Monday, 5 February 2018

दर्द की साझेदारी ( लघुकथा )

  मेरी एक सहेली का असामयिक निधन हो गया था । उसके बच्चे अभी छोटे ही थे , उनके विलाप ने सबको रुला दिया था । उसके रिश्तेदार  बच्चों को समझाने में लगे थे , पर माँ को खोना कोई छोटी क्षति नहीं होती क्योंकि माँ का स्थान तो कोई ले ही नहीं  सकता ...उन्हें सम्भालना मुश्किल हो गया था । जैसे - तैसे अर्थी ले जाई गई ....बच्चे अब भी बिलख रहे थे । उनकी नानी उन्हें अपनी गोद में लिये बैठी थीं  , तभी  उनकी एक  पड़ोसन जो काफी समय से वहाँ पर आई हुई थी ...घर जाकर बच्चों के लिए खाना बनाकर ले आई थी  । उन्होंने बहुत ही धैर्यपूर्वक  बच्चों को समझाया...उनके साथ अपनी पीड़ा बांटी कि उनकी तरह उन्होंने भी बहुत छोटी उम्र में अपनी माँ को खो दिया था और फिर अपने - आपको सम्भाला । हमारे अपने हमारी यादों में हमारे साथ रहते हैं और जब हम खुश रहेंगे तो उनकी आत्मा भी हमें देखकर खुश रहेगी और हमें दुःखी देखकर उन्हें अच्छा नहीं लगेगा । माँ तो हमेशा अपने बच्चों के लिए फिक्रमंद रहती है ना , तो तुम्हारी माँ  भगवान के पास  जाकर   भी तुम्हारी चिन्ता करेगी इसलिए बेटा , हमें अच्छे से रहना है ताकि हमारी माँ भी सदैव खुश रहे । हमें आगे बढ़ते देखकर वह मुस्कुराएगी, खुश होगी । जानेवालों की स्मृतियों के सहारे जीने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता हमारे पास । उनके साथ बिताये अच्छे पलों को याद कर हमें आगे बढ़ना होगा न !
        उनके समझाने का बच्चों पर इतना असर हुआ कि रोना बन्दकर उनके द्वारा लाया गया खाना भी उन्होंने खा लिया । एक ही दर्द के एहसास ने उन्हें अपनेपन के बंधन में बाँध लिया .... उनके दर्द की साझेदारी ने  बच्चों को जीना सिखा दिया था ।

स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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