साधो , यह जग भया बौराना ।
सांच कहो तो मारन धायो , झूठे जग पतियाना ।
सचमुच यह संसार बौरा गया है । कोई भी सच सुनना नहीं चाहता , झूठ पर सभी विश्वास कर लेते हैं । ऐसा झूठ जो उन्हें पसन्द है , लोग बार - बार सुनना पसन्द करते हैं । एक महोदय अपनी कविताएं किसी पत्रिका में प्रकाशित करने की खुशी फेसबुक में साझा करते हैं । उनकी प्रत्येक रचना मात्रा , लिंग और वचन सम्बन्धी अशुद्धियों से भरी होती है । मुझसे हिंदी की दुर्दशा देखी नहीं गई और मैंने कमेंट्स लिख दिया - "
आपके भावों की अभिव्यक्ति के लिए शब्द असमर्थ हैं । " पर अफसोस ! उन्होंने लिखना बन्द नहीं किया और न ही उस पत्रिका ने छापना ।
पड़ोसन के गाने के शौक ने हमें बड़ा परेशान किया था वो तो भला हो अपनी स्पष्टवादिता का , पूरे मोहल्ले को उनके आलाप से मुक्ति मिल गई अलबत्ता उसके दण्ड स्वरूप हमारे घर आने वाली स्वादिष्ट व्यंजनों की आवक बन्द हो गई और अपनी सत्यवादिता पर मुझे घरवालों की डाँट सुननी पड़ी । " तुमने ही सारे जमाने को सुधारने का ठेका लिया है क्या ?
पर क्या करूँ , आदत से मजबूर हूँ न चाहते हुए भी सच मुँह से निकल ही जाता है । झूठमूठ लोगों की तारीफ करना आता तो सफलता की न जाने कितनी सीढ़ियां चढ़ जाती । अपनी कमियों के बारे में जानना कौन पसन्द करता है । कबीर जी ने निंदक को अपने आँगन में कुटी बनाकर रखने की सलाह दी थी परन्तु आजकल बुजुर्गों की सलाह कौन मानता है ।
यह दिखावे की दुनिया है , कम करके अधिक दिखाना भी एक कला है । ऐसे लोग जल्दी फलते - फूलते हैं । दूसरों के किये कार्यों का श्रेय लेकर कई लोग मजे करते हैं और काम करने वाले हमेशा बैल की तरह जुते ही रहते हैं , गाली भी खाते हैं । सच कह - कह कर मैंने बहुत सारे रिश्ते बिगाड़ लिये हैं , अब कोशिश करती हूँ कि जबान पर काबू रखूँ और सच बोलने से परहेज करूँ । झूठ बोल कर दूसरों को खुश करने का अभ्यास बदस्तूर जारी है ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
No comments:
Post a Comment