Wednesday, 28 February 2018

मुख में राम ....

मुख  में राम...
उस दिन  जब फोन   पर  मेरी सहेली ने लाउडस्पीकर ऑन किया तो समझ में आया कि जिस सपना को मैं अपनी बेस्ट फ्रेंड समझती थी , उसे मुझसे न जाने कितनी शिकायतें थी जो वह फोन पर बयान किये जा रही थी..उनमें से बहुत सी बातें तो मनगढ़ंत थी ... अगर मैं अपने कानों से न सुनती तो शायद कभी इस बात पर विश्वास न करती और बताने वाली  को ही झूठा समझती ..सच , बहुत ही आहत हुई मैं अपने विश्वास के टूटने पर ..मैं उसे अपनी अच्छी दोस्त मानती  थी ..पता नहीं उसने ऐसा क्यों किया क्योंकि मैंने कभी उसका बुरा नहीं चाहा । ऐसे कुछ लोग जीवन की राह में आपको भी मिलते होंगे जो आपके सामने शुभचिंतक बनते हैं , अच्छी - अच्छी बातें करते हैं ...पर आपके पीठ पीछे आपकी बुराई करते हैं.. मनगढ़ंत बातें बनाते हैं.. आपको बदनाम करने का प्रयास करते हैं.. आपकी छवि को धूमिल करने का प्रयास करते हैं । जब उनका असली चेहरा हमारे सामने आता है तो यह हमें दुखी कर जाता है , हमें  पछतावा होता है कि ऐसे लोगों पर हमने विश्वास किया । ऐसे लोगों के लिए ही यह कहावत लिखी गई है.. मुख में राम , बगल में छुरी ..काश ये एक बात सोच लेते कि कभी उनकी कही बात सामने वाले के कानों तक पहुँच गई तो क्या प्रभाव पड़ेगा ? ऐसे लोगों पर किसी को विश्वास नहीं होगा..उनकी छवि भी खराब हो जायेगी । निंदा करने की प्रवृत्ति में कुछ लोगों को ज्यादा ही मजा आता है ..बुराई करके उन्हें शायद अपनी हीन भावनाओं की सन्तुष्टि में सहायता मिलती है । अपने से आगे बढ़ते देख कर भी कई लोग ईर्ष्या वश इस प्रवृत्ति को अपनाते हैं । इससे बेहतर  वे अपनी स्थिति सुधारने का प्रयास करते तो कुछ भला होता । समाज के प्रदूषक हैं ऐसे लोग जो ऊपर कुछ और अंदर कुछ होते हैं.. ये नकारात्मक सोच वाले होते हैं तथा नकारात्मकता फैलाते हैं ..बचकर रहें ऐसे लोगों से ।
स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 26 February 2018

परित्यक्ता

अपमानित किया कई बार ,
अत्याचार किया प्रतिदिन ।
बेवजह शक किया मुझ पर ,
लगाये हैं झूठे लांछन ।
चुपचाप सुन करूँ शिरोधार्य ,
मैं वो असहाय सीता नहीं ...।।
परित्यक्ता हूँ ,मैं पतिता नहीं ।।

दूँगी मैं जवाब सारे ,
सवाल जो तुमने पूछे हैं ।
लड़कर लूँगी अधिकार सारे ,
संविधान जो मुझे देते हैं ।
हार मान लूँ दौड़ में ,
ऐसी मैं  कायर धाविका नहीं... ।।
परित्यक्ता हूँ ,मैं पतिता नहीं ।।

शुचिता पर मेरी तुमने ,
सदैव उंगलियाँ उठाई ।
अभिव्यक्ति पर मेरी ,
अनगिन पाबन्दियाँ लगाई ।
चट्टानें जिसे रोक पाये ,
मैं वो कृशकाय  सरिता नहीं ...।।
परित्यक्ता हूँ, मैं पतिता नहीं ।।

पति का सहारा न हो तो ,
स्त्री कुलटा कहलाती है ।
हर शख्स की लोलुप निगाहें ,
सीना छलनी कर जाती है ।
पत्थर बन जिऊँ सदा ,
मैं वो  चिर शापिता नहीं ...।।
परित्यक्ता हूँ ,मैं पतिता नहीं ।।

स्वरचित ---डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़😃

Tuesday, 20 February 2018

प्रेम के कई रंग ( कहानी )

