Tuesday, 13 February 2018

दौड़ ( कहानी )🏃🏃

दिव्या फोन पकड़कर स्तब्ध सी खड़ी थी जब सुशांत अंदर आया ! क्या हुआ ? ऐसे बुत बनी क्यों खड़ी हो..
दिव्या.. सुशांत के झिंझोड़ने पर दिव्या मानों होश में आई । ताऊ जी नहीं रहे सुशांत..क्या? सुशांत भी स्तम्भित रह गया था । ओह ! कब ? कैसे ? क्या हुआ था उन्हें ? कितने सारे प्रश्न पूछ डाले थे उसने ....उसे अपने कानों पर विश्वास  नहीं हो रहा था  , अपने - आपको साबित करने के लिए मनुष्य कितने प्रयास करता है.. पर उसकी चतुराइयाँ क्या मौत को धोखा दे
सकती हैं । चाहे वह कितनी भी तरक्की कर ले पर मौत के आगे वह बेबस ही हो जाता है । यम के दरबार में सब
समान हैं.. कोई छोटा - बड़ा नहीं है ।
                       पता नहीं क्या हुआ ,  ताऊ जी तो बिल्कुल स्वस्थ लगते थे ...ऊँची कद - काठी  , बताशे की तरह झक उजला रंग ,  तीखे नैन - नक्श ... कुल मिलाकर बहुत प्रभावशाली व्यक्तित्व था उनका । भरा -
पूरा परिवार था उनका ..पाँच बेटियाँ और एक बेटा ..इतने पढ़े - लिखे होकर  बेटी  - बेटे में भेदभाव
था उनके मन में ...बेटे के लिए  बेटियों की लाइन लगाते चले गए  ।
        घर  के  कामों को  निपटाते हुए दिव्या का ध्यान
उधर ही लगा रहा ... साथ बिताये पल याद आते रहे ...
पहले हर त्यौहार में गाँव जाते  , ताऊ जी के परिवार के साथ  मनाते थे ।  दिव्या को वहाँ बहुत अच्छा लगता था क्योंकि संयुक्त परिवार में रहने का अपना अलग मजा था ।  दिन भर खेलना , साथ - साथ खाना - सोना ..इस साथ  ने त्योहारों के रंग  और गहरे कर दिये थे  । दिव्या के पापा और ताऊ जी में पाँच वर्षों का अंतर था  , पर उसके पापा अधिक शांत  , सहज व्यक्तित्व के स्वामी थे  ।
       दोनों भाइयों की सोच और रहन - सहन में जमीन आसमान का अंतर था...उसके पिता स्कूल में शिक्षक थे
दादा जी  का निधन बहुत पहले हो गया था ..उनके सौतेले भाइयों ने सारी संपत्ति हड़प ली थी..उनका बचपन बहुत संघर्षपूर्ण रहा ।  दिव्या के पापा दसवीं पास कर अपने मामाजी के यहाँ चले गए थे ताकि वहाँ कुछ काम मिल सके । उनके साथ रहते हुए उन्होंने स्कूल में नौकरी  ग्रहण कर ली और प्राइवेट  पढ़ाई भी करते रहे । वहाँ से दादी  को पैसे भेजते रहे  , ताऊ जी  उस समय पटवारी  की नौकरी कर रहे थे , उसे छोड़कर वे आगे पढ़ाई करना चाहते थे.. दिव्या के पापा ने ही उन्हें सपोर्ट कियाऔर उन्हें आर्थिक मदद दी ।
                              एम . बी. ए. करने के बाद
ताऊ जी  एक प्राइवेट कंपनी में  अच्छे पद पर  नौकरी करने लगे थे । ताऊ जी  बेहद खर्चीले स्वभाव के थे ..
विलासिता के साथ  जीवन व्यतीत करना  उन्हें पसन्द
था और इसको मेंटेन करने  में उनकी सारी आमदनी खर्च हो जाती थी । दिखावे और तामझाम में फिजूलखर्ची करना उनके स्वभाव में था , दिव्या के पापा को यह सब पसन्द नहीं था वे सादगी भरे जीवन को पसन्द करते थे ..जितनी चादर हो उतना ही पैर पसारने में विश्वास रखते थे वे  । अपनी आवश्यकताओं को भी सीमित रखा था उन्होंने और अपने परिवार को भी यही सिखाया था । दिव्या और उसके भाई दिव्यांश
पापा के अनुसार ही सरल जीवन शैली जीना सीख गये थे । अपनी सीमाओं में रहना बचपन से ही सीख लिया था उन्होंने ।
         ताऊ जी के बच्चे  उनके अनुसार ही ढले....
दिखावा और  चकाचौंध से भरपूर ..सुख - सुविधाओं
में रहने के आदी । कहते हैं हर चीज की अति उचित नहीं होती ' अति सर्वत्र वर्जयेत ' । उनका बड़बोलापन
और फिजूलखर्ची उनकी दुश्मन हो गई ...कभी बहुत अच्छी स्थिति में रहते , खूब ऐश करते तो कभी तंगी में
दिन गुजारते । उधार लो और घी पियो की प्रवृति रखने वाले  ऐसे ही जीवन जीते हैं.. जब तक जेब में पैसे हैं सुविधाओं का उपभोग करो बाद की बाद में देखी जाएगी ।
   ऐसी परिस्थितियों में छोटा भाई ही उन्हें नजर आता था.. बस सहयोग माँगने चले आते । वे  अस्वीकार नहीं
