घास - फूस की छत है , मिट्टी की दीवार ,
कभी सताये आंधी , कभी पानी की बौछार ।
पानी भरा घर - आँगन ,निकाल रही माँ बुहार ,
चौबारे बैठा मुर्गा लगा रहा दाने की गुहार ।
सीली सी दीवारें हैं , उनमें पड़ रही दरार ,
चूल्हा ठंडा पड़ा , बारिश में बंद रोजगार ।
मुफलिसी है किस्मत , पड़ी सावन की मार,
जिंदगी की नाव बह रही , मजबूरी की धार ।
पक्के घर खुशी मनाते , कच्चे घर बेजार ,
ईश्वर क्यूँ न सुनता इनकी करुणा भरी पुकार ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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