सर्दियों की सुबह धुंध भरी थी.... सब कुछ धुंधला सा था ..रास्ता नहीं सूझ रहा था...कुछ दूर यूँ ही अनुमान से अपनी दिशा में चलते हुए राह दिखनी शुरू हुई । दिवाकर की रश्मियों ने भीगे हुए समीर की नमी सोंखने के साथ सब कुछ स्पष्ट कर दिया था ।कभी - कभी रिश्तों पर भी ऐसी ही धुंध छा जाती है... उदासीनता की नमी , शिकवों की गर्द एक अपारदर्शी परत बना जाती है...रिश्तों पर । बहुत दिनों के बाद भैया के घर जा पाई थी... भतीजे नीलेश की शादी के बाद दो तीन बार गई थी... पर बहुत कम समय के लिए।
शादी के तुरंत बाद नीलेश - श्वेता घूमने चले गए । वहाँ से आने के बाद अपनी -अपनी नौकरी में व्यस्त हो गए।
मैं भी अपने घर में व्यस्त हो गई ...कई बार हम मन ही मन कितनी योजनायें बनाते रहते हैं पर उसे मूर्तरूप कहाँ दे पाते हैं । अपनी सामान्य दिनचर्या में ही दिन कैसे निकलते जाते हैं पता ही नहीं चलता । एक के बाद
एक जिमेदारियाँ , समस्याएं आती रहती हैं और उन्हें पूरी करते , सुलझाते जिंदगी बीतती जाती है । कब सुबह से शाम हो जाती है पता ही नहीं चलता । ये हमारे तीज - त्यौहार , जन्मदिन , विवाह की सालगिरह इत्यादि न होते तो हमारा जीवन नीरस हो जाता । कम से कम इन बहानों से हमारे जीवन में कुछ हलचल तो हो जाती है । लोगों से मेल - मुलाकात , विचारों का आदान -प्रदान हो जाता है । समन्दर के लहरों की तरह होती हैं ये परम्पराएं... कुछ पल के लिए हमें उत्साह , खुशियों और स्नेह की बौछार से भिगो जाते हैं और हम अपने तनाव , समस्याओं को भूल जाते हैं ।
हाँ , किसी उत्सव से कम नहीं था नीलेश का विवाह । सीधी - सादी और थोड़ी सी लापरवाह भाभी के लिए बहु ढूंढना कोई छोटी बात नहीं थी । भतीजे की नौकरी भी यहीं है तो दुल्हन ऐसी होनी चाहिए जो घर -
परिवार का महत्व समझे । परिवार वालों का सबसे बड़ा डर आजकल यही रहता है कि दुल्हन अपने पति को लेकर अलग रहने की न सोचे क्योंकि पाश्चात्य संस्कृति की देखा - देखी एकल परिवार की चाहत हर लड़की में होती है । आजादी की चाह में वे माता - पिता को भी भूल जाते हैं तभी तो वृद्धाश्रमों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है ।
श्वेता से मेरी मुलाकात अपने एक दोस्त के घर पर हुई थी । वह आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थी .उसके प्यारे , भोले से चेहरे पर लंबे बाल उसे सौम्य दिखा रहे थे । उसने अभी - अभी अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी और प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रही थी । नीलेश के लिए वह मुझे जँच गई और मैंने भैया - भाभी को उसके बारे में बताया..उन्हें भी मेरी पसन्द अच्छी लगी । मेरी दोस्त ने श्वेता के मम्मी -पापा से बात की तो वे विवाह का प्रस्ताव लेकर घर आ गये । नीलेश ने भी श्वेता से मिलकर हमारी पसन्द को अपनी स्वीकृति
दे दी । घर - परिवार के छोटे से लेकर बड़े तक सभी बेहद उत्साहित थे ...दूसरी पीढ़ी की यह पहली शादी थी...सगाई व विवाह की तैयारी में सभी जुट गए थे । विवाह सिर्फ दो दिलों का नहीं वरन दो परिवारों का मिलन होता है , यह बहुत लोगों को खुशियाँ प्रदान करता है । बहुत ही धूमधाम से विवाह सम्पन्न हुआ । भाभी एक घरेलू महिला थी लेकिन बहुत ही सुलझी हुई और शांत स्वभाव की थी । उनके घर में बेटी की कमी को बहू ने दूर कर दिया होगा , ऐसा मुझे विश्वास था।
