Saturday, 21 October 2017

शुभेच्छा

पति - पत्नी के बीच बहस तो आम बात है...पर आज
राज और रेखा की बहस कुछ ज्यादा हो गई थी । माहौल बेहद गर्म था , बच्चे सहमे हुए बैठे थे । आज
उनके विवाह की आठवीं वर्षगांठ थी ...बेवजह बात
बिगड़ गई थी..तनावपूर्ण वातावरण था । गलती दोनों
को समझ आ रही थी पर पहल कौन करे ।दोनों का मूड
ऑफ था...तभी अचानक...राज की छोटी बहन रश्मि
अपने परिवार के साथ आई ... ढेर सारे फूल , केक और
मुस्कुराहटें लेकर...शादी की सालगिरह मुबारक हो भैया
- भाभी ...इतने महत्वपूर्ण  दिन घर पर कैसे बैठे हो भई
चलो कहीं बाहर चलते हैं ...देखूँ भाभी ने क्या बनाया है
उफ...केले की सब्जी ...आज के दिन ये सब्जी कौन खायेगा...चलो कल खा  लेना । उसे देखकर  राज - रेखा को कुछ भी कहते नहीं बना ...बल्कि दोनों सामान्य होने की कोशिश करने लगे । बच्चे भी बुआ ,
फूफाजी और भाई - बहनों में व्यस्त हो गए ...बुआ के
बाहर जाने वाले सुझाव का सबने समर्थन किया और
घर बन्द कर निकल गए । कुछ घण्टे उनके साथ बहुत
मजेदार रहे...वापस लौटते समय राज और रेखा के बीच
का तनाव उड़न  -छू हो चुका था । रश्मि  एक ठण्डी
हवा के झोंके की तरह उनके बोझिल लम्हों को उड़ा ले
गई थी ..साथ ही विवाह के समय के गुदगुदाते  पलों
की याद भी दिलाती गई क्योंकि सारे खूबसूरत पलों की
वह गवाह होती है ननद होने के नाते.. विवाह , बच्चों के
जन्म संस्कार , गृह - प्रवेश सारे महत्वपूर्ण लम्हों में वह
साथ खड़ी होती है  । सुख - दुःख में साथ खड़े होने वाली  बहन सचमुच  उसके घर की रौनक है ...खुशियों
भरे इन पलों को प्रदान करने वाली रश्मि के लिये राज और रेखा दोनों के  दिल शुभेच्छाओं से भर उठे थे ।। 

सभी भाई - बहनों को भाई - दूज की ढेर सारी शुभकामनाएं।
    ☺️☺️  स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 18 October 2017

कुछ सन्देश देते ये दिये

चारों ओर गहन अंधकार फैला था...हाथों को हाथ न
सूझता था...न जाने कितने रहस्य छुपाये बैठा है ये
अंधेरा जिसके साम्राज्य में डर , निराशा, नकारात्मकता
हावी दिखाई देते हैं । राहगीर मन में कई संशयों  को पनाह देते ...घबराते हुए आगे बढ़ रहा था । भय ने उसके शरीर को शिथिल  कर  दिया था...ऊपर से झींगुरों की आवाजें , हवा की सरसराहट उसकी हिम्मत पस्त किये दे रही थी । तभी दूर कहीं एक दिए की मद्धिम रोशनी दिखाई पड़ी ....उम्मीद की किरण सी फूट पड़ी मन में , पता नहीं कहाँ से पैरों को नई ताकत
मिल गई ...मन के सारे संशय , भय सब नष्ट हो गये और
उसके भटके हुए कदम सन्तुलित हो गए ।
        न जाने कितनी शक्ति है इस नन्हें से दिये में...सरल किन्तु असाधारण । दिये की हल्की  सी रोशनी तम को खदेड़ देने के लिए काफी है ।उम्मीद और विश्वास जगाता है दिया, अपने से अधिक सामर्थ्यवान हवा से जूझता हुआ...यह  सिखा जाता है कि जब तक दम है अंतर्विरोधों से लड़ते रहो । इसमें ऊर्जा भी है और ऊष्मा भी...रोशन कर देने की शक्ति से भरा यह दिया हमें सिखा जाता है जीवन को सार्थक बनाना  । हमारा जीवन कितना  दीर्घ या  भव्य हो , यह जरूरी नहीं ...कितना सार्थक हो यह जरूरी है । इस छोटे से
दिये ने हमें असंख्य सीखें दी हैं ...दिये और रोशनी की
तरह सम्भावनावान बनें । ऊपर से कितने भी आकर्षक,
चमक - दमक हो पर भीतर से बिल्कुल सरल रहें ।मन में आशा का दीपक जला कर निराशा रूपी अंधेरों को
दूर भगायें ।
             दिये  की रोशनी हम सबके अन्तस् को
प्रकाशित कर खुशियों से रोशन कर दे । आप सभी के
जीवन से दुःख , निराशा के अंधेरे   नष्ट हो और खुशहाली आये यही शुभेच्छा है । दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं ।