उस प्रेमी युगल को देखकर प्रत्येक व्यक्ति हैरान होता था..कॉलेज में सबको आश्चर्य हुआ था कि अनुभा अन्वय से प्रेम करती है... आश्चर्य से अधिक ईर्ष्या हुई थी ..अबे यार...क्या देखा उसमें ...हम इतने दिन चक्कर लगाते रहे और उसने पसन्द भी किया तो किसे ! काला कलूटा , न शक्ल न सूरत ..लोफर दिखता है पूरा लोफर..और एक ही कक्षा में दो - तीन साल पढ़कर बेस मजबूत कर रहा है । इतने बड़े कॉलेज में उसे कोई और नहीं मिला । सभी तरफ उनके प्यार के ही चर्चे थे पर उन्हें किसी की बातों से कोई फर्क नहीं पड़ा था.. वे एक दूसरे के हाथों में हाथ डाले घूमते रहते ।पर यह सच भी तो था..अनुभा दिखने में जितनी सुन्दर ..अन्वय उतना ही बदसूरत था ..हाँ उसकी ऊँचाई अच्छी थी और देहयष्टि थोड़ी तगड़ी भी.. पर  अनुभा का रंग एकदम गोरा ..संगमरमर की तरह झक सफेद..स्निग्ध , बड़ी - बड़ी आँखें जिनमें पूरी दुनिया समा जाये और काली घटाओं की तरह लम्बे काले बाल ..जिन्हें कभी - कभी खुले रखकर सबके होश उड़ा देती थी वह । इसके ठीक विपरीत अन्वय का रंग एकदम काला था ..बहुत रईस भी नहीं था पर खाते - पीते परिवार का था । कॉलेज में बाइक से आता था.. बाइक से उतर कर अमिताभ की स्टाइल में  बालों में हाथ फेरता ..शायद उसके पास एक यही चीज थी जिस पर उसे अभिमान था और अनुभा को उसने अपने स्टाइल से ही खुश किया था । कई बार उसे लिफ्ट भी दी थी और पानीपूरी , चाट खिलाने भी ले गया था । दूसरों की मदद करने की उसकी भावना ने भी अनुभा को प्रभावित किया था । अनुभा को एक - दो बार अवसर मिला था जब उसने अन्वय की मन की खूबसूरती देखी थी जिसकी आभा में उसका काला रंग दब गया था । दूसरी सबसे बड़ी असमानता थी पढ़ाई...अनुभा कक्षा में प्रथम आने वाली  कुशाग्र बुद्धि छात्रा थी और अन्वय बड़ी मुश्किल से पास होता था ..कभी - कभी किसी कक्षा में दो वर्ष भी रहा ...बारहवीं तक तो यही रिकॉर्ड रहा उसका..बी. ए.
प्रथम वर्ष मुश्किल से पास हुआ था कि ये प्रेम रोग लग गया ...अब तो कहाँ पढ़ाई ..कहाँ की परीक्षा ...इस खूबसूरत एहसास ने साधारण सी दिखने वाली चीजों को भी खास बना दिया था..अनुभा के साथ किसी तालाब का किनारा भी झील की तरह मोहक लगता..
आसमान बहुत खूबसूरत लगता और  हर मौसम बसन्त की तरह मादक लगता...जिन नजारों को उसने कभी ध्यान से देखा नहीं था वे अनुभा के साथ बड़े प्यारे लगने लगे थे ।   ..द्वितीय और तृतीय वर्ष में उसके रिजल्ट चौंकाने वाले थे...उसने अनुभा की तरह ही बहुत अच्छे अंक लिए थे  । उसके परीक्षा परिणाम  में यह बदलाव सबको चकित कर गया था और उसके माता - पिता , भाई - बहन सब बेहद प्रसन्न  थे । जिस प्यार ने उसमें इतना अभूतपूर्व परिवर्तन ला दिया उसे सबकी स्वीकृति अपने - आप मिल गई थी । उसके बाद उनके कदम रुके नहीं ..एम.
ए. में  अनुभा और अन्वय दोनों प्रावीण्य सूची में अपना नाम दर्ज करा चुके थे और संजीदा होकर प्रतियोगी परीक्षाओं में जुट गये.. इसी वर्ष उन्होंने शादी कर ली । अन्वय के घर में तो सभी तैयार थे पर अनुभा के परिवार वाले नाराज थे ...उन्हें लगता था कि अनुभा के लिए एक से बढ़कर एक अच्छे रिश्ते मिल सकते थे  , उनके अनुसार दोनों की जोड़ी बेमेल थी । पर जब उन दोनों के बीच रूप - रंग बाधा नहीं बनी तो किसी और की आपत्ति से क्या होता । वैसे भी प्यार के लिये दिलों का मिलना जरूरी होता है ,  इसमें  जाति -  भेद , रूप - रंग
इत्यादि बाधा नहीं बनते..यदि परिवार की सहमति मिल
जाये तो खुशियाँ दुगुनी हो जाती हैं । अनुभा के साथ
ऐसा नहीं हुआ पर अन्वय के पापा मम्मी ने यह कमी पूरी कर दी ...उन्होंने स्वयं दोनों की शादी करवाई । अनुभा के प्यार ने उनके बेटे का भविष्य सँवार दिया था ...वह पढ़ाई के प्रति संजीदा हो गया था साथ ही घर की जिम्मेदारियों के प्रति भी  । जल्द ही दोनों ने  सहायक प्राध्यापक परीक्षा उत्तीर्ण  कर ली थी और  आस - पास ही दोनों की नियुक्ति हो गई थी ।प्रेम लोगों को बर्बाद कर देता है इस धारणा को झुठला दिया था उन्होंने.. उनकी सफल प्रेम कहानी समाज में एक उदाहरण बन गई थी ..स्नेह और विश्वास के तिनकों से बनाये घरौंदे में  वे खुशी से रहने लगे थे । पर विधाता के
लेख को कौन बदल सकता है..दो वर्षों के पश्चात एक
भयानक दुर्घटना में अन्वय का निधन हो गया । पत्थर सी बन गई थी अनुभा..अपने सामने अपने प्रिय को दम तोड़ते देखा उसने ..पर उसे रोक न पाई । जीवन ने ये कैसे मोड़ दिखाये थे उसे..सारी खुशियाँ मरीचिका की तरह अचानक गायब हो गई थी । अन्वय के प्रेम भरी यादों ने अनुभा को वो शक्ति प्रदान की थी कि उसके परिवार की देखभाल को उसने अपना कर्तव्य मान लिया था.. सात फेरों  के बंधन इतने कमजोर नहीं थे कि एक ही जन्म में टूट जाते..अपने प्यार से किये वादे वह नहीं भूली थी न ही भूलेगी.. अनुभा  ने संकल्प लिया था उसके माता - पिता  और भाई - बहनों  को संभालने का ...उसके परिवार को अनुभा के प्यार में सदा अन्वय दिखाई देता मानो उसकी आत्मा रह गई हो अनुभा के शरीर में..प्रेम ने दो जानों को एक कर दिया था । फूल की खुशबू दिखती नहीं परन्तु अपनी उपस्थिति महसूस कराती है उसी प्रकार  प्रेम जीवन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है । अनुभा को जिंदगी ने प्रेम के कई रंग दिखाये थे..पर हर रंग  को उसने  निष्ठा के साथ अपनाया था और हर परीक्षा में वह खरी उतरी थी ।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग  , छत्तीसगढ़

