Tuesday, 30 July 2019

ग़ज़ल

अब्दों से चली आ रही  पुरानी रवायत है ,
वर्तमान सदा अतीत से करता # शिकायत है ।

आज जो नया है वह कल तो पुराना होगा ,
वक्त को रोके रखने की किसकी हिमाकत है ।

नींव को तो  आदत है नीचे दबे रहने की ,
नजरों में बने रहना महलों  की सियासत है ।

हारने वालों को कहाँ पूछती है ये  दुनिया ,
जीतनेवालों  की सदा  करती जो इबादत है ।

लाजमी तो है पौधों का दरख़्त बनना "दीक्षा" ,
बुजुर्गों पर नजरें फिर क्यों न होती इनायत है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

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