Sunday, 8 March 2020

काफी है ( लघुकथा )

 रविवार छुट्टी होने के कारण गृहणियों का काम कुछ ज्यादा
ही हो जाता है । रमा सुबह से ही भिड़ी थी नाश्ता , खाना , बच्चों का यूनिफॉर्म धोना , प्रेस करना  उन्हें पढ़ाना  ..सब करने के बाद शाम को लेटी तो उठने की हिम्मत नहीं हुई । लगभग आधा - पौन घण्टे आराम करने के बाद वह अनमनी सी उठी ..रसोई में कुछ खटपट हो रही थी झांककर देखा तो देखती ही रह गई ।  पतिदेव और दोनों बच्चे खाना बना रहे थे
उसे देखते ही  उसके पति बोले - "अरे ! तुम क्यों उठ गई , तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं लग रही , तुम लेटी रहो ।" " हाँ मम्मी आप आराम कीजिए आज हम खाना बना रहे हैं " - उसके नन्हें से लाड़ले बेटे ने कहा तो स्नेहसिक्त हो गया उसका अंतर्मन  । भीगे हुए शब्दों में बस इतना ही कहा - " तुम लोगों को परेशान होने की क्या जरूरत थी , मैं तो आ ही रही थी ।"
बिना कहे उसके प्रियजन उसकी तकलीफ समझ लें , बस ...इतने में ही वह अपनी सारी तकलीफें भूल जाती है  । इतना ही काफी है उसके लिए ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

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