Friday, 28 February 2020

सजल 10

समांत - अम
पदांत - है
मात्रा भार - 16
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जीवन सुख - दुःख का  संगम है ,
पल - पल बदलता  मौसम है ।
यह आता - जाता मौसम है ।
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रोकर जियो तो मरुथल - सा ,
हँसकर जियो तो  सरगम  है ।
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आये मुसीबत तो खार है ,
खुशी मिले तो शबनम है ।
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वृक्ष उखड़ गये आँधी में ,
बेलों  ने दिखा दिया दम है ।
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फकीर घूम रहा सुकून से ,
अमीर का धन अब भी कम है ।
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स्वरचित -  डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 27 February 2020

मुक्तक

मुक्तक 
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किस दिशा से आई है नफरतों की आँधी ,
जाति - धर्म की सीमाएँ किसने है बाँधी ।
वैमनस्य की फसल कैसे लहलहा उठी_
जिस धरा पर जन्मे विवेकानन्द , गाँधी ।।
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एक सबकी पीड़ा है , एक सबका हाल है ,
बेबसी ,अभाव से सबकी जिंदगी बेहाल है ।
मुसीबत नहीं आती किसी का धर्म देखकर_
सम्भल जाओ ये तुम्हें लड़ाने की चाल है ।।
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स्वार्थ भरी राजनीति न किया करो ,
सत्कार्यों  का  मूल्य न लिया करो ।
जलती चिता में रोटियाँ सेंकने वालों_
क्षुद्र कीड़े सी जिंदगी न जिया करो ।।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


Monday, 24 February 2020

ग़ज़ल

मुकदमों की लगती इतनी ढेरी क्यों है ,
न्याय मिलने में लगती इतनी देरी क्यों है ।

उम्र बीत जाती है न्याय की आस में ,
अदालतों के दर पर लगती फेरी क्यों है ।

दाँव - पेंच लगा कर  दोषी छूट जाते ,
मासूम लगाता इंसाफ की टेरी क्यों है ।

सम हो  न्याय के हथौड़े की  टंकार  ,
इंसाफ में भेदभाव ,तेरी - मेरी क्यों है ।

हताश हो जाता है फरियादी यहाँ " दीक्षा ",
न्यायालय की गली सँकरी , अंधेरी क्यों है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 19 February 2020

बचत का महत्व ( संस्मरण )

 मेरे जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना जीवन में बचत के महत्व को सिद्ध करती है । मेरी मम्मी को फ़िल्म देखने का बहुत शौक था । हम छोटी जगह पर रहते थे तो वहाँ कोई टॉकीज नहीं था । फ़िल्म देखने के लिए उन्हें भाटापारा या बिलासपुर जाना पड़ता था । मुझे पहले फ़िल्म देखने का बिल्कुल शौक नहीं था उसकी बजाय मैं कहानियों की किताबें , पत्रिका वगैरह पढ़ना पसन्द करती थी । मैं फ़िल्म नहीं देखती थी पर टिकट के पैसे मम्मी से लेकर अपने पास जमा करती थी । मम्मी ने ही मुझे बचत करना सिखाया था कि अपने खर्चों को  कम करके बचाना ही असली बचत है । मैं बिल्कुल फिजूलखर्च नहीं थी , कभी जरूरत से अधिक कपड़ों , चूड़ी , ज्वेलरी खरीदने की जिद नहीं की । कपड़े भी मम्मी को जरूरत महसूस होती तो वह स्वयं लेती , हमने कभी जिद नहीं किया । पर अपने हिसाब की मैं एकदम पक्की थी , इस तरह छोटी - छोटी बचत मैं कई वर्षों से कर रही थी । जब हम लोगों का घर बना तो बहुत जरूरत के वक्त मैंने अपनी जमापूंजी मम्मी को दी तो उनके साथ पापा भी चकित हो गये और उनके चेहरे की खुशी स्पष्ट झलक रही थी । मुझे भी अच्छा लगा  कि मैंने अपनी ओर से अपने घर के निर्माण में योगदान दिया । उस खुशी ने हमेशा के लिए मुझे बचत का महत्व सिखा दिया और अभी भी घर - खर्च से बचत करके बड़ी रकम जमा होने के बाद  अपने किसी शौक में खर्च करने की बजाय मैं पतिदेव को सौंप देती हूँ ताकि वे उसे सही जगह उपयोग कर सकें । हमें उतना ही पैर पसारना चाहिए जितनी लम्बी अपनी चादर हो । जरूरत से अधिक खर्च करने की आदत लोगों को कर्ज के चक्रव्यूह में फँसा देती है जिससे बाहर आने में जिंदगी निकल जाती है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