कर पाते..भाई का आदर और प्रेम उन्हें रोक देता परन्तु
समय बीतने के साथ जिम्मेदारियां बढ़ने लगी थी और
खर्चे भी । फिर उनकी आमदनी भी तो सीमित थी ..शिक्षक  का व्यवसाय सदा ही कम आय वाला रहा
है तो वे कितना सहयोग कर पाते । फिर भी कभी उन्हें मना नहीं करते थे वे पर यही बात अक्सर दिव्या के मम्मी पापा के बीच विवाद उत्पन्न कर देता ...वैसे वे कभी नहीं लड़ते थे पर जब भी ताऊ जी का  जिक्र छिड़ता उनके बीच बहस हो ही जाती थी ।दिव्या की मम्मी गलत भी नहीं थी .. वे कितनी सादगी से रहते थे , उनके  पास सुख - सुविधाएं कम थीं  । भविष्य के लिए की गई बचत ताऊ जी माँग कर ले जाते थे और सामाजिक कार्यक्रमों में उसके पापा की बेइज्जती करने से भी नहीं चूकते थे..अरे ! बेचारा मास्टर , क्या करेगा ...कहकर ।
        पापा उनकी बातों को हँस कर टाल देते ...शायद
उन्हें आदत थी उनकी कड़वी बातें सुनने की । बेटियाँ अपने पिता के अधिक करीब होती हैं.. कभी - कभी पापा  दिव्या के सामने अपनी व्यथा अभिव्यक्त कर देते । अरे वे तो बचपन से ही ऐसे हैं ...माँ कुछ भी खाने की चीजें हम दोनों भाइयों को बाँटती , तो भैया मेरा हिस्सा भी खा जाते । वे कहते नहीं पर मुझे बहुत प्यार करते हैं । उनके लिए कुछ करने में बहुत खुशी होती है मुझे ..
यह कहते आँखें भीग जाती उनकी ।
      उच्च महत्वाकांक्षा रखने के कारण ताऊ जी का
जीवन अस्थायी ही रहा ..उन्होंने कई कम्पनियां बदली
कई बार इन बदलावों के कारण बीच के कुछ महीने
खाली भी बैठे रहते । उस परिस्थिति में छोटे भाई के
पास जरूर आते..,कुछ दिन आराम से रहकर जाते और
उनका बजट बिगाड़कर  । अपने छोटे भाई की सीमित
आमदनी में खुशहाल जिंदगी देखकर  ख़ूब तारीफ
करते... बच्चों  को मन लगा कर पढ़ते देख अपने भाई की तारीफ करते ... ऊपर से अपने - आपको सुखी और सन्तुष्ट दिखाने वाले ताऊ जी भीतर से कितने खोखले व दुःखी  थे । कई बार लगता कि वे अपने बच्चों की नाकामी और दुर्व्यवहार  से निराश थे । उन्होंने अपने बच्चों को सब सुविधाएं दी लेकिन वे पढ़ाई में कमजोर निकले । दरअसल पिता की दिखावे की प्रवृत्ति  और सोच कि  " धन के प्रभाव से कुछ भी किया जा सकता है " ने उन्हें  भी वैसा ही बना दिया था । जीवन में आगे बढ़ने के लिए उन्होंने  कितने
दाँव आजमाये थे ..साम , दाम , दन्ड - भेद आजमा कर
तरक्की पाई थी । अपनी राह प्रशस्त करने के लिए दूसरों को गिराने में भी कोई संकोच  नहीं किया ।
          पर इस तरक्की  के साथ बहुत कुछ खोया भी उन्होंने..बच्चे अनुसरण करके ही सीखते हैं यह बात वे
भूल गए ।  उन्होंने स्वयं अपने आँगन में स्वार्थपरता  के
बीज बोए थे । बेईमानी के वृक्ष में ईमानदारी का फल कहाँ से लगता । उनके बच्चे उसी वातावरण में पले बढ़े
बच्चों को संस्कार देने के मामले में ताऊ जी  दिव्या के पापा से पिछड़ गए थे क्योंकि उनके मास्टर भाई के बच्चे पढ़ाई  के साथ  - साथ  दूसरे क्षेत्रों में भी अपने माता - पिता का नाम ऊँचा कर रहे थे जो संस्कार छोटे भाई ने अपने बच्चों को दिया वे नहीं कर पाये थे ...दिव्या के पापा  भी धीरे - धीरे तरक्की करते हुए व्याख्याता के पद पर पहुँच गये थे । ताऊ जी अब भी  अपनी महत्वाकांक्षा के हवाई झूले में बैठे ऊपर - नीचे हो रहे थे पर उनका छोटा भाई  यथार्थ के ठोस
धरातल पर कदम जमाये बैठा था । धीरे - धीरे ही सही पर वह आगे बढ़ रहा था सफलता की राह में ...सुख - शांति , सन्तुष्टि  और खुशियों से भरा था उसका जीवन ।  छल - प्रपंच से दूर सीधे सरल भाई और शालीन , आज्ञाकारी अपनी सफलता से माता - पिता को गर्वित करते उसके बच्चों ने उन्हें उस दौड़ में हरा दिया था जो उन्होंने  अहंकारपूर्वक शुरू किया था । कछुए और खरगोश की दौड़ में आज फिर कछुआ जीत गया था ।

स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़🏃🏃
      
          

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