   प्रस्तुति - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग ,  छत्तीसगढ़, 🙏🏼😄😄

Monday, 16 October 2017

दो कदम तुम चलो


   रवि  बैंक से थका - हारा घर लौटा था....एक गर्म चाय
की प्याली की उम्मीद  कर रहा था ...पर  निशु शायद घर पर  नहीं थी । अरे ! तुम आ गये... मै थोड़ा बाजार चली गई थी , सब्जी लाने  ... ठेले वाले तो  पाँच से दस रुपये बढ़ाकर ही लेते हैं , आते ही निशु ने कहा ।
     हाँ भई ...ठीक है , अब तो जल्दी से चाय पिला दो ...बहुत थकान महसूस हो रही है - रवि ने कहा। निशु तुरन्त चाय बनाने लग गई । आज उसे भी दिनभर काम रहा...वह भी बहुत थकान महसूस कर रही थी। दोपहर में
उसकी ननद आ गई थी , उनके जाने के बाद बच्चों का होमवर्क कराया , उन्हें ट्यूशन छोड़ने गई ...कुछ देर टीचर ने भी ले लिया । वह घर पर भी उन्हें प्रश्न - उत्तर याद करवाने बोल रही थीं क्योंकि बच्चों के सेकंड मिड टर्म होने वाले थे । फिर बाजार चली गईं थी  ,आते ही पति के लिए चाय - नाश्ता बनाकर फिर खाने की तैयारी में जुट गई । रात को देर से  सोना और सुबह जल्दी उठ जाना उसके लिए रोज की बात है... दोपहर में कभी आराम मिलता है कभी नहीं क्योंकि बच्चों के स्कूल से वापस आने का समय हो जाता है । घर पर ढेर सारे काम होते हैं
, कभी गेहूँ साफ करना , कभी किराना समान लाना , बच्चों के प्रोजेक्ट की तैयारी करवाना , उनके स्कूल का
काम पूरा करवाना , बैंक , गैस सब उस की जिम्मेदारी है । लेकिन रवि को ऐसा लगता है कि वह घर पर आराम ही
करती है ,अक्सर इस बात का ताना वह निशु को देते रहता । उसने कभी घरेलू कार्यों को महत्व ही नहीं दिया
न कभी निशु को मदद करने का प्रयास किया ।
      एक दिन वह अपने दोस्त रमन के घर गया था ..रमन
घर पर बच्चे को पढ़ा रहा था । अरे ! तू बच्चे को पढ़ाता है , भाभी नहीं पढ़ाती क्या ?
अरे नही ! पढाती तो वही है  अभी वह खाना बना रही है तो मैंने सोचा ये काम मैं कर देता हूँ । वह जल्दी फ्री हो जायेगी तो थोड़ी देर हम भी साथ वक्त बिता लेंगे । कभी
जब वह बच्चे को पढ़ाती है तो मैं खाना बना लेता हूँ... घर
पर भी बहुत काम रहता है यार , थक जाती है बेचारी । मैं
रोज तो विशेष कुछ नहीं कर पाता पर हाँ छुट्टी के दिन थोड़ी मदद कर  देता हूँ । आज जिंदगी को एक नये नजरिये से देखा था रवि ने । उसने तो कभी यह महसूस नही किया कि निशु को भी मदद की आवश्यकता पड़ सकती है । उसने कभी भी , किसी काम में निशु की मदद
नहीं  की बल्कि अपने काम समय पर न होने पर उस पर झल्लाता रहा । शायद अधिक  थक जाने के कारण ही कभी - कभी वह  चिड़चिड़ा उठती है और बीमार भी पड़
जाती है ।
       रवि को  अपराधबोध हो रहा था .. वह घर आया तो
देखा - निशु बच्चों को पढ़ाने बैठी है । रवि को आया देखकर वह चाय बनाने  उठने लगी तो रवि ने उससे कहा ...तुम पढ़ाओ , चाय मैं बना लेता हूँ । निशु के चेहरे
पर  आश्चर्य मिश्रित खुशी के भाव थे   । पर रवि अपनी
जिम्मेदारी समझ गया था ...वक्त के साथ पत्नियों ने हमारे कितने सारे काम सम्भा ल लिये है..बच्चों को स्कूल
लाने , ले जाने के अलावा बैंक , अस्पताल इत्यादि तो हम
भी तो उनके किसी काम में मदद कर सकते हैं । उनकी भूमिका बदली है तो अब हमें भी बदलने की जरूरत है ।वे तो हमारी मदद करने के लिये कब की चल पड़ी हैं अब
हमारी बारी है  दो कदम चलने की  ।

