Monday, 5 June 2017

* मत फाड़ो हरियाली की चादर *

नम आँखों से देख रही थी मैं ,
स्कूल प्राँगण के सामने कटता हुआ ..
वह विशाल आम का पेड़  ...
या टूटते  हुए कई परिवार  ।
उसकी गिरती शाखाएँ ,
कर रही थीं चीत्कार ।
जैसे माँ से बिछड़ा बच्चा ,
रो रहा हो जार - जार ।
रह - रह कर गिरते पत्ते ,
रोते और बिलखते ।
मुँह छुपा कर धरती में ,
ढूंढ रहे आधार ।
टूटा वह चिड़िया का घोंसला ,
गिरे कुछ अंडे , दो बच्चे ।
माँ गई होगी लाने दाना ,
यहाँ खाक हुआ आशियाना ।
नहीं आयेंगे कौए , तोते ,
अब न होगी छाँव की ठंडक ।
नहीं हो पाएगी अब यहाँ ,
चिड़ियों की भी बैठक ।
थके - हारे पथिक ,
ढूंढेंगे एक अदद छाँव भी ।
भौतिकता की अंधी दौड़ से ,
अछूते न रहे गाँव भी ।
कटते जा रहे पेड़ निरन्तर ,
बढ़ रहा आबादी का कहर ।
फैलता जा रहा सर्वत्र ,
गन्दगी व धुंए का जहर ।
कृत्रिमता ओढ़ने के लिए ,
मत फाड़ो हरियाली की चादर ,
नहीं तो पछताओगे ।
प्राप्त कर ली सारी सुविधाएं ,
गाड़ी , कपड़े ,घर....
खड़े कर लिए बड़े - बड़े कारखाने..
लेकिन ...
साँस लेने किधर जाओगे ।
     ---/---
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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