नारियों की पूजा होती है जहाँ ,
देवता निवास करते हैं वहाँ ।।
जब हार मान लेते सभी ,
ब्रह्म , विष्णु , शिव , ऋषि ,
राक्षसों का संहार करने को ,
लेती जन्म दुर्गा , काली यहाँ ।।
भगिनी वह , जननी वह ,
संस्कारों की वाहिनी वह ।
रीत , व्यवहार , कुल की मर्यादा ,
प्रिय की अंकशायिनी वह ।
वह नीर सी सरल - तरल ,
उसका निश्चित कोई स्थान कहाँ ।।
दायित्व जब जो भी मिला ,
उसने खुद को साबित किया ।
युद्ध लड़ी भीतर - बाहर ,
सन्तुलन स्थापित किया ।
अपने हक की खातिर ,
पीड़ा उसने क्या - क्या न सहा ।।
व्रती , तपस्वी , साधुजन ,
करते नव - कन्या का पूजन ।
माँ की कोख में ही कर देते ,
कन्या - भ्रूण का विसर्जन ।
कुदृष्टि से अपनी करते रोज ,
स्त्री का चीर हरण !अहा ।।
अपने - आप को भूलकर ,
हमेशा दूसरों के लिए जिया ।
परम्परावादी हो या आधुनिका ,
कर्तव्य अपना पूरा किया ।
सुख की गगरी भरते - भरते ,
मन तो उसका रीत रहा ।।
जीवन यूँ ही बीत रहा ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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