Monday, 19 February 2018

आजकल के लइका

गली गाँव के सुन्ना परगे ,
जम्मो कुरिया म ओलिहागे ।
चौक - चौपाल म कोनो नई जुरय,
हर हाथ म मोबाइल आगे ।।
फोन म गोठियाथे दिन भर ,
अमरइया मुरझावत हे ।
घर मा नल अउ शॉवर आगे ,
तरिया - नदिया सुखावत हे ।।
घर - घर मा गाड़ी माढे हे ,
रेंगे बर भुलागे जी ।
मैगी अउ कुरकुरे खाथे ,
चीला - फरा नन्दागे जी ।।
किसिम - किसिम के ओनहा पहिरे ,
जूता - सेंडिल के भरमार हे ।
हाथ - गोड़ हलावय नहीं ,
दाई - ददा बनिहार हे ।।
अपन भाखा ल जानय नहीं ,
अंगरेजी म गिटपिटाथे ।
रीति - रिवाज ल मानय नहीं ,
लबर - लबर गोठियाथे ।।
संगी - जवंरिहा भगवान होगे ,
दाई - ददा अलकरहा ।
ऊंखर केहे मा रेंगही ,
सियान ल कहहि भोकवा ।।
लइका ल पोसे बार ,
हाड़ गोड़ कमायेन ।
अपन  मुंह के कौरा ल ,
लइका ल खवायेन ।।
आनी बानी के चीज मंगथे ,
हलाकान कर देथे ।
गोठ सियान के सुनय नहि ,
रतिहा ल बिहान कर देथे ।।

स्वरचित ---डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 16 February 2018

पंखुड़ी गुलाब की ( कहानी )

