Tuesday, 20 June 2017

अपनी वाली ( लघु कथा)

वह बस से रोज लगभग सौ किलोमीटर की यात्रा कर
अपने कार्यस्थल पर जाते हैं । बस में कई लोगों से
मुलाकात होती है । रोज आने वाले चेहरे लगभग
परिचित हो गए हैं । स्कूल की बहुत सी शिक्षिकायें
भी चढ़ती हैं  ...रंग - बिरंगी और सबके आकर्षण का
केंद्र भी होती हैं । सुबह छः बजे  घर से निकल जाने वाली ये मैडम न जाने कब समय निकाल लेती हैं , इतना तैयार होने के लिये ...वह अक्सर सोचता है ।
    उसे अपनी पत्नी याद आ जाती है । दिन भर घर
के कामों में व्यस्त ...कभी तैयार रहती ही नहीं । बिखरे
बाल ,अस्त व्यस्त कपड़े..दो जोड़ी पुराने कपड़े में
ही अक्सर दिखती है, लेकिन हाँ.. जब कहीं बाहर
जाने के लिये तैयार होकर आती है तो देखते ही रह
जाता है वह ....। कहाँ छुपा रहता है यह सौंदर्य बाकी
दिनों ।
    "  ए मिस्टर , जरा अपने पैरों को समेटकर बैठिए"
सामने बैठी खूबसूरत कन्या ने बड़ी ही बदतमीजी से
उसे वर्तमान में ला पटका ,खयालों में खोए हुए शायद
उसका पैर उन्हें छू गया था ।  सौम्य , सरल व्यवहार रखने  वाली पत्नी याद आ गई थी ....अपनी वाली ही
भली ...वह मन ही मन बुबबुदाया था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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