Sunday, 26 January 2020

गणतंत्र दिवस

गणतंत्र का वास्तविक अर्थ है सबको समानता के साथ जीने का अधिकार पर समानता है कहाँ  ? समानता लाने के लिए ही संविधान में आरक्षण की नीति लाई गई ताकि जिन्हें पूर्व में आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिला वे भी आगे बढ़ें । अब भी आरक्षण खत्म नहीं हुआ तो सामान्य वर्ग के लोगों को आरक्षण देना पड़ेगा क्योंकि वे अब दौड़ में पीछे रह जायेंगे । जब तक जातिगत आरक्षण खत्म नहीं होगा समानता नहीं आयेगी । परीक्षा लेने का सही मतलब तभी है जब यह योग्यता आधारित हो , उच्च अंक पाने वाले का चयन नहीं होता और कम अंक वाले चयनित हो जाते हैं फिर कैसी समानता ? फिर भी गणतंत्र दिवस की सभी को बधाई  , इस दिन हमारा संविधान लागू हुआ था जिसे बहुत परिश्रम से बनाया गया । एक दिन के लिए ही सही जोश , देशभक्ति व उत्साह सभी ओर देखने को मिलता है । नन्हें - मुन्नों के मन में देशभक्ति के बीज अंकुरित होते हैं जो आगे चलकर एक अच्छे नागरिक रूपी वृक्ष बनते हैं । भारतीय पर्व हमारे भीतर संस्कार बोते हैं , राष्ट्रीय पर्व राष्ट्रीयता की भावना । शिक्षक होने के नाते यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि हम बच्चों में राष्ट्र भक्ति व नैतिक मूल्यों के बीज रोपित व पल्लवित करें । अपने देश के लिए मर - मिटने वाले वीर जवानों को सम्मान देना सिखायें , उनमें भी वक्त आने पर देश के काम आने का जज्बा पैदा करें । आजकल के वाइरल हो रहे वीडियो में नन्हें बच्चों को  जिन्हें जाति- धर्म की समझ नहीं है उन्हें किसी के खिलाफ  अनर्गल बातें करते देखकर बहुत दुःख होता है , राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए लोग अपने बच्चों का भी इस्तेमाल करने से नहीं चूकते , उनका भविष्य बर्बाद करते हैं । जातिगत , धर्म की राजनीति करने के लिए बच्चों के मासूम दिलों में नफरत  मत भरिये , आपने अपना वर्तमान तो खराब कर ही लिया है ।
       आज का दिन बच्चों के साथ बहुत उत्साह व  खुशियों के साथ बीता । मार्चपास्ट की धुन  देशभक्ति व उल्लास का  अभूतपूर्व वातावरण पैदा करता है । मन तरंगित हो उठता है और अपने वीर जवानों के प्रति गर्व , सम्मान व श्रद्धा से सिर झुक जाता है । कर्तव्य और अधिकार  के कशमकश के बीच आप सभी को गणतंत्र दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं ।

पहचान

वसन का एक टुकड़ा नहीं यह ,
इसमें बसती हमारी जान है ।
कभी न झुकने देंगे इसे हम ,
राष्ट्र ध्वज हमारी पहचान है ।

देश की रक्षा की खातिर ,
दिलो - जान हम लुटा देंगे ।
दुश्मन गर आड़े आया तो,
उसको भी धूल चटा देंगे ।
वीर जवानों की ताकत पर ,
हम सबको अभिमान है ।

विविध वर्ण और धर्म को ,
अपने गले लगाया है ।
सदाशयिनी संस्कृति अपनी ,
स्नेह - निर्झर बहाया है ।
सबके हैं अधिकार बराबर ,
सबको मिला सम्मान है ।

शांति , अहिंसा के पोषक  हैं ,
गाते सौहाद्रता के गीत ।
राष्ट्रीयता के ताने - बाने में  ,
गुंथी हुई है अपनी प्रीत ।
एक है अपनी भारत माता ,
हम उसकी सन्तान हैं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़






