काश ! अखण्ड रहता भारत ,
देश के दो टुकड़े न होते ।
न बिछड़ता भाई से भाई ,
साम्प्रदायिक दंगे न होते ।
काश ! धरा के स्वर्ग में ,
आतंक के साये न होते ।
खून से न रंगती यह धरती ,
लाडले जवानों को न खोते ।
काश ! फूलों की घाटी के ,
रहवासी बेहाल न होते ।
हवा में न होती बारूदी गंध ,
अपनी बर्बादी पर न रोते ।
काश ! छँट जाये गम का धुंआ ,
तरक्की के द्वार खुले होते ।
खुशियों से भीगा होता समां ,
सभी नींद चैन की सोते ।
काश ! बदलाव के बादल ,
दिलों को नेह से भिगोते ।
खुशहाली की उर्वर धरा पर ,
चैन ओ अमन के बीज बोते ।
काश ! घाटी की सर्द रातों को ,
अभावों की झील में न डुबोते ।
हर हाथ को मिलता काम यहाँ ,
सुखमय जीवन के ख्वाब पूरे होते ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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