जिंदगी गम की पोषिका हो गई है ।
संतापों से भरी वेदिका हो गई है ।
कल तक जो अधिकारिणी थी ,
आज वक्त की सेविका हो गई है ।
दिखाने लगी है नखरे , नज़ाकत ,
दोस्त से बढ़कर प्रेमिका हो गई है ।
हार गये कर के सौ - सौ जतन ,
शौक था जो , आजीविका हो गई है ।
पीछे चलकर देख लिया " दीक्षा ",
अभी तू विद्रोही नाायिका हो गई है ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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