   स्वरचित - डॉ . दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

चेहरों के पीछे

     नये शिक्षण - सत्र का पहला दिन - हँसते - मुस्कुराते
कई तरह के चेहरे...कुछ संकोची , कुछ आत्मविश्वास
से लबालब दमकते हुए ...कुछ झिझके , सहमते चेहरे,
कुछ स्नेहिल...नई ऊर्जा से सराबोर  शाला की यह पहली बैच मुझे भी एक नई ऊर्जा से भर देती  है । कुछ
नया सीखने को उत्सुक ...अपने मन की बाते सुनाने को
आतुर  ...शुरुआत में हमें इन्हें सम्भालना मुश्किल हो जाता है । अनुशासन के नियमों में इन्हें बाँधना बड़ा कठिन होता है। प्रत्येक कालखण्ड के बाद उन्हें बाहर
निकलना होता है ...कभी पानी तो कभी टॉयलेट जाने
के बहाने । कक्षा में शोर तो इतना करेंगे कि सम्भालना
मुश्किल...आधी ऊर्जा  तो उन्हें शान्त कराने में खर्च हो
जाती है  । पर जैसे - जैसे वक्त गुजरता जाता है हम एक - दूसरे को समझने लगते हैं । एक अनजाना सा
रिश्ता बनने लगता है हमारे बीच ...एक समझ बनने
लगती है ...और वे कई बार बिना कहे ही मेरा  मन
पढ़ने लगते हैं और मैं उन्हें । प्रत्येक चेहरा  कुछ न कुछ कहता है , प्रत्येक चेहरे की एक अलग कहानी होती  है । काश मैं उन सबको सुनने के लिए समय निकाल पाती... सबके दुख - दर्द  बाँट पाती ...उन्हें भविष्य की
बाधाओं का सामना करने के लिए तैयार कर पाती । ये
साधारण से दिखने वाले  ,पर बेहद असाधारण बच्चे हैं..
अपनी परिस्थितियों से समझौता कर ...जितना है उतने
में गुजारा करने वाले...कितनी भी मुसीबत या आर्थिक
परेशानी आ जाये , ये किसी और का नुकसान कर या
कोई गलत काम करके अपना घर नहीं बनाने वाले..
          सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की तुलना
हमेशा शहर के प्राइवेट स्कूलों के बच्चों  से की जाती है,
कि वे शहरी क्षेत्रों के बच्चों की तुलना में उतने अच्छे
परीक्षा परिणाम  नहीं देते या प्रतियोगी परीक्षाओं में
उनकी सफलता नगण्य रहती है , पर दोनों के रहन - सहन , वातावरण , परिस्थितियों में जमीन - आसमान
का अंतर होता है । यहाँ पढ़ाई में उनके अभिभावकों की भूमिका लगभग नगण्य होती है । उन्हें घर के सारे
काम निपटाकर स्कूल आना होता है , उनके पालक
मजदूरी करने जाते हैं । कई बार तो स्कूल की फीस
देने के लिए उन्हें भी मजदूरी करने जाना पड़ता है । कई
बच्चे सुबह अखबार बाँट कर स्कूल आते हैं तो कई शाम
को किसी दुकान में काम करते हैं । हम उन्हें कितनी
किताबी बातें बताते हैं पर ये यथार्थ के ठोस धरातल पर