पर हम जैसी कल्पना करते हैं.. सब कुछ हमेशा वैसा ही नहीं होता । नीलेश के विवाह के पश्चात मैं कई
बार भाभी से मिलने गई परन्तु मेरी मुलाकात उनसे नहीं हुई । या तो वे कहीं घूमने गये होते या अपने कमरे में सोये होते । भाभी ने बताया कि श्वेता को घूमने का बहुत शौक है..इसलिए अक्सर सप्ताहांत में वे कहीं न कहीं घूमने निकल ही जाते हैं । शुरुआत में थोड़ा आकर्षण तो रहता ही है ...उनके घूमने या घर पर न रहना कोई बड़ी बात नहीं थी । किसी को कोई शिकायत भी नहीं थी...पर वक्त गुजरने के साथ यह थोड़ा अजीब सा लगने लगा । एक वर्ष से अधिक हो गया था ... मैंने देखा , घर में कहीं कोई परिवर्तन नहीं हुआ था... ड्रेसिंग टेबल पर चीजें बेतरतीब पड़ी हुई थी कपड़े इधर - उधर फैले हुए थे । आलमारी की भी यही हालत थी । समाचार पत्रों का ढेर एक जगह से झाँक रहा था ।नीलेश के कमरे की व्यवस्था को छोड़कर कहीं कोई बदलाव नहीं था बल्कि उनके कमरे में नया टी. वी. , एक छोटा फ्रिज आ गया था और कुछ अन्य सुविधाएं भी । वे सिर्फ अपने कमरे में ही सीमित हो कर रह गए थे , एक किराएदार की तरह । बस , नाश्ते , खाने के लिए ही नीचे आना और कोई जिम्मेदारी नहीं। काम करनेवाले कब आते हैं , कब जाते है उनको कोई मतलब नहीं था । भाभी की दिनचर्या पहले जैसी ही थी । उनकी किसी जिम्मेदारी में कोई बदलाव नहीं आया था...दरअसल वह अपने काम स्वयं करनेवाली थी..उनके स्वभाव में किसी से शिकायत करना या उम्मीद रखना था ही नहीं। श्वेता को जो काम करना होता वह करती ..कम से कम अपने व नीलेश के खाने - पीने की जिम्मेदारी उसने सम्भाल ली थी , भाभी इसी बात से सन्तुष्ट थी ।
विवाह के शुरुआती दिन कैसे बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता....दाम्पत्य - प्रेम अपने आप में अनोखा एहसास है ...एक - दूसरे की परवाह करना , अधिक से अधिक साथ चाहना , एक - दूसरे के विचारों को समझना , उनका सम्मान करना ...। नीलेश और श्वेता का प्रेम भी परवान चढ़ रहा था... परन्तु एक - दूसरे की बढ़ती करीबी शायद उन्हें माता - पिता से दूर कर रही थी खासकर माँ से ...ऐसा मैंने महसूस किया । पिता वैसे भी अधिकांश समय बाहर रहते हैं तो बच्चों से उनका सम्बन्ध माँ की तरह नहीं रहता । माँ तो उनके हर एक क्रिया कलाप में शामिल रहती है.. खाने से लेकर पहनने , चलने , बोलने सभी बातों में । अपने दोस्तों के बारे में , ऑफिस के बारे में एक - एक बात अपनी माँ से शेयर करने वाला नीलेश अब अचानक उनसे दूर हो गया था ।वह अपनी छुट्टियां घर पर ही मनाना पसन्द करता था ...ड्यूटी से आने के बाद वह मम्मी के साथ ही लगा रहता ...वह कमी अब भाभी को खलने लगी थी परन्तु
किसी से कुछ कहा नहीं उन्होंने । वैसे अपने बेटे की शादी करने के बाद माँ इन सबके लिए मानसिक रूप से
तैयार रहती है कि बेटे की जिम्मेदारियां बढ़ी हैं तो उसके
व्यवहार में बदलाव आना तो स्वाभाविक है । अब उसे
पत्नी और परिवार में सामंजस्य बनाना पड़ेगा...गृहस्थी रुपी धागे को न तो अधिक खींचकर रखा जा सकता है
और न ही अधिक ढील देकर...माँ ने ही यह बात उसे
समझाई थी ।
