एक प्यारी सी गुड़िया थी रानू । वह अपनी माँ के साथ
रहती थी । उसकी माँ दूसरों के घर का काम - काज
करके उसका और अपना पेट भरती थी । गरीब होकर
भी वह रानू को खूब पढ़ाना चाहती थी । रानू मन लगा
कर पढ़ती भी थी । हमेशा उसके अच्छे नम्बर आते थे ।
जब वह आठवीं में थी , ठीक परीक्षा के वक्त उसकी माँ की तबीयत अचानक खराब हो गई । बेचारी रानू ! माँ की देखभाल करती , माँ के बदले में काम पर जाती
और रात को थोड़ा - बहुत पढ़ती। किसी तरह उसने परीक्षा दिलाई , लेकिन इस बार उसके बहुत कम नम्बर
आये ।
गरीब माँ के गिड़गिड़ाने पर बड़ी मुश्किल से हाई -
स्कूल में दाखिला मिला । बड़ी मायूस हो गई थी रानू ,
उसे निराशा ने घेर लिया था ।बस , दिन - रात रोते रहती । उसकी माँ भी उसकी हालत देखकर बहुत दुखी थी ।
एक दिन रानू ने एक अपंग भिखारी को देखा ।उसके हाथ - पैरों की उंगलियाँ गल गई थी । शारीरिक
विकलांगता होने के बावजूद उसमें जीने का उत्साह था , विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का साहस था
रानू सोचने लगी - "यह निर्बल होने पर भी खुश है ,
परिस्थितियों से लड़ रहा है । एक मैं हूँ जो एक छोटी
सी असफलता से ही घबरा गई हूँ ।" उसका खोया हुआ
आत्मविश्वास लौट आया । वह तन - मन से पढ़ाई में
जुट गई । उसकी मेहनत रंग लाई । इस बार उसने कक्षा
में सर्वाधिक अंक प्राप्त किये ।
उसे स्कूल के प्राचार्य ने पुरस्कार प्रदान किया । रानू
बहुत खुश थी । पुरस्कार लेते हुए वह मन ही मन संकल्प ले रही थी - "अब जीवन में किसी भी कठिनाई
का सामना करना पड़े तो मैं उससे लड़ूंगी ।"रानू को
आत्मविश्वास का बल जो मिल गया था ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगद
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