नये शिक्षण - सत्र का पहला दिन - हँसते - मुस्कुराते
कई तरह के चेहरे...कुछ संकोची , कुछ आत्मविश्वास
से लबालब दमकते हुए ...कुछ झिझके , सहमते चेहरे,
कुछ स्नेहिल...नई ऊर्जा से सराबोर शाला की यह पहली बैच मुझे भी एक नई ऊर्जा से भर देती है । कुछ
नया सीखने को उत्सुक ...अपने मन की बाते सुनाने को
आतुर ...शुरुआत में हमें इन्हें सम्भालना मुश्किल हो जाता है । अनुशासन के नियमों में इन्हें बाँधना बड़ा कठिन होता है। प्रत्येक कालखण्ड के बाद उन्हें बाहर
निकलना होता है ...कभी पानी तो कभी टॉयलेट जाने
के बहाने । कक्षा में शोर तो इतना करेंगे कि सम्भालना
मुश्किल...आधी ऊर्जा तो उन्हें शान्त कराने में खर्च हो
जाती है । पर जैसे - जैसे वक्त गुजरता जाता है हम एक - दूसरे को समझने लगते हैं । एक अनजाना सा
रिश्ता बनने लगता है हमारे बीच ...एक समझ बनने
लगती है ...और वे कई बार बिना कहे ही मेरा मन
पढ़ने लगते हैं और मैं उन्हें । प्रत्येक चेहरा कुछ न कुछ कहता है , प्रत्येक चेहरे की एक अलग कहानी होती है । काश मैं उन सबको सुनने के लिए समय निकाल पाती... सबके दुख - दर्द बाँट पाती ...उन्हें भविष्य की
बाधाओं का सामना करने के लिए तैयार कर पाती । ये
साधारण से दिखने वाले ,पर बेहद असाधारण बच्चे हैं..
अपनी परिस्थितियों से समझौता कर ...जितना है उतने
में गुजारा करने वाले...कितनी भी मुसीबत या आर्थिक
परेशानी आ जाये , ये किसी और का नुकसान कर या
कोई गलत काम करके अपना घर नहीं बनाने वाले..
सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की तुलना
हमेशा शहर के प्राइवेट स्कूलों के बच्चों से की जाती है,
कि वे शहरी क्षेत्रों के बच्चों की तुलना में उतने अच्छे
परीक्षा परिणाम नहीं देते या प्रतियोगी परीक्षाओं में
उनकी सफलता नगण्य रहती है , पर दोनों के रहन - सहन , वातावरण , परिस्थितियों में जमीन - आसमान
का अंतर होता है । यहाँ पढ़ाई में उनके अभिभावकों की भूमिका लगभग नगण्य होती है । उन्हें घर के सारे
काम निपटाकर स्कूल आना होता है , उनके पालक
मजदूरी करने जाते हैं । कई बार तो स्कूल की फीस
देने के लिए उन्हें भी मजदूरी करने जाना पड़ता है । कई
बच्चे सुबह अखबार बाँट कर स्कूल आते हैं तो कई शाम
को किसी दुकान में काम करते हैं । हम उन्हें कितनी
किताबी बातें बताते हैं पर ये यथार्थ के ठोस धरातल पर
खड़े होते हैं... घर - परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ
निभाते हुए ही ये आगे बढ़ना चाहते हैं... उन्हें समस्याओं के दलदल में फँसा देखकर वे अपने हित की बात नहीं सोच सकते । घर के काम करते हुए जितना हो सके , पढ़ाई करते हैं । कई बार मुझे लगता है कि हमें इनसे सीख लेना चाहिए कि कैसे वर्तमान में जिया जाता है ...अपनी परिस्थितियों से सामंजस्य बनाते हुए , जो जैसा है उसे वैसा स्वीकार करना..यह भी जीने की एक कला है। सन्त , दार्शनिक हमें यही तो सिखाते हैं ..जीने की कला ...जो नैसर्गिक रूप से इनके पास है।
चेहरों की इस भीड़ में प्रतिवर्ष एक न एक चेहरा ऐसा होता है जो हटकर होता है । इनमें एक है नीलम..
खूबसूरत , मासूम ...चंचल सी , जब वह मुस्कुराती है तो
उसके छोटे - छोटे दाँत फूलों की तरह खिल उठते हैं और दोनों गालों पर गड्ढे पड़ जाते हैं । कक्षा में बहुत ही
सजग व सक्रिय ...सभी गतिविधियों में भाग लेती है । पढ़ाई में सदैव आगे रहने वाली नीलम कुछ दिनों से
उदास दिखती थी... किसी गतिविधि में उसकी रुचि नहीं दिख रही थी...। मैंने उससे कारण जानना चाहा तो
उसने 'स्वास्थ्य ठीक नहीं होने की बात ' कहकर मुझे टाल दिया । पर अनवरत उसकी यह स्थिति देखकर मुझे उसकी चिंता होने लगी थी... उसकी सहेलियों से
मैंने सम्पर्क किया तो पता चला कि वह अपनी सौतेली
माँ के दुर्व्यवहार से परेशान रहती है । घर के सारे काम
करके आने के बाद भी उन्हें नीलम से कोई न कोई शिकायत रहती है । चौदह - पन्द्रह वर्ष की वह बच्ची कितना सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रही है...