शुरुआत में कुछ परेशानियाँ तो होती ही हैं क्योंकि लड़की अपने जीवन के पच्चीस वर्ष जिस परिवेश में व्यतीत कर के आती है... उससे कुछ भिन्नता तो दूसरे परिवार में होती ही है...चाहे वह खानपान में हो, रस्मों - रिवाजों में हो या परम्पराओं में । थोड़ा समय तो देना ही पड़ता है । भाभी ने बहुत समझदारी से अपने बेटे को भी श्वेता के साथ सामंजस्य बिठाने में अपनी भूमिका निभाई ...परन्तु मैं महसूस कर रही थी कि कहीं कुछ कमी सी लग रही है क्योंकि भाभी कुछ उदास सी लगती थी ... मन में उठने वाले जज्बातों की अभिव्यक्ति बहुत आवश्यक है यह तभी मालूम हुआ जब एक दिन उन्हें हृदयाघात हुआ...सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि नीलेश और श्वेता ऊपर अपने कमरे में सोये हुए थे और उन्हें इस बात की जानकारी भी नहीं हुई । दरअसल नीलेश सोते समय अपना फोन
स्विच ऑफ रखता था और श्वेता जल्दी फोन नहीं उठाती थी । बेचैनी सी लगने पर भाभी ने उन्हें फोन किया पर उनके फोन नहीं उठाने पर भैया को फोन किया..भागे - दौड़े भैया आये और उन्हें तुरंत अस्पताल ले गये ..।
मुझे इस बात का आभास हो ही रहा था...भाभी की यह हालत देखकर मन की पीड़ा शब्दों में उभर आई थी और मैं उन पर बरस पड़ी थी... तुम दोनों के घर पर रहने का क्या फायदा जब समय पर तुम काम न आ सके । तुम लोग अपने - आप में इतने व्यस्त हो गये कि घर में और भी लोग हैं यह भूल गये ..भाभी ने कभी शिकायत नहीं की परन्तु उन्हें तुम्हारा साथ , प्यार चाहिए ..पति बनने के बाद तुमने माँ को उपेक्षित क्यों कर दिया नीलेश...अपने बच्चों की परवाह करना माँ की आदत होती है.. जिसे वह बड़ी खुशी से करती है ,बोझ या महज जिम्मेदारी मानकर नहीं पर अफसोस बड़े होने के बाद बच्चे माँ - बाप को बोझ मानने लगते हैं । श्वेता अपने मायके का हर कोना तुम्हें प्रिय है ...पर क्या ससुराल में ऐसा है ? तुम सिर्फ अपने कमरे और अपने पति तक ही क्यों सिमट गई ...क्या तुम भूल गई कि धूमधाम से तुम्हें अपने घर लाने वाली वही थी..,तुम सिर्फ नीलेश की पत्नी नहीं ...तुम्हारे सास - ससुर ने
बहू नहीं तुम्हें एक बेटी के रूप में प्यार दिया है पर क्या तुमने उन्हें अपने माता - पिता का स्थान दिया है... क्या तुमने उन्हें वो सम्मान व प्यार दिया है..मानती हूँ तुमने उनका अपमान भी नहीं किया ...पर उनके मन में जमते
अवसादों ..उपेक्षाओं की परत तुम देख क्यों नहीं पाई ।
नीलेश और श्वेता दोनों की आँखों से पश्चाताप के आँसू बह रहे थे ..उनके आँसुओं ने मन पर जमी गर्द धो डाली थी ...शायद मैंने कुछ ज्यादा ही कह दिया था ।
भाभी के अस्पताल से वापस आने के बाद उनसे मिलने घर गई ...श्वेता और भाभी चाय पीते हुए टी. वी.
देखकर किसी बात पर खिलखिला रही थीं ...मुझे देखते ही श्वेता ने खिली हुई मुस्कान के साथ मेरा स्वागत किया..सारा परिदृश्य खुशनुमा हो उठा था । बारिश के बाद जैसे आसमान स्वच्छ , स्निग्ध दिखाई देता है वैसे
ही उनके चेहरे दिख रहे थे... तनावों की बदली छँट चुकी थी , स्नेह की उर्मिल किरणों ने रिश्तों में छाये धुंध को खत्म कर दिया था ।
स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग छत्तीसगढ़ 💝
समसामयिक कहानी
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