यादों के सफ़र में

यादों के सफ़र में
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पत्ते तो झड़ गये पर ,
गुल खिल गये शज़र में ।
कुछ इस तरह  यूँ ही ,
आ गई वो मेरी नज़र में ।
अनजाने  ही  चल पड़ा मन ,
 फिर यादों के सफ़र में ।

शरारतों से भरी गलियाँ ,
गुजरा जहाँ बचपन  ।
साथ पाकर तुम्हारा ,
सुरभित  हुआ यौवन ।
लौट कर जब भी आया ,
चर्चा हुआ शहर में ।
अनजाने  ही चल पड़ा मन ,
फिर यादों के सफ़र में ।

वो नदी का किनारा ,
वक्त साथ जो गुजारा ।
गुलमोहर के लाल दरीचे ,
अपनी ओर मुझको खींचे ।
बहक  जाते थे दिल ,
महके हुए मंजर में ।
अनजाने ही चल पड़ा मन ,
फिर यादों के सफ़र में ।

एक - दूजे से किया वादा ,
हम दोनों न निभा पाये ।
मंजिल तो  एक थी पर ,
साथ- साथ चल न पाये ।
कहीं न कहीं तो मिलेंगे ,
हम जीवन की डगर में ।
अनजाने ही चल पड़ा मन ,
फिर यादों के सफ़र में ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़








Sunday, 16 February 2020

गजल

ग़ज़ल
काफ़िया - अंत
रदीफ़ - होगा
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 उपवन में कब बसन्त होगा ,
विपदाओं का कब अंत होगा ।
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पतझड़ के बाद फूटेंगे पल्लव ,
मृतप्राय देह कब जीवंत होगा ।
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जड़ों को सींचो फूल खिलेंगे ,
बाँटने से ही सुख अनन्त होगा ।
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अपने लिए जिये तो क्या जिये ,
परोपकार जो करे वह सन्त होगा ।
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जीवन में  सद्कर्म करो "दीक्षा " ,
नाम तुम्हारा मृत्युपर्यन्त होगा ।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़








मिल गया सब कुछ ( ,कहानी )