प्यार एक कोमल एहसास है... वह खूबसूरत भाव जो स्वार्थ , लाभ - हानि के हिसाब से परे होता है ।प्यार बदले में कुछ नहीं चाहता..बस  वह अपने प्रिय को खुश देखना चाहता है...उसे जीवन में आगे बढ़ते देखना चाहता है । वर्तमान में कई ऐसी घटनाएं घटती हैं जिनमें
एकतरफा प्यार में पड़े प्रेमी ने लड़की के इनकार पर उस पर एसिड से हमला  करके उसे घायल कर दिया । उसके चेहरे को वीभत्स बना दिया..उसे जीवन भर की पीड़ा दे दी..मन दुःख से भर जाता है , क्या यही प्यार है..आप जिसे अपना जीवनसाथी बनाना चाहते हैं , यदि
वह आपकी नहीं हो पाई तो आप उसे जीवन भर के लिए दर्द दे देते हैं । यह प्यार तो बिल्कुल नहीं है.. जिसे प्यार किया उसकी आँखों में एक बून्द  आँसू भी  नहीं देख सकते वो प्यार है । कभी - कभी तो प्यार का इकरार किये बिना ही जिंदगी गुजार देते हैं लोग..सिर्फ दोस्त बनकर । एक दूसरे की परवाह करके , एक दूसरे की देखरेख करके.. बिना किसी प्रतिदान की अपेक्षा किये । ऐसे ही प्रेम - कहानियों में से एक कहानी है यश और कीर्ति की ...दोनों एक ही स्कूल में साथ पढ़े ...एक ही जगह पर रहने के कारण दोनों के बीच कब दोस्ती हो गई , पता ही नहीं चला । कॉलेज में भी दोनों का एक ही
विषय था..कक्षा में , प्रैक्टिकल में हमेशा साथ रहते दोस्ती गहरी होने लगी थी ।आपसी समझ भी बढ़ने लगी थी ,  दोनों की दोस्ती में एक - दूसरे की परवाह नजर आने लगी थी इतनी कि अगल - बगल की सहेलियों , दोस्तों को वह महसूस होने लगी और त्रिपाठी मेडम ने यह कहकर कि अरे तुम दोनों के नामों का एक ही अर्थ है.. बोलकर आग में घी डालने का  काम कर दिया था । कक्षा में कीर्ति को निशा कोहनी मारकर बताती कि यश उसे बहुत देर से निहार रहा है । उम्र का भी अपना आकर्षण होता है ..यह आकर्षण उन्हें एहसासों के एक खूबसूरत डोर में बाँधने लगा था । दोनों के बीच बातें कभी पढ़ाई के बाहर नहीं गई ..न ही उन्होंने मर्यादा की सीमा कभी लांघी ।अपने प्रेम की प्रथम अभिव्यक्ति यश ने तब दी , जब कीर्ति ने उससे केमिस्ट्री के नोट्स माँगे ..वह घर पर कॉपी देने आया था और बाहर से ही उसके हाथ में कॉपी थमाकर तुरंत चला गया ..उसके कहने पर भी नहीं बैठा । यह भीनी सी  खुशबू  कहाँ से  आ रही है , उसने कॉपी खोली तो आखिरी पृष्ठ में  गुलाब की पंखुड़ियों  से LOVE  लिखा हुआ था । कीर्ति के दिलोदिमाग में  गुलाब की वह खुशबू बस गई थी ..उसका दिल जोर -जोर से धड़कने लगा था ..दिन  भर यश का ही ख्याल आता रहा ..उसका दिल गुनगुनाने लगा था...
मैं यहाँ और मेरा ख्याल कहाँ ...।
नींद आने का अब सवाल कहाँ...।
तेरी आँखों का चल गया जादू ..।
वरना कुदरत में ये कमाल कहाँ..।
   रात करवटें बदलते बीती..कॉलेज जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी । यश से आँखें कैसे मिलाऊंगी , बस यही विचार उसके मन में आ रहे थे ..संकोच से कदम उठ नहीं रहे थे । पर उसका सामना तो करना ही पड़ेगा..वैसे भी उसने कहीं मेरा नाम तो लिखा नहीं है , मैं क्यों सोचूँ कि यह मेरे लिए है । कीर्ति कॉलेज गई और कक्षा में बिल्कुल सामान्य बनी रही.. उसने यश की कॉपी बिल्कुल उसी स्थिति में वापस कर दिया..धन्यवाद ! बस
इतना ही कहा था उसने । उनकी दिनचर्या सामान्य बनी रही । कभी दो नजरें उठतीं.. एक दूसरे को ढूंढती और नजरें चार होने पर झुक जातीं । दोनों की यही हालत थी
पर दोनों ने कुछ भी  नहीं कहा । कभी - कभी थो ड़ी बहुत शरारतें करता था यश ..और न चाहते हुए भी