खड़े होते हैं... घर - परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ
निभाते हुए ही ये आगे बढ़ना चाहते हैं... उन्हें  समस्याओं के दलदल में फँसा देखकर वे अपने हित की बात नहीं सोच सकते । घर के काम करते हुए जितना हो सके , पढ़ाई करते हैं । कई बार मुझे लगता है कि हमें इनसे सीख लेना चाहिए कि कैसे वर्तमान में जिया जाता है ...अपनी परिस्थितियों से सामंजस्य बनाते हुए , जो जैसा है उसे वैसा स्वीकार करना..यह भी जीने की एक कला है। सन्त , दार्शनिक हमें यही तो सिखाते हैं ..जीने की कला ...जो नैसर्गिक रूप से इनके पास है।
         चेहरों की इस भीड़ में प्रतिवर्ष एक न एक चेहरा ऐसा होता है जो हटकर होता है । इनमें  एक है नीलम..
खूबसूरत , मासूम ...चंचल सी , जब वह मुस्कुराती है तो
उसके छोटे - छोटे दाँत फूलों की तरह खिल उठते हैं और दोनों गालों पर गड्ढे पड़ जाते हैं । कक्षा में  बहुत ही
सजग व सक्रिय ...सभी गतिविधियों में भाग लेती है ।  पढ़ाई  में सदैव आगे रहने वाली नीलम कुछ दिनों से
उदास दिखती थी... किसी गतिविधि में उसकी रुचि नहीं दिख रही थी...। मैंने उससे कारण जानना चाहा तो
उसने 'स्वास्थ्य ठीक नहीं होने की बात ' कहकर मुझे टाल दिया । पर अनवरत उसकी यह स्थिति देखकर मुझे उसकी चिंता होने लगी थी... उसकी सहेलियों से
मैंने सम्पर्क किया तो पता चला कि वह अपनी सौतेली
माँ के दुर्व्यवहार से परेशान रहती है । घर के सारे काम
करके आने के बाद भी उन्हें नीलम से कोई न कोई शिकायत रहती है । चौदह - पन्द्रह वर्ष की वह बच्ची कितना सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रही है...
उचित वातावरण न मिलने के बावजूद वह आगे बढ़ने के लिए संघर्ष कर रही है । अपनी सौतेली मां को खुश
रखते हुए वह पढ़ाई में मन लगा रही है । मुझे उसकी
स्थिति देखकर अत्यंत दुःख हुआ...परन्तु मेरे हाथ में क्या था..सिवाय इस बात के ..कि उसे पढ़ाई में कुछ
अतिरिक्त मदद कर सकूँ । मैंने उसे  सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा  प्रदान की ताकि कल अपने पैरों पर खड़ी
होकर वह अपने जीवन के निर्णय स्वयं ले सके  और
सौतेली माँ की प्रताड़नाओं का सामना कर सके । मुझे
विश्वास है कि एक दिन परिस्थितयां अवश्य बदलेंगी ।
            तीन - चार दिनों से दिव्या स्कूल नहीं आ रही थी...आई भी तो बड़ी बेमन सी रहती थी , न ही किसी
प्रश्न का जवाब देती न लिखाने पर कुछ भी लिखती । मैंने उसे  अपने पास बुलाकर  डांटा भी...इस बार दसवीं