शशांक अपने पापा - मम्मी के साथ लड़की देखने गया था । लड़की वाले उसके  पापा के दोस्त के परिचित थे इसलिए उनकी उपस्थिति में  एक  शानदार होटल में मुलाकात रखी गई थी । लड़की  बैंक में नौकरी कर रही थी  , परिवार भी उच्च शिक्षित था  बात लगभग तय थी सिर्फ लड़के और लड़की को मिलाना था ताकि वे एक - दूसरे को  जान - समझ लें । कुछ पल की मुलाकात में एक -दूसरे के बारे में कितना जाना जा सकता है बस एक तसल्ली रहती  है कि देख लिये और उनका रिश्ता तय हो गया था । मना करने की कोई वजह ही नहीं थी सीमा दिखने में सुंदर , व्यवहार में शालीन लगी  तो शशांक ने फौरन हाँ कर दी । शीघ्र ही उनकी शादी हो गई ।
      विवाह की यह परम्परा दिखने में जितनी सरल लगती है उतनी है नहीं अपितु निभाने में उससे कई गुना अधिक जटिल है । दो भिन्न परिवेश, परिवार , संस्कार में पले  - बढ़े लोगों को सामंजस्य बिठाने में वक्त तो लगता है । दोनों परिवार के बड़ों को इसमें अपनी सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए , कोई एक भी गलत हुआ तो इस मधुर रिश्ते में दरार पड़ते देर नहीं लगती ।  मधुमास के दिन तो मानो पंख लगा कर उड़ गये , जब उन्होंने यथार्थ के ठोस धरातल पर पैर रखा तभी उनके जीवन की असली परीक्षा आरम्भ हुई । 
    दोनों ने अपनी - अपनी ड्यूटी जॉइन की  । घर पर सभी कार्यों के लिए नौकर थे पर उनके आने की समय - सीमा है तो सासु माँ ने सीमा को पहली जिम्मेदारी यही सौंपी कि अब से अपने पति यानि कि शशांक के लिए सुबह का टिफिन वह बना दिया करेगी बाकी और कुछ भी देखने की जरूरत नहीं है ,खाने व अन्य कार्यों की देखभाल वह स्वयं कर लिया करेंगी । शुरुआत में सीमा को अच्छा लगा सासु माँ ने अपना बेटा उसे सौंप दिया है तो वह खुशी से यह काम करने लगी  । बस सुबह का नाश्ता बना कर अपने और शशांक के लिए टिफिन रख लेती और वे दोनो अपने - अपने कार्यक्षेत्र में चले जाते । शाम को घर लौटकर कुछ देर आराम करते , कहीं घूमने चले जाते , लौटकर रात का खाना खाते और सो जाते । 
      सब कुछ अच्छा ही चल रहा था , शशांक के माता - पिता समझदार थे । कामकाजी बहू की जिम्मेदारी और सीमाओं को समझते हुए कभी उसे घर के नियमों में नहीं बाँधा और न ही उससे अधिक उम्मीद रखी कि बहू उनकी सेवा करे या उन्हें खाना बनाकर दे । पहले एक टाइम के लिए खाना बनाने के लिए उन्होंने कुक रखा था अब  दोनों टाइम के लिए रख लिया ताकि सास - बहू के रिश्ते में कोई तनाव न रहे । उसके मनचाहा कपड़ा पहनने पर भी उन्होंने कभी रोकटोक नहीं किया । घर में ये करो वो करो कभी नहीं कहा । सीमा अपनी इच्छा से जितना कर देती वे उसी में खुश रहते थे । सब कुछ अच्छा चल रहा था । रविवार सबकी छुट्टी रहती थी तो उस दिन शशांक की माँ कुछ स्पेशल जरूर बनाती थी । शुरू से ही इस दिन का नाश्ता वह स्वयं बनाया करती थी । सासु माँ को करते देख सीमा भी उनके साथ हाथ बंटाने आ जाती फिर चारों इकट्ठे ही नाश्ता करते । अब तो कई रविवार सीमा भी कुछ नया बनाने की कोशिश करती और सब मजे लेकर खाते । कभी प्रयोग सफल होता कभी असफल , सीखने में इतना रिस्क तो लेना ही  पड़ता है , कहकर पापा जी सीमा का पक्ष लेते तो उसे बड़ा अच्छा लगता ।
      तालाब का जल तब तक निर्मल रहता है जब तक उसमें कोई कंकड़ न फेंके । कोई पत्थर या  कंकड़ फेंकने पर तलहटी की सारी गंदगी ऊपर आ जाती है और समस्त जल को दूषित कर जाती है । कुछ ऐसा ही हुआ  जब सीमा की माँ का ट्रांसफर उसी  शहर में हो गया और वह अनायास ही उनके वैवाहिक जीवन में दखल देने लगी । सीमा को जब भी मौका मिलता वह अपनी मम्मी से मिलने चली जाती ।  पता नहीं वह क्या पट्टी पढ़ाने लगीं कि अब वह शशांक के प्रति लापरवाह होने लगी थी । टिफिन बनाने भी नहीं उठती - आज मम्मी को बोल दो न मैं सो रही हूँ या आज थोड़ी तबीयत ठीक नहीं है , कैंटीन में खा लेना कह देती । छुट्टी के दिन अपनी माँ के घर पर ही रहती  या अधिकतर समय अपने कमरे में ही रहती । मैं देर से खाती हूँ बोलकर परिवार के साथ खाना खाना भी उसने बन्द कर दिया था ।  