गणतंत्र दिवस

गणतंत्र का वास्तविक अर्थ है सबको समानता के साथ जीने का अधिकार पर समानता है कहाँ  ? समानता लाने के लिए ही संविधान में आरक्षण की नीति लाई गई ताकि जिन्हें पूर्व में आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिला वे भी आगे बढ़ें । अब भी आरक्षण खत्म नहीं हुआ तो सामान्य वर्ग के लोगों को आरक्षण देना पड़ेगा क्योंकि वे अब दौड़ में पीछे रह जायेंगे । जब तक जातिगत आरक्षण खत्म नहीं होगा समानता नहीं आयेगी । परीक्षा लेने का सही मतलब तभी है जब यह योग्यता आधारित हो , उच्च अंक पाने वाले का चयन नहीं होता और कम अंक वाले चयनित हो जाते हैं फिर कैसी समानता ? फिर भी गणतंत्र दिवस की सभी को बधाई  , इस दिन हमारा संविधान लागू हुआ था जिसे बहुत परिश्रम से बनाया गया । एक दिन के लिए ही सही जोश , देशभक्ति व उत्साह सभी ओर देखने को मिलता है । नन्हें - मुन्नों के मन में देशभक्ति के बीज अंकुरित होते हैं जो आगे चलकर एक अच्छे नागरिक रूपी वृक्ष बनते हैं । भारतीय पर्व हमारे भीतर संस्कार बोते हैं , राष्ट्रीय पर्व राष्ट्रीयता की भावना । शिक्षक होने के नाते यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि हम बच्चों में राष्ट्र भक्ति व नैतिक मूल्यों के बीज रोपित व पल्लवित करें । अपने देश के लिए मर - मिटने वाले वीर जवानों को सम्मान देना सिखायें , उनमें भी वक्त आने पर देश के काम आने का जज्बा पैदा करें । आजकल के वाइरल हो रहे वीडियो में नन्हें बच्चों को  जिन्हें जाति- धर्म की समझ नहीं है उन्हें किसी के खिलाफ  अनर्गल बातें करते देखकर बहुत दुःख होता है , राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए लोग अपने बच्चों का भी इस्तेमाल करने से नहीं चूकते , उनका भविष्य बर्बाद करते हैं । जातिगत , धर्म की राजनीति करने के लिए बच्चों के मासूम दिलों में नफरत  मत भरिये , आपने अपना वर्तमान तो खराब कर ही लिया है ।
       आज का दिन बच्चों के साथ बहुत उत्साह व  खुशियों के साथ बीता । मार्चपास्ट की धुन  देशभक्ति व उल्लास का  अभूतपूर्व वातावरण पैदा करता है । मन तरंगित हो उठता है और अपने वीर जवानों के प्रति गर्व , सम्मान व श्रद्धा से सिर झुक जाता है । कर्तव्य और अधिकार  के कशमकश के बीच आप सभी को गणतंत्र दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं ।

Thursday, 23 January 2020

गाथा

भारतीय संस्कृति की गाथा बड़ी पुरानी है ,
वेद और उपनिषद की बातें सबने मानी है ।

 शूरवीर , योद्धाओंने इस धरती पर जन्म लिया ,
राष्ट्र की खातिर मृत्यु का हँसकर वरण किया ।
बैरियों को सबक सिखाने की मन में ठानी है ।

यहाँ अतिथि को देवतुल्य माना जाता है ,
सारा संसार ही अपना कुटुंब कहलाता है ।
घर - घर  पढ़ी जाती रामायण की कहानी है ।

वचन निभाने को राम ने राज सुख छोड़ा ,
धरा की ओर भगीरथ ने गंगा का रुख  मोड़ा ।
लोकहित के लिए दधीचि ने दी  कुर्बानी है ।