बोर्ड की परीक्षा है ...अधिक ध्यान देने की बजाय तुम और लापरवाह होती जा रही हो । उसने बड़ी विनम्रता से अपनी गलती मान ली और ठीक से पढ़ाई करने का
वादा किया । उसकी छोटी बहन नवमीं कक्षा में पढ़ती
है , वह भी कक्षा में नियमित नहीं थी...मैंने उसे भी समझाया कि  कक्षा में  नियमित रूप से नहीं आने पर
वह सभी विषयों में अन्य छात्रों से पीछे हो जाएगी ।
उसने नहीं आने की जो वजह बताई ,सुनकर मैं स्तब्ध
रह गई । उसके पिता अत्यधिक शराब पीते थे... पीकर
गाली - गलौज करना  , पत्नी - बच्चों  को मारना - पीटना  आम बात थी । उस दिन फिर उसके  पिता पी
कर आये थे ....पता नहीं माँ के साथ क्या बहस हुई कि
उन्होंने मारपीट शुरू कर दी .. माँ को मार खाते देख दिव्या से रहा नहीं गया और उस ने  उनका हाथ पकड़
कर उन्हें रोक दिया । इस विरोध की उन्हें उम्मीद भी नहीं थी  ....वह स्तम्भित रह गए थे लेकिन बाद में दोनों
बहनों को हाथ पकड़कर घर से बाहर निकाल दिया ।
माँ रोती - गिडगिडाती  रही..जाने दो ..छोड़ दो पर उनका दिल न पसीजा  और वह नहीं माने....एक सप्ताह से वे दोनों बहनें अपनी बुआ के घर रह रहे हैं ।
    यहाँ हर दूसरे घर की यही कहानी है ....बच्चे अपने
पिता , नाते - रिश्तेदार को पीते देखते रहते हैं और विरासत में ही नशे की प्रवृत्ति प्राप्त कर लेते हैं । परन्तु
दिव्या के मामले में यह तो और भी बुरा हुआ कि उसके
पिता के कठोर स्वभाव ने उसके मुखर विरोध को माफ
नहीं किया ...उसकी छोटी बहन को तो उन्होंने घर में आने दिया पर दिव्या को नहीं बुलाया । आहत दिव्या
घर छोड़ कर भाग गई....जाते हुए अपने पिता के नाम
पत्र में अपना मन खोलकर रख दिया था उसने । बचपन
से पिता का भेदभाव  उसे विद्रोही बना गया था...उन सभी घटनाओं का उसने जिक्र किया था जब - जब पिता के व्यवहार ने उसे आहत किया था । बीमार पड़ने
पर 50 रु देने से  इंकार कर दिया था उन्होंने ...अपनी
परीक्षा फीस के लिए मजदूरी करनी पड़ी थी उसे....पर
पिता का पीना नहीं रुका था ।उसकी छोटी बहन के द्वारा लाया गया उसका पत्र पढ़कर बहुत ही भावुक  हो
गई थी मैं....उसने अपने पिता की चुनौती स्वीकार की थी अपने दम पर जीने की...कहा था एक दिन मैं वापस
जरूर आऊँगी ...मैं हारूँगी नहीं ...जीकर और कुछ
बनकर दिखाउंगी उन्हें । पता नहीं वह  कहाँ होगी और
सुरक्षित रह भी पायेगी या नहीं ..पर जो निश्चय करके
वह घर से निकली है , उसे पूरा कर पाये.. बस उसके लिए यही  प्रार्थना करती हूँ ।