उचित वातावरण न मिलने के बावजूद वह आगे बढ़ने के लिए संघर्ष कर रही है । अपनी सौतेली मां को खुश
रखते हुए वह पढ़ाई में मन लगा रही है । मुझे उसकी
स्थिति देखकर अत्यंत दुःख हुआ...परन्तु मेरे हाथ में क्या था..सिवाय इस बात के ..कि उसे पढ़ाई में कुछ
अतिरिक्त मदद कर सकूँ । मैंने उसे सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान की ताकि कल अपने पैरों पर खड़ी
होकर वह अपने जीवन के निर्णय स्वयं ले सके और
सौतेली माँ की प्रताड़नाओं का सामना कर सके । मुझे
विश्वास है कि एक दिन परिस्थितयां अवश्य बदलेंगी ।
तीन - चार दिनों से दिव्या स्कूल नहीं आ रही थी...आई भी तो बड़ी बेमन सी रहती थी , न ही किसी
प्रश्न का जवाब देती न लिखाने पर कुछ भी लिखती । मैंने उसे अपने पास बुलाकर डांटा भी...इस बार दसवीं
बोर्ड की परीक्षा है ...अधिक ध्यान देने की बजाय तुम और लापरवाह होती जा रही हो । उसने बड़ी विनम्रता से अपनी गलती मान ली और ठीक से पढ़ाई करने का
वादा किया । उसकी छोटी बहन नवमीं कक्षा में पढ़ती
है , वह भी कक्षा में नियमित नहीं थी...मैंने उसे भी समझाया कि कक्षा में नियमित रूप से नहीं आने पर
वह सभी विषयों में अन्य छात्रों से पीछे हो जाएगी ।
उसने नहीं आने की जो वजह बताई ,सुनकर मैं स्तब्ध
रह गई । उसके पिता अत्यधिक शराब पीते थे... पीकर
गाली - गलौज करना , पत्नी - बच्चों को मारना - पीटना आम बात थी । उस दिन फिर उसके पिता पी
कर आये थे ....पता नहीं माँ के साथ क्या बहस हुई कि
उन्होंने मारपीट शुरू कर दी .. माँ को मार खाते देख दिव्या से रहा नहीं गया और उस ने उनका हाथ पकड़
कर उन्हें रोक दिया । इस विरोध की उन्हें उम्मीद भी नहीं थी ....वह स्तम्भित रह गए थे लेकिन बाद में दोनों
बहनों को हाथ पकड़कर घर से बाहर निकाल दिया ।
माँ रोती - गिडगिडाती रही..जाने दो ..छोड़ दो पर उनका दिल न पसीजा और वह नहीं माने....एक सप्ताह से वे दोनों बहनें अपनी बुआ के घर रह रहे हैं ।
यहाँ हर दूसरे घर की यही कहानी है ....बच्चे अपने
पिता , नाते - रिश्तेदार को पीते देखते रहते हैं और विरासत में ही नशे की प्रवृत्ति प्राप्त कर लेते हैं । परन्तु
दिव्या के मामले में यह तो और भी बुरा हुआ कि उसके
पिता के कठोर स्वभाव ने उसके मुखर विरोध को माफ
नहीं किया ...उसकी छोटी बहन को तो उन्होंने घर में आने दिया पर दिव्या को नहीं बुलाया । आहत दिव्या
घर छोड़ कर भाग गई....जाते हुए अपने पिता के नाम
पत्र में अपना मन खोलकर रख दिया था उसने । बचपन
से पिता का भेदभाव उसे विद्रोही बना गया था...उन सभी घटनाओं का उसने जिक्र किया था जब - जब पिता के व्यवहार ने उसे आहत किया था । बीमार पड़ने
पर 50 रु देने से इंकार कर दिया था उन्होंने ...अपनी
परीक्षा फीस के लिए मजदूरी करनी पड़ी थी उसे....पर
पिता का पीना नहीं रुका था ।उसकी छोटी बहन के द्वारा लाया गया उसका पत्र पढ़कर बहुत ही भावुक हो
गई थी मैं....उसने अपने पिता की चुनौती स्वीकार की थी अपने दम पर जीने की...कहा था एक दिन मैं वापस
जरूर आऊँगी ...मैं हारूँगी नहीं ...जीकर और कुछ
बनकर दिखाउंगी उन्हें । पता नहीं वह कहाँ होगी और
सुरक्षित रह भी पायेगी या नहीं ..पर जो निश्चय करके
वह घर से निकली है , उसे पूरा कर पाये.. बस उसके लिए यही प्रार्थना करती हूँ ।
स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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