गुमनाम सी मोहब्बत पर ,
अंधेरों का साया है ।
ख्वाहिशों की कब्र को ,
आँसुओं से सजाया है ।
न रसमें हैं , न कसमें हैं ,
न रिश्तों का बन्धन है ।
अनकही बातों को,
लबों पे ठहराया है ।
न बातें हैं , न वादे हैं ,
न शिकवे हैं , न शिकायतें ,
बस नजरों ने मिलकर,
एक अफ़साना बनाया है ।
थोड़ी सी फिक्र है,
एक - दूजे का थोड़ा ख्याल है ।
खामोश सरगोशियों ने ,
अपनापन बढ़ाया है ।
न जिस्मों की चाह है ,
न स्पर्श का आकर्षण ।
न जाने किस बन्धन ने ,
दो रूहों को एक बनाया है।
मासूम सा रिश्ता है,
एहसासो का खुशनुमा दर्पण है।
न लेना है , न देना है ,
बस भावनाओं का समर्पण है।
न जाने किस मिट्टी से खुदा ने ,
प्रेमियों का दिल बनाया है ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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