  स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 14 October 2017

राष्ट्रभाषा हिन्दी ( बाल - गीत )


चेहरे की शान बनी...
जैसे माथे की बिन्दी ।
जन- जन की पहचान बनी...
वैसे राष्ट्रभाषा हिन्दी ।
संस्कृत है जननी इसकी...
लिपि देवनागरी कहलाती ।
अरबी , फ़ारसी , उर्दू , अंग्रेजी...
शब्दकोश इसका बढ़ाती ।
हिंदी की तरलता में ....
कई संस्कृतियाँ घुलीं ।
हिन्दी की सरलता में उन्हें ....
माँ की ममता मिली ।
चौदह सितम्बर को संविधान ने ..
हिन्दी को अपनाया ।
इस दिन सहर्ष भारत ने...
हिन्दी  दिवस मनाया ।।
 
स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ ☺️☺️

Thursday, 12 October 2017

पेड़ मत काटो ( बाल - गीत )

पेड़ हमें देते हैं ...
अन्न , जल , फल - फूल ।
इन्हें काटकर हम....
कर रहे बड़ी भूल ।
ये हैं हमारे जीवन के आधार ।
पेड़ मत काटो ....
ये हैं धरती के श्रृंगार ।
देते हैं स्वच्छ , ताजी हवा...
और जीवन भर साथ ।
धूप में देते हैं ....
पथिक को ठंडी छाँव ।
करते हमारे जीवन को साकार ।
पेड़ मत काटो ...
ये हैं धरती के श्रृंगार  ।

स्वरचित -  डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

छुट्टियाँ आई ( बाल - गीत )

बस्ता फेंक मुन्नी चिल्लाई ....
             छुट्टियाँ  आईं  ।
करेंगे धमाल सब बहन  भाई...
               छुट्टियाँ  आईं  ।
बन्द हुआ स्कूल ,बन्द हुई पढ़ाई...
                 छुट्टियाँ  आई  ।
खाओ जमकर आइसक्रीम ,कुल्फी मलाई...
                    छुट्टियाँ  आईं  ।
बड़ों की हिदायत सुनना भाई .....
                     छुट्टियाँ  आईं  ।
खेलो मिलकर , न करो लड़ाई....
                      छुट्टियाँ  आईं  ।
मस्ती करो पर लू से बचना भाई....
                       छुट्टियाँ  आईं  ।
कुछ नया सीखने का अवसर लाई....
                        छुट्टियाँ  आईं  ।
  
स्वरचित -  डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़☺️☺️

तिरंगा झंडा ( बाल - गीत )

तीन रंगों का झण्डा  न्यारा ,
हमको लगता जान से प्यारा ।
यह राष्ट्र की गरिमा है ,
आदर इसका करना है ।
इसको नहीं झुकने देना है ,
इसके लिये मरना - मिटना है।
हरा समृद्धि को दर्शाता ,
सफेद शांति की राह दिखाता।
त्याग और तप का बाना ,
केसरिया को ठीक पहचाना ।
चक्र में स्थित बत्तीस आरी ,
विकास की कर लो तैयारी ।
गगन में जब - जब फहराया ,
भारत माँ की शान बढ़ाया ।
आओ यह संकल्प  लें हम ,
सम्मान करेंगे मरते दम ।।

स्वरचित  - डॉ.  दीक्षा चौबे ,   दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 11 October 2017

नया सवेरा ( बाल - गीत )

बिजली चमकी , बादल गरजे ...
छाया घनघोर अंधेरा ।
डरना नहीं , रुकना नहीं ...
होगा नया सवेरा ।।
सीखें रहना मिल - जुलकर ...
मन में हो प्रेम का बसेरा ।
चलो बाँटें सुख - दुख ...
बनाएं सहयोग का घेरा ।
धरती के चारों ओर ...
सूरज ने लगाया फेरा ।
कहा पवन ने एक हम सब...
न  करो तेरा - मेरा ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़☺️☺️

सपना ( बाल - गीत )

मैंने देखा एक सुन्दर सपना ।
पहाड़ों के बीच बना घर अपना ।
हरे - भरे पेड़  घने ,  छायादार ।
तोते , चिड़ियों की कलरव से गुलजार।
घर के पीछे एक नदी बहती ।
चलते रहो निरन्तर यह कहती ।
घर के सामने एक सुन्दर फुलवारी ।
चम्पा , चमेली , गुलाब की क्यारी ।
फूलों की खुशबू से महका वातावरण ।
गाड़ी , धुँआ  नहीं ,शुद्ध पर्यावरण ।
काश ! मेरा यह सपना सच हो जाता ।
अपने देश को स्वच्छ , हरा - भरा पाता ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़☺️☺️

इंद्रधनुष ( बाल - गीत )