राजधर्म को अहिल्या ने बखूबी सम्भाला ,
दुर्गावती ने  शौर्य  से दुश्मन को निकाला ।
अंग्रेजों के छक्के छुड़ाती झाँसी की रानी है ।

 गौतम बुद्ध ने विश्व को शांति का संदेश दिया ,
 गुरुओं ने स्नेह और सौहाद्र का उपदेश दिया ।
गली - गली में गूँजती दादू , कबीर की बानी  है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़












Friday, 17 January 2020

ग़ज़ल

काफ़िया - अन
रदीफ़ - देखता रहा

अनुराग से भरा मन देखता रहा  ,
मैं फूलों से भरा चमन देखता  रहा ।

तारे  टूटकर जमीं पर आ गये ,
मैं रात भर स्याह गगन देखता रहा ।

दुनिया ने उसे हारते ही देखा ,
मैं उसके जीत की लगन देखता रहा ।

ठूँठ देखकर  नजर फेर लिया ,
मैं काष्ठ में छुपा अगन देखता रहा ।

लोग तरक्की के ख्वाब बुनते रहे "दीक्षा "
मैं ख्वाब में भी अपना वतन देखता रहा ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग  छत्तीसगढ़













Wednesday, 15 January 2020

हाय राम ! मैंने सच क्यों बोला

 बहुत दिनों बाद एक दोस्त से मेरी मुलाकात हुई । हम दसवीं कक्षा तक सहपाठी थे तो स्वाभाविक है कि एक - दूसरे के बारे में भली - भाँति जानकारी रखते थे । उसने मुझे बताया कि उसे  " शिक्षा श्री " सम्मान प्राप्त हुआ है । मेरे मुँह से अनायास ही  निकल गया "- कितने का पड़ा ? " बस वह भड़क गई  ।बरसों पुरानी दोस्ती टूट गई मैंने अपना सिर पीट लिया - हाय राम ! मैंने सच क्यों बोला ? यह सच बोलने की आदत किसी दिन मुझे बहुत बड़ी मुसीबत में डालने  वाली है । आज से कई वर्ष पहले कबीर दास भी कह गये थे -
साधो , यह जग भया बौराना ।
सांच कहो तो मारन धायो , झूठे जग पतियाना ।
    सचमुच यह संसार बौरा गया है । कोई भी सच सुनना नहीं चाहता , झूठ  पर सभी विश्वास कर लेते हैं । ऐसा झूठ जो उन्हें  पसन्द है , लोग बार - बार सुनना पसन्द करते हैं । एक महोदय अपनी कविताएं किसी पत्रिका  में प्रकाशित करने की खुशी फेसबुक में साझा करते हैं । उनकी  प्रत्येक रचना मात्रा , लिंग और वचन सम्बन्धी अशुद्धियों से भरी होती है । मुझसे हिंदी की दुर्दशा देखी नहीं गई और मैंने कमेंट्स लिख दिया - " 
आपके भावों की अभिव्यक्ति के लिए शब्द असमर्थ हैं । " पर अफसोस ! उन्होंने  लिखना बन्द नहीं किया और न ही उस पत्रिका ने छापना । 
           पड़ोसन के गाने के शौक ने हमें बड़ा परेशान किया था वो तो भला हो अपनी स्पष्टवादिता का , पूरे मोहल्ले को उनके आलाप से मुक्ति मिल गई अलबत्ता उसके दण्ड स्वरूप हमारे घर आने वाली स्वादिष्ट व्यंजनों की आवक बन्द हो गई और अपनी सत्यवादिता पर मुझे घरवालों की डाँट सुननी पड़ी । " तुमने ही सारे जमाने को सुधारने का ठेका लिया है क्या ? 
पर क्या करूँ , आदत से मजबूर हूँ  न चाहते हुए भी सच मुँह से निकल ही जाता है । झूठमूठ लोगों की तारीफ करना आता तो  सफलता की न जाने कितनी  सीढ़ियां  चढ़ जाती । अपनी कमियों के बारे में जानना कौन पसन्द करता है  । कबीर जी ने  निंदक को अपने आँगन में कुटी बनाकर रखने की सलाह दी थी परन्तु आजकल बुजुर्गों की सलाह कौन मानता है ।
     यह दिखावे की दुनिया है , कम करके अधिक दिखाना भी एक कला है । ऐसे लोग जल्दी फलते - फूलते हैं । दूसरों के किये कार्यों का श्रेय लेकर कई लोग मजे करते हैं और  काम करने वाले हमेशा बैल की तरह जुते ही रहते हैं , गाली भी खाते हैं । सच कह - कह कर मैंने बहुत सारे रिश्ते बिगाड़ लिये हैं , अब कोशिश करती हूँ कि जबान पर काबू रखूँ और सच बोलने से परहेज करूँ । झूठ बोल कर दूसरों को खुश करने का अभ्यास बदस्तूर जारी है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
          

