Wednesday, 4 March 2020

वो गर्माहट ( संस्मरण )

   बचपन के बीतने के बाद ही उसकी अहमियत समझ आती है । उन दिनों माता - पिता के प्यार की ठंडी छाँव में दिन कैसे बीतते हैं पता ही नहीं चलता । हँसते - खेलते , पढ़ते वक्त गुजर जाता है और बचपन की मौज - मस्ती रेत की मानिंद मुट्ठी से फिसल जाती  है । दो भाईयों के बीच की अकेली बहन होने के कारण मुझ पर मम्मी - पापा का विशेष स्नेह था । विशेषकर पापा की मैं लाडली थी , उनकी और मेरी जुगलबन्दी अच्छी जमती थी  । वे कहते - " रे मिनी "। मैं उन्हें उत्तर देती - "रे पापा " जिस सुर में वे बोलते मैं उन्हें वैसे ही उत्तर देती । लाड़ में पापा मुझे कई नामों से पुकारते -  गुड्डी ,मिनी , मुनी , कुनी मुनि आदि । पापा बहुत सुबह उठ जाते थे और योग करते रहते । जब हम छत पर सोते तो सुबह थोड़ी ठंड हो जाती । पापा उठने के बाद अपनी चादर मुझे ओढ़ा देते , यह गर्माहट मुझे बहुत प्यारी लगती । कई बार मैं नींद खुलने पर भी पापा के चादर की गर्माहट के लिए आँख बंद किये पड़ी रहती । उनके स्नेह रूपी चादर की उत्तराधिकारी मैं हूँ , यह बात मुझे गौरवान्वित कर जाती । अपने भाईयों से झगड़ने पर यह मेरा सुरक्षा कवच भी होता कि पापा मुझे ज्यादा प्यार करते हैं ।                          छः बजे पापा जबरन मुझे उठाकर पैर से पकड़ कर उल्टा कर देते और सीधे बाथरूम के पास ले जाकर छोड़ते  । मैं कुनमुना कर उठती पर इसी वजह से मुझे जल्दी उठने की आदत पड़ गई । जल्दी उठकर , नहाकर पहले योग करने की प्रवृत्ति उनके कारण बनी । भाई लोग भले उनकी बात टाल जाते पर मैंने उन्हें कभी मना नहीं किया । उन्होंने मुझे जब भी , जो भी जिम्मेदारी सौंपी , मैंने पूरे मनोयोग से वह कार्य पूर्ण किया । पापा अक्सर लोगों के सामने मेरे गुणों की तारीफ किया करते , हर छोटी बात के लिए उनकी प्रशंसा मेरे लिए प्रेरणा बनती और मैं उनकी नजर में अधिक अच्छा बनने के लिए प्रयास करती । मेरे रचनात्मक लेखन की शुरुआत भी उन्हीं की प्रेरणा से हुई । उन्होंने मुझे चाचा , दीदी , मामा इत्यादि विभिन्न रिश्तेदारों को पत्र लिखने के लिए प्रोत्साहित किया । तब मैं मिडिल स्कूल में थी , उस उम्र में मेरी लेखन शैली की सभी रिश्तेदार खूब तारीफ किया करते । सभी का प्रोत्साहन पाकर हमेशा लिखते रहने का अभ्यास बढ़ा ।                       पापा जी के कहने पर मैंने आकाशवाणी रायपुर और विभिन्न समाचार पत्रों में अपनी रचनाएं भेजना प्रारंभ किया  और इस प्रकार मेरा साहित्यिक जीवन प्रारंभ हुआ । अच्छी किताबें पढ़ने के लिए उनकी प्रेरणा ने मेरा जीवन बदल दिया क्योंकि स्वाध्याय की प्रवृत्ति हमें एक नई दुनिया का दीदार कराती है । जानकारी का भंडार हमारे सामने खुल जाता है , जीवन की बहुत सी समस्याएं भी सुलझ जाती हैं क्योंकि किताबें अकेलेपन की सबसे खूबसूरत व विश्वसनीय साथी होती हैं । कई बुराईयों की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता और हम एक स्वस्थ मानसिकता के स्वामी बनते हैं ।  पिता के विचार , मानसिकता , संस्कार बच्चों को वसीयत में मिलते हैं । अनजाने ही कब उनकी आदतों , बातों को बच्चे अपना लेते हैं पता ही नहीं चलता इसलिए पिता की जिम्मेदारी बढ़ जाती है।
सुव्यवस्थित रहने की आदत मैंने अपने पिता से अनायास ही पाई है । उनका लाड़ - दुलार  वायुमण्डल के ओजोन परत की तरह है जो हानिकारक विकिरणों से हमारी सुरक्षा करता है । वो स्नेह भरी गर्माहट मेरी स्मृति पटल पर  हमेशा बनी रहेगी उम्र भर । शुक्रिया पापा 🙏🙏

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

No comments:

Post a Comment