घिर आये , काले  बादल ...
बरस पड़ी जल - धार ।
हरे रंग से प्रकृति ने ...
धरती का किया श्रृंगार ।
मुस्काया सूरज जब ...
देख कर नई बहार ।
आसमानी रंगों की...
मानों हो गई  बौछार ।
बैंगनी , जमुनी , नीला , हरा...
पीला , नारंगी , लाल ।
धनुष सी तन गई जाकर ..
करने लगी धमाल ।
रंगों की हम  सात लकीरें ..
इंद्रधनुष  कहलाईं  ।
दिखने लगीं सफेद ...
जब मिलकर हम मुस्काई ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ ☺️☺️

Saturday, 7 October 2017

मिश्री की डली ( लघुकथा )

   आज भी पतिदेव लेट थे ...रुचि को बहुत गुस्सा आ
रहा था । जब भी ससुराल  के कार्यक्रम होते हैं , जनाब
को कोई न कोई जरूरी काम आ ही जाता है । वह कब
से दीदी के घर जाने की तैयारी कर रही थी ..उनकी बेटी
की सगाई थी ..इसके लिये इतनी खरीददारी की ...
दीदी कब से उसे जल्दी आने को कह रही थीं , जल्दी जाना तो दूर ; कार्यक्रम में शामिल होना ही खटाई में पड़ रहा था।
         तुरन्त रुचि को बहुत गुस्सा आ जाता है , बाद में
वह शांत हो जाती है... पर इस बार उसने सोच लिया था
उनसे बात नहीं करेगी वह..आने दो । नाराजगी में कपड़ों पर प्रेस करते हुए अपने पैर जला बैठी थी वह ।
रात  को पतिदेव आये ...माहौल देखकर ही समझ गये
थे मैडम जी का मूड खराब है ,पर अब क्या करें नौकरी
ही ऐसी है ...कब क्या काम आ जाये कुछ कह नही सकते ।ऐसे समय में बच्चे दल - बदल कर उनकी पार्टी
में चले जाते हैं और इशारों में खुसुर - फुसुर बातें होती
रहती हैं । रुचि सब कुछ जानते हुए टी. वी. देखते लेटी हुई थी । उसके पैर नीचे से खुले हुए थे , अचानक पतिदेव की नजर उसके जले हुए पैर पर पड़ी और वह
तुरंत फ्रिज से बर्फ निकाल लाये  । रुचि की लापरवाही पर झल्लाते हुए बर्फ मलने लगे और एंटीसेप्टिक क्रीम
भी लगाया ...जुबान में मिश्री की डली की तरह उसका
गुस्सा भी पिघलने लगा था और मन मधुरता से सराबोर
हो रहा था ।

   स्वरचित - डॉ . दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ ☺️☺️

साथ तुम्हारा

जब तुम हमारे  संग न  होते ,
जीवन  में इतने   रंग न होते ।
जीने की रस्में निभाते जरूर ,
पर साँसों में घुलते उमंग न होते।
प्रीत की डोर में बंधे सपने ,
गगन में उड़ते पतंग न होते।
अथाह न होती गहराईयां  दिल की,
खुशियों के ऊँचे तरंग न होते ।
दुनिया के जख्मों से मर ही जाते,
गर तुम्हारे प्यार  के मरहम न होते ।
चुरा लिया होता सबकी नजर से ,
जो  हम  तुम्हारी  पसन्द न होते ।
साथ न मिलता यूँ तुम्हारा,
जीवन में इतने आनन्द न होते।।

     स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे ,दुर्ग , छत्तीसगढ़ ☺️☺️

Friday, 6 October 2017

प्रेम की फसल ( लघुकथा )