कीर्ति मुस्कुरा उठती थी । एक दिन अपनी  स्कूटी की चाबी  वह कक्षा में भूल आई थी..स्टैण्ड में पहुँचने पर देखा , चाबी नहीं है तो वह भाग कर कक्षा में आई । चाबी बेंच पर भी नहीं थी..वह इधर - उधर ढूँढने  पर भी
नहीं मिली ...वह परेशान हो गई , तभी उसके किसी क्लासमेट ने बताया ..चाबी शायद  यश के पास है । कीर्ति  दौड़कर यश के पास गई , पर वहाँ जाकर ठिठक गई...यश उसकी तरफ देखता रहा बिना कुछ कहे , मानो ठान कर रखा हो कि उसके माँगे बिना नहीं देगा ।
कीर्ति को उससे बात करना ही पड़ा ..मेरी स्कूटी की चाबी तुम्हारे पास है ..उसके पूछते ही यश ने मुस्कुराते हुए चाबी निकालकर  उसे दे दी थी । इस तरह दिल के अफ़साने निगाहों से ही लिखे जाते रहे । दिन बीतते रहे..अब वे एम. एस. सी. करने दूसरे शहर आ गए थे ..एक ही विषय ..एक ही कक्षा ...पढ़ाई के प्रति दोनों गम्भीर थे पर आँखों में अब भी स्नेह छलकता था..वे एक -दूसरे का ख्याल रखते थे पर कभी भी उन्होंने अपनी भावनाओं को शब्दों का जामा नहीं पहनाया । यूँ ही वक्त गुजरता रहा ।  पढ़ाई के अंतिम वर्ष  दीपावली की छुट्टियों के बाद कीर्ति  यश से कुछ कटी सी रहने लगी थी ..यश से वह नजरें चुराने लगी थी , बात  करना भी उसने बन्द कर दिया था । एक दिन यश ने उसे लाइब्रेरी में रुकने के लिए कहा और उसके व्यवहार में बदलाव का कारण पूछा । उसकी नजरों में सब कुछ पढ़ने वाले यश ने उसकी बेरुखी भी पढ़ ली थी । दरअसल तब  कीर्ति की दीदी के लव - मैरिज कर लेने पर उसके पिता को हृदयाघात हुआ था और भावुक कीर्ति अपने पिता को फिर  से वही दर्द नहीं
देना चाहती थी ..। फिर से वही  अप्रिय स्थिति उनके सामने नहीं लाना चाहती थी वह ..उसके लिए अपनी खुशी से बढ़कर उसके पापा थे जिन्होंने माँ के निधन के पश्चात माँ - बाप दोनों की भूमिका निभाई थी । यश को बताते हुए आँखें भर आईं थी उसकी..उसके दोनों हाथों को अपने हाथों में लेते हुए यश ने कितनी सुन्दर बात कही थी--मैं तुम्हारी स्थिति समझ सकता हूँ कीर्ति ..प्यार इतना स्वार्थी नहीं होता  कि वह सिर्फ अपनी खुशी देखे । माता - पिता की खुशी सर्वोपरि है हमारे लिये ..वे जैसा चाहते हैं तुम वही करो । मुझे सिर्फ तुम्हारी खुशी चाहिये और कुछ नहीं मेरे लिये जीने की यही वजह काफी है कि तुम जहाँ भी रहो खुश रहो । अगर तुम्हें एतराज न हो तो हम हमेशा दोस्त रहें ..बिल्कुल..अपने आँसू पोछते हुए कीर्ति ने काँपते होठों से कहा था । यश के इतने सुलझे हुए प्रतिक्रिया की उसने कल्पना भी  नहीं की थी ..वह बोझिल मन से उससे मिलने आई थी पर एकदम निश्चिंत होकर वापस जा रही थी । परीक्षा के बाद उसे मालूम हुआ कि यश ने परीक्षा छोड़ दी थी और अपने घर चला गया था । कीर्ति
अपने - आपको अपराधी महसूस कर रही थी..उसकी वजह से यश ने पढ़ाई छोड़ दी , शायद वह कीर्ति का सामना नहीं करना चाहता था.. पर कीर्ति के सामने वह कितना सामान्य बना रहा..अपने मन की व्यथा प्रकट नहीं की । कीर्ति यश से मिलकर उससे पूछना चाहती थी कि उसने अपने करियर को दाँव पर क्यों लगा दिया , पढ़ाई क्यों छोड़ दी परन्तु उससे मुलाकात नहीं हुई । यश अपने परिवार के व्यवसाय में व्यस्त हो गया था कीर्ति अपने जॉब के लिए प्रयास करने में । कुछ वर्षों में कीर्ति की सुयश से शादी हो गई और  यश की  सुगंधा से ..वे  दोनों अपनी - अपनी जिंदगी में  व्यस्त हो  गये
साथ बिताये प्यार भरे पलों की यादों के साथ..जिसने उनके जीवन में उदासियाँ नहीं , खुशनुमा रंग भर दिये थे। गुलाब की पंखुड़ियों की खुशबू उनके जीवन में रच - बस गई थी ।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़***

