अब्दों से चली आ रही पुरानी रवायत है ,
वर्तमान सदा अतीत से करता # शिकायत है ।
आज जो नया है वह कल तो पुराना होगा ,
वक्त को रोके रखने की किसकी हिमाकत है ।
नींव को तो आदत है नीचे दबे रहने की ,
नजरों में बने रहना महलों की सियासत है ।
हारने वालों को कहाँ पूछती है ये दुनिया ,
जीतनेवालों की सदा करती जो इबादत है ।
लाजमी तो है पौधों का दरख़्त बनना "दीक्षा" ,
बुजुर्गों पर नजरें फिर क्यों न होती इनायत है ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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