Wednesday, 8 January 2020

भारत माँ की रक्षा करने

सीमा पर जाते सैनिक का अपनी पत्नी से संवाद
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भारत माँ की रक्षा करने ,
सीमा पर जाना तुम ।
दुश्मनों को मार भगाना ,
पीठ नहीं दिखलाना तुम ।

अपनी बाहों में कसकर ,
मुझको गले लगाना तुम ।
विदा करो हँसकर मुझको ,
आँख में आँसू न लाना तुम ।

सूरज को जब अर्ध्य करूँ तो ,
अपना हाथ लगाना तुम ।
रात में चन्दा को निहारूँ ,
अपनी झलक दिखाना तुम ।

फूलों का दीदार करूँ जब ,
यादों में महक जाना तुम ।
नींद अगर मुझको आये तो ,
ख्वाबों में मिलने आना तुम ।

दर्पण देख शृंगार करूँ जब ,
बिंदिया में छबि दिखाना तुम ।
माटी का कर्ज चुकाकर ,
पास मेरे लौट आना तुम ।
पास मेरे लौट आना तुम ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ,छत्तीसगढ़

सजल - 8

समांत - आ
पदांत - रहा

अम्बर में घना अंधेरा छा रहा 
लगता है सुबह का सूरज आ रहा 
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गम न कर उस वक्त का जो बीत गया
व्यर्थ ही इस बात पर पछता रहा ।
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जागना पड़ता है उजालों के लिए
उनींदी आँखों में ख्वाब सजा रहा ।
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ढह जायेंगे  आँधियों के झोंके से
रेतों के महल तू जो बना रहा ।
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कर देता दूर तक राहों को रोशन
एक दीप जो अंधेरे में जला रहा
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 7 January 2020

भेड़ें ( लघुकथा )

1 . *भेड़ें* ( लघुकथा )
      " सत्ताधारी बदल गये हैं पर जनता की समस्याएं अब भी जस की तस हैं । रिश्वतखोर अधिकारी मालामाल हैं गरीब और कंगाल हो गया है "-  एक व्यक्ति ने कहा ।" हाँ यार ! महंगाई और भ्रष्टाचार  है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा, इसमें  पिसता कौन है ? सिर्फ जनता " -- दूसरे ने कहा ।
   अरे ! यही तो सच्चाई है , " खाल तो भेड़ों के शरीर से ही खींची जाती है , खींची जाती रहेगी ; गड़रिया कोई भी हो उसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला । राजनीति का  विद्रूप  चेहरा हँसने लगा था ।
स्वरचित  -- डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

2. *आँचल* (लघुकथा)