Wednesday, 14 February 2018

मिल गई मंजिल ( कहानी )

अजय की नौकरी छूटे आज तीन महीने हो रहे थे ,कोई दूसरी नौकरी नहीं मिली थी...यहाँ - वहाँ भटकते परेशान  अजय  समाचार - पत्र में वेकेंसी देखते बैठा था ...तभी  उसकी पत्नी अलका ढेर सारे सामान लेकर अंदर आई।
    अरे ! तुम कब बाजार चली गई , मुझे पता ही नहीं चला. मुझे बोल देती , सामान मैं ला देता...वैसे भी खाली ही बैठा हूँ -अंतिम वाक्य कहते - कहते उसकी आवाज थोड़ी भर्रा गई थी । पर...सारी जमापूंजी तो खत्म हो गई है , सामान कहाँ से आया  ,सवालिया नजरों से उसने अलका की ओर देखा था । पत्नियों के पास छुपे हुए खजाने होते हैं.. इतना भी नहीं जानते पतिदेव । पर चिंता मत कीजिए , ये पैसे आपके ही हैं... आपके ही वेतन के पैसे जो घर - खर्च के लिए लेती थी ..उनमें से कुछ बचाकर प्रति माह मैं जमा करती आ रही थी..कि कभी जरूरत में काम आयेंगे.. और जरूरत न पड़ी तो एकाध आभूषण खरीद लूँगी । आप बिलकुल परेशान मत होइए..निश्चिन्ततापूर्वक दूसरी नौकरी ढूँढिये.. तब तक गृहस्थी चलाना मेरी जिम्मेदारी है। दोपहर में खाली रहकर बोर हो जाती थी तो थोड़ी सिलाई भी कर लिया करती हूँ , आजकल बहुत कपड़े आने लगे हैं मेरे पास । मुसीबत की घड़ी किसी भी तरह
बीत ही जायेगी ,बस आप अपने आप पर विश्वास रखें और धैर्य न खोएं  और हाँ.. परिवार के लिए आपको
समझौता करने की कोई आवश्यकता नहीं... अपनी योग्यता के अनुसार ही नौकरी कीजिए आप , जल्दबाजी में कोई भी नौकरी जॉइन करने की आवश्यकता नहीं है ।
      किसी बुजुर्ग की तरह समझाती अलका  को देखकर उसे हँसी आ गई थी.. जो आज्ञा मैडम जी , आपके कथनानुसार ही सब काम होगा । अजय के ऐसा कहते ही वे दोनों जोर से हँस पड़े थे..उनकी इस खिलखिलाहट ने घर के बोझिल माहौल को हल्का कर दिया था । तन्मयता से काम करती अलका  को देखकर अजय अतीत में चला गया था ..कितना बड़ा बेवकूफ था वह...जो इसी अलका से शादी करने से मना कर दिया था । वो भी सिर्फ इसलिए कि उसका रंग कुछ दबा हुआ था , बाकी सब कुछ अच्छा था । अच्छे परिवार , संस्कार , शिक्षा  सब कुछ सही था ...दिखने में आकर्षक भी थी...तीखे नैन - नख़्स , लम्बे बाल ,छोटा सा प्यारा चेहरा ,कमसिन काया की स्वामिनी थी वह..
अजय के माता - पिता दोनों को बहुत पसंद थी वह , सच पूछो तो उनकी जिद ही वजह बनी इस विवाह की । उन्होंने शायद भविष्य देख लिया था अपने बेटे का..कितना सही कहते थे वे..  गोरे रंग को इंसान की पहचान मत मानो बेटा , रूप - रंग तो शुरुआती आकर्षण भर हैं ..जीवन में यही सब कुछ नहीं है अच्छे गुण और अच्छे संस्कार इंसान की प्रथम प्रायिकता होनी चाहिए ,शारीरिक  सुंदरता से बढ़कर है मन की सुंदरता जो मनुष्य में होना अत्यंत आवश्यक है ।
सुख में हमें किसी के साथ की आवश्यकता नहीं पड़ती , जो दुख में साथ दे , सहयोग दे , अपने आप को संयमित रखे वही सच्चा साथी है । विपरीत परिस्थितियां शायद हमारे जीवन में  अपनों की परख के लिए ही आती हैं , यह हमारे धैर्य की परीक्षा लेती हैं । बड़ों का निर्णय बिल्कुल सही था..वैवाहिक जीवन के शुरुआत में उसे कुछ नाराजगी अवश्य थी , पर जैसे - जैसे वह अपनी पत्नी को समझता गया वह उसे अच्छी लगने लगी..अब उसकी नजरों में अलका से खूबसूरत कोई नहीं । उसने कितनी आसानी से कठिनाइयों को स्वीकार कर लिया था । नदी के प्रवाह में बहते कागज की नाव की तरह उसने अपना जीवन अजय को समर्पित कर दिया था ..चाहे जिस दिशा में ले चलो..किसी भी परिस्थिति का सामना करने को तैयार । एक बार भी उसने शिकायत नहीं की कि उसने नौकरी क्यों छोड़ दी..
अब क्या होगा.. कम्पनी से मिली सब सुविधाएँ छोड़नी पड़ी , घर छोड़ना पड़ा ...परेशान होना पड़ा पर उसने कभी अपना धैर्य नहीं खोया बल्कि अजय को दिलासा देती रही कि सब अच्छा ही होगा । हम फिर से अच्छी स्थिति में पहुंचेंगे.. उसके विश्वास ने अजय का आत्मविश्वास बढ़ाया और वह  अच्छी कम्पनी देखता रहा , साक्षात्कार दिलाता रहा और एक दिन अपनी योग्यता के अनुरूप एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में उसका चयन सहायक प्रबंधक के पद पर हो ही गया ।
     वक्त ने उन्हें जीवन के कई पहलू दिखाए थे और रिश्तों के भी ...जीवन रूपी समुद्र के मंथन से मीठे और कटु दोनों अनुभव मिलते हैं.. पथरीले रास्तों पर जब तक न चलें तब तक उस दर्द का एहसास नहीं होता जो कंकड़ों के चुभने से होता है । अजय ने अपने अनुभवों से बहुत कुछ सीखा था..जीवन से सामंजस्य बनाना ,
साहस व धैर्य बनाये रखना ..। उसकी सबसे बड़ी पूंजी थी उसकी सहचरी अलका , जिसने उसकी उम्मीद न टूटने दी , उसका हौसला बढ़ाया ,उसका हर कदम पर साथ दिया । नौकरी के साथ अजय को सच्चे प्यार की पहचान भी हो गई थी। उसे प्यार की मंजिल मिल गई थी ..एक और बात सीखी थी उसने  ...साहिल तब तक न छोड़ो जब तक कश्ती  न मिल जाये , कश्ती तब  तक न छोड़ो जब तक मंजिल  न मिल जाये ।।

स्वरचित ----डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 13 February 2018