मोहन के पिताजी का ट्रांसफर इंदौर से भिलाई में हो गया था। एक ही स्कूल में उसने सात वर्ष पढा था ,वहाँ पुराने दोस्त थे , शिक्षक भी उसे अच्छे लगते थे । नई जगह आने का उसे बहुत दुख हो रहा था ...नया वातावरण, नये लोग...बहुत अजीब लग रहा था । स्कूल का पहला दिन बहुत बेकार बीता । उसके बगल में बैठे  विवेक से जान - पहचान हुई । पढ़ाई कितनी हुई है , उस पर थोड़ी बातचीत भी हुई , पर बाकी सभी लोग उसकी उपस्थिति से तटस्थ ही रहे । वह अपने पुराने दोस्तों को बहुत मिस कर रहा था... जहाँ हँसते - खिलखिलाते दिन कैसे बीतता ,पता ही नहीं चलता था ।
         उसका एडमिशन एक माह बाद हुआ था तो कुछ
दिन तो उसे अपनी कॉपी पूरी करने में ही  लग गये । उसके बाद त्रैमासिक परीक्षा की  तिथि आ गई और सब उसकी तैयारी में व्यस्त हो गये ।विवेक और यहाँ के
शिक्षको ने उसकी बहुत मदद की ।उसे इंदौर और यहाँ
के वातावरण में एक बहुत ही बड़ा फर्क महसूस होता था , वहाँ कक्षा में  परस्पर प्रेम और सहयोग की भावना
बहुत प्रबल थी ...किसी को कुछ भी समस्या होती थी , वे मिलकर सुलझा लेते थे । सबका जन्मदिन भी वे मिलकर मनाया करते थे ...छोटे - बड़े या अमीर - गरीब
की खाई वहाँ नहीं थी । सब अपने - अपने घर से कुछ
स्पेशल बना कर ले आया करते थे और बाँट कर खाया
करते थे ..शायद इस भावना के विकास का एक बहुत बड़ा कारण उनकी कक्षा - शिक्षिका भी थीं जो ऐसे
आयोजनों के लिए उन्हें प्रेरित करती थीं । यहाँ सब अपना - अपना ग्रुप बनाकर  रहते और खाते थे । जो
उनका बेस्ट फ्रेंड है , बस उसी के साथ बैठकर खाते थे।
इस प्रकार पूरी कक्षा अलग - अलग समूहों में बंटी थी ।
दो - चार लोगों के अधिक पैसेवाले होने का दबदबा भी
कक्षा में दिखता था ।
                          मोहन अपने पुराने स्कूल की तरह
का वातावरण यहाँ भी देखना चाहता था ..पूरी कक्षा में
एकता की भावना हो ..सभी को सबकी विशेषताएं मालूम हो क्योंकि हर बच्चे में कुछ न कुछ खास बात होती है । वह धीरे - धीरे सबसे  दोस्ती करने लगा । बिना कहे ही उसने अपने आस - पास बैठे दोस्तों की
मदद करनी प्रारम्भ कर दी ..नोट्स देने हों , लंच शेयर करना हो या किसी भी प्रकार  की मदद करनी हो ।एक
दो दोस्तों को उनके जन्मदिन पर उसने किताबें भी भेंट
की ..फूलों की सुगंध की तरह उसकी सद्भावनाएँ भी सबके दिलों को छूने लगीं और वे स्वयं भी इस गुण को
अपनाने लगे ...स्वार्थ की जगह सामूहिकता  की भावना
फैलने लगी थी । अपने जन्मदिन को सभी मनाते हैं पर
मोहन ने दूसरों के जन्मदिन को विशेष बनाने  की परंपरा
प्रारम्भ की थी । अपने कक्षा - शिक्षक से रजिस्टर लेकर
उसने सभी साथियों की जन्मतिथि लिख ली थी और
अपने दोस्तों के साथ वह उनके लिए कुछ न कुछ प्लान
करता जिससे उन्हें भी बहुत खुशी मिलती जो आर्थिक
अभाव के कारण कक्षा में थोड़े कटे से रहते थे , ठीक से
घुल - मिल नहीं पाते थे । यदि हम एक अच्छा काम करते हैं तो उससे जो आत्मसंतोष और खुशी मिलती है
वह हमें आगे भी इस तरह के काम करने के लिये प्रेरणा
प्रदान करती है , इस प्रकार सभी लोग एक - दूसरे के निकट आये और अच्छे दोस्त बन गए । अब मोहन का
मन यहाँ भी लग गया था  ...उसने अपनत्व व सहयोग का एक बीज बोकर  प्रेम की फसल लहलहा दी थी ।

स्वरचित-  ☺️☺️डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़  ***