   पूरा मोहल्ला उसे बिलखते देख रहा था... राधा के पति एक लंबी बीमारी के बाद चल बसे थे....दो छोटे बच्चों की जिम्मेदारी उसके सिर पर आ गई थी । न माँ - पिता  , न कोई रिश्तेदार.... असहाय महसूस कर रही थी वह अपने - आपको । कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह अब क्या करेगी , कैसे पालेगी बच्चों को... सोलह बरस में शादी हो गई थी , आठवीं पास को काम भी क्या मिलेगा... मजदूरी  या कहीं झाड़ू - पोंछा ही करना पड़ेगा । लोगों ने मिलकर उसके पति का क्रियाकर्म कर दिया  पर जीवितों का पेट भरने के लिए सब दुःख भूलकर उसे कर्म करना पड़ेगा ।वह निकल पड़ी थी दोनों बच्चों को लेकर ...आसमान में काले मेघ छाये थे...मुसीबतों की तरह बूूँदें भी बरसने लगीं थीं..बच्चों के सिर पर अपनी साड़ी  का  आँचल तान दिया था उसने....ममता की यह छाँव सभी बारिशों पर भारी थी ।
स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

3 . *नुस्खा* (लघुकथा )

        शाम को घूमने निकले श्रीवास्तव जी का मन उदास और कदम शिथिल थे । पत्नी के न होने की कमी आज बेइंतहा महसूस हो रही थी । बेटे - बहू पर बहुत अधिक निर्भर कभी नहीं हुए वो बल्कि  अपनी तरफ से उन्हें स्वतंत्र ही रखा , रिश्तों में संतुलन बनाने की कोशिश की । आज एक सामान्य प्रश्न के जवाब में बहू झल्ला पड़ी थी , पहली बार बेरुखी से पेश आई थी । बस वही बातें उन्हें व्यथित कर रही थीं । पार्क में बैठकर बहुत देर तक सोचते रहे ,  बहू  नौकरी व घर की जिम्मेदारी में संतुलन बनाये रखती है , बच्चों की देखभाल करती है हो सकता है आज उसकी तबीयत ठीक न हो या ऑफिस में कुछ गलत होने पर उसका मूड खराब हो । इस सोच ने उनका मन हल्का कर दिया और लौटते वक्त वह उसके लिए पानीपुरी पैक करवा कर ले आये थे । बहू की आँखें खुशी से चमक उठी थी पानीपुरी के तीखे स्वाद ने ऑंखों के साथ दिलों में नमी ला दी थी " बाबूजी ! मैंने किसी और बात का गुस्सा आप पर उतार दिया था आप मुझे माफ़ कर देंगे न । " गुस्से का इलाज सिर्फ प्यार ही हो सकता है , श्रीवास्तव जी का नुस्खा काम कर गया था ।
डॉ. दीक्षा चौबे

4 . *शिक्षादान* (लघुकथा )

         शादी के बाद रुचि को पति के साथ मुंबई आना पड़ा । उसे अपनी चार वर्ष की नौकरी छोड़नी पड़ी , यह बात उसे बहुत पीड़ा दे रही थी । पति के ऑफिस चले जाने के बाद वह बहुत   बोर होती , पहले  उसकी कितनी व्यस्त दिनचर्या रहती थी । एक दिन उसके पड़ोस में रहने वाली चाची अपनी बेटी प्रिया को लेकर आई जिसे अपनी पढ़ाई में कुछ समस्या आ रही थी । रुचि ने उसे कुछ दिन पढ़ाया , प्रिया को उसके पढ़ाने की शैली पसंद आई और उसने आगे भी पढ़ाने के लिए रुचि  से निवेदन किया । प्रिया की दो - तीन सहेलियाँ भी पढ़ने आने लगी थीं । रुचि को अपनी शिक्षा सार्थक लगने लगी थी । शिक्षित होने की अंतिम परिणति सिर्फ नौकरी ही क्यों ? थोड़ा ही सही पर समाज को वह अपना योगदान तो दे रही थी । शिक्षादान करके उसे अत्यंत सन्तुष्टि और आनन्द की प्राप्ति हो रही थी  ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