दौड़ ( कहानी )🏃🏃

दिव्या फोन पकड़कर स्तब्ध सी खड़ी थी जब सुशांत अंदर आया ! क्या हुआ ? ऐसे बुत बनी क्यों खड़ी हो..
दिव्या.. सुशांत के झिंझोड़ने पर दिव्या मानों होश में आई । ताऊ जी नहीं रहे सुशांत..क्या? सुशांत भी स्तम्भित रह गया था । ओह ! कब ? कैसे ? क्या हुआ था उन्हें ? कितने सारे प्रश्न पूछ डाले थे उसने ....उसे अपने कानों पर विश्वास  नहीं हो रहा था  , अपने - आपको साबित करने के लिए मनुष्य कितने प्रयास करता है.. पर उसकी चतुराइयाँ क्या मौत को धोखा दे
सकती हैं । चाहे वह कितनी भी तरक्की कर ले पर मौत के आगे वह बेबस ही हो जाता है । यम के दरबार में सब
समान हैं.. कोई छोटा - बड़ा नहीं है ।
                       पता नहीं क्या हुआ ,  ताऊ जी तो बिल्कुल स्वस्थ लगते थे ...ऊँची कद - काठी  , बताशे की तरह झक उजला रंग ,  तीखे नैन - नक्श ... कुल मिलाकर बहुत प्रभावशाली व्यक्तित्व था उनका । भरा -
पूरा परिवार था उनका ..पाँच बेटियाँ और एक बेटा ..इतने पढ़े - लिखे होकर  बेटी  - बेटे में भेदभाव
था उनके मन में ...बेटे के लिए  बेटियों की लाइन लगाते चले गए  ।
        घर  के  कामों को  निपटाते हुए दिव्या का ध्यान
उधर ही लगा रहा ... साथ बिताये पल याद आते रहे ...
पहले हर त्यौहार में गाँव जाते  , ताऊ जी के परिवार के साथ  मनाते थे ।  दिव्या को वहाँ बहुत अच्छा लगता था क्योंकि संयुक्त परिवार में रहने का अपना अलग मजा था ।  दिन भर खेलना , साथ - साथ खाना - सोना ..इस साथ  ने त्योहारों के रंग  और गहरे कर दिये थे  । दिव्या के पापा और ताऊ जी में पाँच वर्षों का अंतर था  , पर उसके पापा अधिक शांत  , सहज व्यक्तित्व के स्वामी थे  ।
       दोनों भाइयों की सोच और रहन - सहन में जमीन आसमान का अंतर था...उसके पिता स्कूल में शिक्षक थे
दादा जी  का निधन बहुत पहले हो गया था ..उनके सौतेले भाइयों ने सारी संपत्ति हड़प ली थी..उनका बचपन बहुत संघर्षपूर्ण रहा ।  दिव्या के पापा दसवीं पास कर अपने मामाजी के यहाँ चले गए थे ताकि वहाँ कुछ काम मिल सके । उनके साथ रहते हुए उन्होंने स्कूल में नौकरी  ग्रहण कर ली और प्राइवेट  पढ़ाई भी करते रहे । वहाँ से दादी  को पैसे भेजते रहे  , ताऊ जी  उस समय पटवारी  की नौकरी कर रहे थे , उसे छोड़कर वे आगे पढ़ाई करना चाहते थे.. दिव्या के पापा ने ही उन्हें सपोर्ट कियाऔर उन्हें आर्थिक मदद दी ।
                              एम . बी. ए. करने के बाद
ताऊ जी  एक प्राइवेट कंपनी में  अच्छे पद पर  नौकरी करने लगे थे । ताऊ जी  बेहद खर्चीले स्वभाव के थे ..
विलासिता के साथ  जीवन व्यतीत करना  उन्हें पसन्द
था और इसको मेंटेन करने  में उनकी सारी आमदनी खर्च हो जाती थी । दिखावे और तामझाम में फिजूलखर्ची करना उनके स्वभाव में था , दिव्या के पापा को यह सब पसन्द नहीं था वे सादगी भरे जीवन को पसन्द करते थे ..जितनी चादर हो उतना ही पैर पसारने में विश्वास रखते थे वे  । अपनी आवश्यकताओं को भी सीमित रखा था उन्होंने और अपने परिवार को भी यही सिखाया था । दिव्या और उसके भाई दिव्यांश
पापा के अनुसार ही सरल जीवन शैली जीना सीख गये थे । अपनी सीमाओं में रहना बचपन से ही सीख लिया था उन्होंने ।
         ताऊ जी के बच्चे  उनके अनुसार ही ढले....
दिखावा और  चकाचौंध से भरपूर ..सुख - सुविधाओं
में रहने के आदी । कहते हैं हर चीज की अति उचित नहीं होती ' अति सर्वत्र वर्जयेत ' । उनका बड़बोलापन
और फिजूलखर्ची उनकी दुश्मन हो गई ...कभी बहुत अच्छी स्थिति में रहते , खूब ऐश करते तो कभी तंगी में
दिन गुजारते । उधार लो और घी पियो की प्रवृति रखने वाले  ऐसे ही जीवन जीते हैं.. जब तक जेब में पैसे हैं सुविधाओं का उपभोग करो बाद की बाद में देखी जाएगी ।
   ऐसी परिस्थितियों में छोटा भाई ही उन्हें नजर आता था.. बस सहयोग माँगने चले आते । वे  अस्वीकार नहीं
