झूठा है वह यौवन जिसमें आग नहीं है
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घुल जाने दो जीवन में खुशियों के सब रंग
फीका है वह फागुन जिसमें फ़ाग नहीं है
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जीवन बीता है सदा एड़ियां रगड़ते हुए
प्रारब्ध में रोटी तो कभी साग नहीं है
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खतरे में पड़ा है आज उसका अस्तित्व
वह डसने वाला जहरीला नाग नहीं है
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लालसा के कीचड़ में आकंठ डूबे हैं
चेहरों के मुखौटे भी बेदाग नहीं है
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सींच कर इसकी हरियाली बचाये रखना
हृदय पुष्प खिले न जहाँ वो बाग नहीं है
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उतरना ही था कभी बर्तन के मुलम्मे को
जीवन की हकीकत है सब्जबाग नहीं है
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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