5. *मद्धिम आँच* (लघुकथा )
        आज सुबह से आँचल महसूस कर रही थी कि सासु माँ कुछ नाराज सी लग रही हैं । पति आशीष की ओर देखकर इशारों में पूछा - "बात क्या है ?" प्रत्युत्तर में उसने भी कंधे उचका दिये शायद इस बार उन्हें माँ से मिलने आने में देर हो गई थी । आँचल ने बात शुरू की  -  " मम्मी जी आपके हाथों के बड़े कितने अच्छे लगते हैं , मैंने बनाये थे तो कच्चे- कच्चे से  लगे "।  " अरे , तूने तेज आँच में जल्दी - जल्दी सेंक दिया होगा । चल आज दाल भिगा , तुझे बड़े बनाना सिखाती हूँ । " और शाम को  आशीष सास - बहू दोनों  को बातें करते हुए देख रहा था .....चूल्हे की मद्धिम आँच पर बड़े सिंक रहे थे , स्नेह और आदर की मद्धिम आँच में रिश्ते भी .. ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

पंचायती राज ( लघुकथा )

पंचायती राज आने से गाँवों का विकास होगा , यही सोचकर गाँधी जी ने इसकी वकालत की थी । उनके विचारों का अनुसरण करके इसे लागू कराया गया । ग्राम - पंचायतों के  चुनाव हुए और जन प्रतिनिधि चुनकर आ गये । जनता बेहाल है , बिना कमीशन दिये किसी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिलता । अलबत्ता सरपंच का घर दो मंजिला हो गया है , दो - तीन  बड़ी गाड़ियाँ भी खरीद ली है ।  सचमुच अब गाँवों में भी विकास दिखने लगा है  ।
स्वरचित - डॉ.  दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 6 January 2020

मेरी सतरंगी दुनिया

फूलों की बिछी सेज यहाँ ,
रहती नित नई बहारें हैं ।
मन्द मन्द शीतल समीर ,
बरसती रिमझिम फुहारें हैं ।
यह मेरी सतरंगी दुनिया ,
प्रियतम तुझे पुकारे है ।
उमड़ता प्यार - दुलार ,
ढेर सारी मनुहारें हैं ।
मधुर मकरंद भाव - विचार ,
पावन दृग - जल के धारे हैं ।
यह मेरी सतरंगी दुनिया ,
प्रियतम तुझे पुकारे है ।
बहती काव्य सरिता यहाँ ,
कथा - किस्सों की कतारें हैं ।
अपना बनाने को आतुर ,
नैना प्रेम पन्थ निहारे हैं ।
यह मेरी सतरंगी दुनिया ,
प्रियतम तुझे पुकारे हैं ।
नैनों की राह से अतिथि ,
मन - मन्दिर में पधारे हैं ।
स्वागत में बिछ गई पलकें ,
अश्रुजल चरण पखारे हैं ।
यह मेरी सतरंगी दुनिया ,
प्रियतम तुझे पुकारे है ।
भाव विव्हल अवरुद्ध कण्ठ
बस तेरा ही नाम पुकारे हैं ।
साँस - साँस पर नाम लिखा ,
धड़कन से भी प्यारे हैं ।
इस प्रणय , बेला पर प्रिय ,
कई - कई जीवन वारे हैं ।
यह मेरी सतरंगी दुनिया ,
प्रियतम तुझे पुकारे है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़




