मोहन के पिताजी का ट्रांसफर इंदौर से भिलाई में हो गया था। एक ही स्कूल में उसने सात वर्ष पढा था ,वहाँ पुराने दोस्त थे , शिक्षक भी उसे अच्छे लगते थे । नई जगह आने का उसे बहुत दुख हो रहा था ...नया वातावरण, नये लोग...बहुत अजीब लग रहा था । स्कूल का पहला दिन बहुत बेकार बीता । उसके बगल में बैठे विवेक से जान - पहचान हुई । पढ़ाई कितनी हुई है , उस पर थोड़ी बातचीत भी हुई , पर बाकी सभी लोग उसकी उपस्थिति से तटस्थ ही रहे । वह अपने पुराने दोस्तों को बहुत मिस कर रहा था... जहाँ हँसते - खिलखिलाते दिन कैसे बीतता ,पता ही नहीं चलता था ।
उसका एडमिशन एक माह बाद हुआ था तो कुछ
दिन तो उसे अपनी कॉपी पूरी करने में ही लग गये । उसके बाद त्रैमासिक परीक्षा की तिथि आ गई और सब उसकी तैयारी में व्यस्त हो गये ।विवेक और यहाँ के
शिक्षको ने उसकी बहुत मदद की ।उसे इंदौर और यहाँ
के वातावरण में एक बहुत ही बड़ा फर्क महसूस होता था , वहाँ कक्षा में परस्पर प्रेम और सहयोग की भावना
बहुत प्रबल थी ...किसी को कुछ भी समस्या होती थी , वे मिलकर सुलझा लेते थे । सबका जन्मदिन भी वे मिलकर मनाया करते थे ...छोटे - बड़े या अमीर - गरीब
की खाई वहाँ नहीं थी । सब अपने - अपने घर से कुछ
स्पेशल बना कर ले आया करते थे और बाँट कर खाया
करते थे ..शायद इस भावना के विकास का एक बहुत बड़ा कारण उनकी कक्षा - शिक्षिका भी थीं जो ऐसे
आयोजनों के लिए उन्हें प्रेरित करती थीं । यहाँ सब अपना - अपना ग्रुप बनाकर रहते और खाते थे । जो
उनका बेस्ट फ्रेंड है , बस उसी के साथ बैठकर खाते थे।
इस प्रकार पूरी कक्षा अलग - अलग समूहों में बंटी थी ।
दो - चार लोगों के अधिक पैसेवाले होने का दबदबा भी
कक्षा में दिखता था ।
मोहन अपने पुराने स्कूल की तरह
का वातावरण यहाँ भी देखना चाहता था ..पूरी कक्षा में
एकता की भावना हो ..सभी को सबकी विशेषताएं मालूम हो क्योंकि हर बच्चे में कुछ न कुछ खास बात होती है । वह धीरे - धीरे सबसे दोस्ती करने लगा । बिना कहे ही उसने अपने आस - पास बैठे दोस्तों की
मदद करनी प्रारम्भ कर दी ..नोट्स देने हों , लंच शेयर करना हो या किसी भी प्रकार की मदद करनी हो ।एक
दो दोस्तों को उनके जन्मदिन पर उसने किताबें भी भेंट
की ..फूलों की सुगंध की तरह उसकी सद्भावनाएँ भी सबके दिलों को छूने लगीं और वे स्वयं भी इस गुण को
अपनाने लगे ...स्वार्थ की जगह सामूहिकता की भावना
फैलने लगी थी । अपने जन्मदिन को सभी मनाते हैं पर
मोहन ने दूसरों के जन्मदिन को विशेष बनाने की परंपरा
प्रारम्भ की थी । अपने कक्षा - शिक्षक से रजिस्टर लेकर
उसने सभी साथियों की जन्मतिथि लिख ली थी और
अपने दोस्तों के साथ वह उनके लिए कुछ न कुछ प्लान
करता जिससे उन्हें भी बहुत खुशी मिलती जो आर्थिक
अभाव के कारण कक्षा में थोड़े कटे से रहते थे , ठीक से
घुल - मिल नहीं पाते थे । यदि हम एक अच्छा काम करते हैं तो उससे जो आत्मसंतोष और खुशी मिलती है
वह हमें आगे भी इस तरह के काम करने के लिये प्रेरणा
प्रदान करती है , इस प्रकार सभी लोग एक - दूसरे के निकट आये और अच्छे दोस्त बन गए । अब मोहन का
मन यहाँ भी लग गया था ...उसने अपनत्व व सहयोग का एक बीज बोकर प्रेम की फसल लहलहा दी थी ।
स्वरचित- ☺️☺️डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़ ***
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