयोग करता आया है , अपनी सुविधा के लिए उसने प्रकृति के साथ वर्षों से छेड़छाड़ की है और उसके दुष्परिणाम अब हमें प्रकृति के असंतुलन के रूप में देखने को मिल रहे हैं ।
हरे - भरे वनों को काटकर उसने शहर बसा लिये , कल - कारखाने खड़े कर लिये , नदियों के पानी को जी भर प्रदूषित किया , पहाड़ों का खनन कर प्राकृतिक सम्पदा का मनमाना दोहन किया पर उनकी देखभाल नहीं की ।
संतुलन का ख्याल नहीं रखा और आज वही प्रकृति अपना विकट रूप दिखा रही है तो वह त्राहि - त्राहि कर उठा । मनुष्य कितना भी विकास कर ले परन्तु प्रकृति माँ के प्रकोप के आगे वह बेबस ही नजर आता है । आप कोई भी उदाहरण उठा कर देख लें चाहे वह भूकम्प हो , सुनामी के रूप में समुद्र का क्रोध हो , चाहे बाढ़ की विनाशलीला , तूफान हो या बादल फटने की घटनाएं.. वह कुछ नहीं कर पाता , सिर्फ बेबस होकर आँसू बहाता है । पहाड़ों को काटकर उसकी छाती में कितने ही शहर बसा दिये , जंगलों को काट - काट धरा का तापमान बढ़ा दिया , बारिश में कमी हो गई , वातावरण का संतुलन बिगड़ गया । बारिश में सूखा और ठंड में बारिश ,मौसम अपने वास्तविक चक्र से भटक गया । इस बार की प्रचंड गर्मी ने सबके होश उड़ा दिये हैं । धरती का तापमन पैंतालीस और पचास के पार जा रहा है तो अब सबको वृक्षारोपण और जल - स्तर की चिंता सताई है ।
खैर ! जो हुआ सो हुआ पर अब भी वक्त है अपनी गलतियों को सुधारने की , बिगड़ी बातों को बनाने की । यदि समय रहते प्रकृति का सन्तुलन बना लिया जाये तो हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए अच्छा रहेगा । ऋतु चक्र फिर से अपने समय पर चलेंगे , हिमालय का बर्फ सुरक्षित बचा रह पायेगा ,ग्लोबल वार्मिंग शायद कम हो जाये । हमारी हालत कहीं उस हिरण की तरह न हो जाये जिसने शिकारी से बचने के लिए अंगूर के हरे - भरे बेलों की शरण ली और बाद में लालच के कारण सारी पत्तियाँ खा ली । शिकारी और अपने बीच के आवरण को उसने स्वयं ही खत्म कर दिया और मारा गया । लालच के कारण मनुष्य का भी यही हाल हो सकता है उसे अपने लालच पर लगाम लगाना होगा और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर नियंत्रण रखना होगा तभी यह धरा सुरक्षित रह पायेगी ।
देव मान कर पूजा इन्हें , पूर्वजों ने हमारे ।
शामिल किया हर क्रियाकलाप में ,
जन्म से लेकर मरण तक संस्कार सारे ।
प्रकृति के हर रुप का सम्मान करना ,
भूख , प्यास और बीमारी में यही हैं सहारे ।
वन, नदी , पहाड़ , अम्बर , धरा ,
प्रकृति के बहुमूल्य रत्न हमारे ।
सूर्य , चंद्र , ग्रह करते परिक्रमा ,
नतमस्तक हो सागर चरण पखारे ।
अक्षय ,अखण्ड रहे धरा हमारी ,
अपना तन , मन , धन इस पर वारें ।
संतुलित कर अपने क्रियाकलाप ,
अस्तित्व को बचा अपना कल सँवारें ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़