Saturday, 4 January 2020

नैहर छूट न पाय

उस दिन मेरी मुलाकात अपनी सहेली रमा से हुई । बहुत दिनों
उससे मिली थी तो काफी देर तक हम बातें करते रहे । हमने फोन नम्बर का आदान - प्रदान किया और फिर नियमित रूप से हमारी बातें होने लगीं । वह अपने ननद से बहुत परेशान थी जो उसी शहर में रहती थी । वह लगभग हर दूसरे - तीसरे दिन मायके पहुँच जाती है और अपनी माँ यानी रमा की सास को भड़काते रहती है । वैसे रमा के साथ उनका व्यवहार ठीक रहता है लेकिन उनकी बेटी न जाने क्या पट्टी पढ़ाती है कि उसके जाने के बाद वह रमा के हर काम में मीनमेख निकालने लगती हैं , बात - बात में ताने मारने लगती हैं कि तुमने ऐसा नहीं किया वैसा नहीं किया । हर काम तुम अपनी मर्जी की ही करती हो । 
        जब वह बीमार होती हैं तो उनकी तीमारदारी रमा जी जान से करती हैं ऐसे मौके पर नन्दरानी नदारद हो जाती हैं कि कहीं उनके सिर कोई काम न आ जाये । एक - दो बार ऐसा हुआ तो सबको लगा कि सच में उन्हें कुछ काम आ गया लेकिन कई बार ऐसा होने पर सासु माँ भी उनकी चतुराई भाँप गई । सासु माँ की सेवा करके रमा ने उनका दिल जीत लिया था । अबकी बार जब ननद ने रमा के खिलाफ अपनी माँ को भड़काना शुरू किया तो उन्होंने खुद ही अपनी बेटी को टोक दिया । जैसी भी है वह मेरी बहू  है और मेरा बहुत खयाल रखती है । अगर उससे कोई गलती भी होती है तो हम सास - बहू सम्भाल लेंगे बेटा , तुम अपनी भाभी के बारे में कुछ मत बोला करो । अब तुम अपनी ससुराल की चिंता किया करो । जब बहू को घर की जिम्मेदारी सौंपी है तो अधिकार भी तो देना पड़ेगा । ननद अपनी माँ की बात सुनकर चुप रह गई और आगे उसने मायके की बातों में दखल देना भी बंद कर दिया ।
        रमा की सास ने अपनी बेटी को टोककर रमा की गृहस्थी सम्भाल ली परन्तु अधिकांश माताओं को अपनी बेटी में कोई कमी नहीं दिखती । उन्हें हमेशा बहू ही  गलत लगती है और इस तरह रिश्तों में खटास आने लगती है । बेटियों को शादी के बाद विशेषकर भाई की शादी के बाद अपने मायके की हर बात में दखल देना बन्द कर देना चाहिए । भाभी को अपना घर अपनी मर्जी से सँवारने दीजिए , उन्हें अपने परिवार की देखभाल करने दीजिए । भाई से आपको कितना भी प्यार हो पत्नी का स्थान तो खास होगा ही । बेटियों के अत्यधिक दखल के कारण कई बार उनके भैया - भाभी का वैवाहिक जीवन भी तनाव पूर्ण हो जाता है ।यदि सचमुच आपको अपने भाई की परवाह है तो अब थोड़ा मायके का मोह कम कीजिए । मायके व ससुराल एक ही शहर में होने वाली लड़कियों को इस बारे में विशेष सावधानी बरतनी चाहिए ।
साथियों , उम्मीद है आपको मेरा ब्लॉग पसन्द आया होगा । ढेर सारी बातें करने के लिए मेरा ब्लॉग फॉलो करें । धन्यवाद ।
डॉ. दीक्षा चौबे

Friday, 3 January 2020

ग़ज़ल

ग़ज़ल
काफ़िया (तुकांत ) - अता
रदीफ़ ( पदांत ) - रहा

राह -ए -जिंदगानी में चलता रहा ,
दरिया की रवानी में बहता रहा ।

रख लिया जो  कुछ भी मुझको मिला ,
लोग कहते रहे मैं ही सुनता रहा ।

सरे - राह  बाधाएँ आती रहीं ,
मंजिलों की तरफ़ मैं बढ़ता रहा ।

वो नश्तर सीने में चुभोते रहे ,
मैं चुप रहकर सब दर्द सहता रहा ।

बनकर अपना मुझे वो छलते रहे ,
सब सच जानकर भी मैं हँसता रहा ।

फूल ही चुन लिये खार रहने दिया ,
रकीबों से मैं अपने लड़ता रहा ।

"दीक्षा" उम्मीद का दामन थामे रखा ,
वो गिराते रहे मैं सम्भलता रहा ।

स्वरचित -
डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़