कर पाते..भाई का आदर और प्रेम उन्हें रोक देता परन्तु
समय बीतने के साथ जिम्मेदारियां बढ़ने लगी थी और
खर्चे भी । फिर उनकी आमदनी भी तो सीमित थी ..शिक्षक  का व्यवसाय सदा ही कम आय वाला रहा
है तो वे कितना सहयोग कर पाते । फिर भी कभी उन्हें मना नहीं करते थे वे पर यही बात अक्सर दिव्या के मम्मी पापा के बीच विवाद उत्पन्न कर देता ...वैसे वे कभी नहीं लड़ते थे पर जब भी ताऊ जी का  जिक्र छिड़ता उनके बीच बहस हो ही जाती थी ।दिव्या की मम्मी गलत भी नहीं थी .. वे कितनी सादगी से रहते थे , उनके  पास सुख - सुविधाएं कम थीं  । भविष्य के लिए की गई बचत ताऊ जी माँग कर ले जाते थे और सामाजिक कार्यक्रमों में उसके पापा की बेइज्जती करने से भी नहीं चूकते थे..अरे ! बेचारा मास्टर , क्या करेगा ...कहकर ।
        पापा उनकी बातों को हँस कर टाल देते ...शायद
उन्हें आदत थी उनकी कड़वी बातें सुनने की । बेटियाँ अपने पिता के अधिक करीब होती हैं.. कभी - कभी पापा  दिव्या के सामने अपनी व्यथा अभिव्यक्त कर देते । अरे वे तो बचपन से ही ऐसे हैं ...माँ कुछ भी खाने की चीजें हम दोनों भाइयों को बाँटती , तो भैया मेरा हिस्सा भी खा जाते । वे कहते नहीं पर मुझे बहुत प्यार करते हैं । उनके लिए कुछ करने में बहुत खुशी होती है मुझे ..
यह कहते आँखें भीग जाती उनकी ।
      उच्च महत्वाकांक्षा रखने के कारण ताऊ जी का
जीवन अस्थायी ही रहा ..उन्होंने कई कम्पनियां बदली
कई बार इन बदलावों के कारण बीच के कुछ महीने
खाली भी बैठे रहते । उस परिस्थिति में छोटे भाई के
पास जरूर आते..,कुछ दिन आराम से रहकर जाते और
उनका बजट बिगाड़कर  । अपने छोटे भाई की सीमित
आमदनी में खुशहाल जिंदगी देखकर  ख़ूब तारीफ
करते... बच्चों  को मन लगा कर पढ़ते देख अपने भाई की तारीफ करते ... ऊपर से अपने - आपको सुखी और सन्तुष्ट दिखाने वाले ताऊ जी भीतर से कितने खोखले व दुःखी  थे । कई बार लगता कि वे अपने बच्चों की नाकामी और दुर्व्यवहार  से निराश थे । उन्होंने अपने बच्चों को सब सुविधाएं दी लेकिन वे पढ़ाई में कमजोर निकले । दरअसल पिता की दिखावे की प्रवृत्ति  और सोच कि  " धन के प्रभाव से कुछ भी किया जा सकता है " ने उन्हें  भी वैसा ही बना दिया था । जीवन में आगे बढ़ने के लिए उन्होंने  कितने
दाँव आजमाये थे ..साम , दाम , दन्ड - भेद आजमा कर
तरक्की पाई थी । अपनी राह प्रशस्त करने के लिए दूसरों को गिराने में भी कोई संकोच  नहीं किया ।
          पर इस तरक्की  के साथ बहुत कुछ खोया भी उन्होंने..बच्चे अनुसरण करके ही सीखते हैं यह बात वे
भूल गए ।  उन्होंने स्वयं अपने आँगन में स्वार्थपरता  के
बीज बोए थे । बेईमानी के वृक्ष में ईमानदारी का फल कहाँ से लगता । उनके बच्चे उसी वातावरण में पले बढ़े
बच्चों को संस्कार देने के मामले में ताऊ जी  दिव्या के पापा से पिछड़ गए थे क्योंकि उनके मास्टर भाई के बच्चे पढ़ाई  के साथ  - साथ  दूसरे क्षेत्रों में भी अपने माता - पिता का नाम ऊँचा कर रहे थे जो संस्कार छोटे भाई ने अपने बच्चों को दिया वे नहीं कर पाये थे ...दिव्या के पापा  भी धीरे - धीरे तरक्की करते हुए व्याख्याता के पद पर पहुँच गये थे । ताऊ जी अब भी  अपनी महत्वाकांक्षा के हवाई झूले में बैठे ऊपर - नीचे हो रहे थे पर उनका छोटा भाई  यथार्थ के ठोस
धरातल पर कदम जमाये बैठा था । धीरे - धीरे ही सही पर वह आगे बढ़ रहा था सफलता की राह में ...सुख - शांति , सन्तुष्टि  और खुशियों से भरा था उसका जीवन ।  छल - प्रपंच से दूर सीधे सरल भाई और शालीन , आज्ञाकारी अपनी सफलता से माता - पिता को गर्वित करते उसके बच्चों ने उन्हें उस दौड़ में हरा दिया था जो उन्होंने  अहंकारपूर्वक शुरू किया था । कछुए और खरगोश की दौड़ में आज फिर कछुआ जीत गया था ।

स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़🏃🏃