वक्त गुजरता गया , अब वह एक बेटे की माँ बन चुकी थी परन्तु उसका व्यवहार अब भी वही था । पति - पत्नी के सम्बन्धों में खिंचाव दिखने लगा था । आधी रात को उनके बीच जोर - जोर से बहस होने की आवाजें आतीं , शशांक के माता - पिता चिंतित हो उठे थे । उन्हें समझ नहीँ आ रहा था कि आखिर किस बात पर लड़ते हैं ये दोनों क्योंकि  दोनों व्यस्त थे अपने कामों में । आज की भाग दौड़ भरी जिंदगी में इंसान के पास एक - दूसरे के लिए वक्त की ऐसी ही कमी है उसे भी ये प्यार से नहीं बिताते ।
      सीमा को  यह शिकायत हमेशा रहती कि शशांक अपनी माँ की बात अधिक सुनता है , परिवार के लिए अधिक समय देता है , इसी बात  पर अक्सर झगड़ पड़ती । वह स्वयं तो शशांक की कोई परवाह नहीं करती , उसकी ड्यूटी के समय तक उसके लिए तैयारी नहीं करती और न ही उसे इस बात से मतलब रहता कि शशांक ने खाना खाया है कि नहीं । उसके कपड़े , उसके आराम किसी चीज के लिए वह फिक्रमंद नहीं होती उल्टे उसकी माँ के लिए नाराज होती जो शशांक की फिक्र करती । अब भी शशांक अपनी माँ की ही बात अधिक मानता है , उन्हीं के पास अधिक रहता है , सीमा की एक ही शिकायत होती । एक माँ तो अपने बच्चे के लिए करेगी ही , जब बहू अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पा रही तो वह उसे कैसे उपेक्षित करे ।
           सीमा अपने पति की एक भी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं थी लेकिन अपना पूरा अधिकार चाहती थी । वह तो कई बार अपने बेटे को भी इग्नोर कर देती , उसे सबसे पहले अपना स्वार्थ , अपनी सुख - सुविधा दिखती थी । इसके आगे उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता था । वह अपने बच्चे को भी घर के सदस्यों के पास न छोड़कर  आया के पास या अपनी मम्मी के पास छोड़ना पसन्द करती थी । इस तरह वह उन्हें आहत करने की कोशिश करती और अपनी नाराजगी जताती । उसे कभी भी एहसास नहीं हुआ कि वह गलत है । हम जिस रंग का चश्मा पहनते हैं सारी दुनिया हमें उसी रंग में रंगी नजर आती है वैसे ही वह अपने आपको कभी गलत नहीं मानती थी । घर के खर्चों में भी उसने कभी अपना सहयोग नहीं किया उसे सिर्फ अपने लिए ही खर्च किया । शायद उसकी यही धारणा थी कि वह कामकाजी है तो उसे और कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है । आप कितने भी नौकर रख लें पर एक माँ , पत्नी या किसी भी रूप में किसी के लिए कुछ करना उसके प्रति अपनी परवाह , फिक्र को दिखाना होता है । यही परवाह , अपनापन ही तो एक मकान को घर बनाता है । सबकी जरूरतों का ख्याल रखने में एक गृहणी को जो सन्तुष्टि मिलती है , उस सुख को कहीं और ढूंढा नहीं जा सकता । जो इस बात को समझ नहीं पाते वही इसे अपने पैरों की बेड़ियाँ मान इधर - उधर भटकते हैं और इस खुशी से वंचित रहते हैं । समानता की यह परिभाषा नहीं है कि  पुरूष जैसे ही स्त्री भी बेफिक्र घूमे ,उस पर घर की कोई जिम्मेदारी न रहे ।स्त्री गृहस्थ जीवन की धुरी है , उसके स्नेह और संस्कारों से ही घर घर बनता है । उसके रहते ही तीज - त्यौहार हैं , उचित व्यवस्था है । उसे कामकाजी होते हुए यह निभाना ही होगा और लाखों औरतें ऐसा कर रही हैं । घर और नौकरी दोनों के बीच संतुलन बनाते हुए अपनी जिम्मेदारियाँ बखूबी निभा रही हैं । सीमा स्वयं अपनी माँ के साथ रहती और शशांक से यह उम्मीद रखती कि वह अपनी माँ , अपने परिवार को छोड़कर अलग रहे परन्तु वह कोई जिम्मेदारी भी निभाना नहीं चाहती थी तो शशांक किस आधार पर उसे लेकर अलग रहता जबकि उसको मालूम था कि वहाँ जाकर भी सीमा कुछ नहीं करने वाली । वह स्वयं बहुत परेशान होने वाला है और उसे ही अपनी और अपने बेटे की देखभाल करनी पड़ेगी । सीमा की गैर - जिम्मेदारी ने उसे दुःखी कर दिया था और वह कोई भी निर्णय लेने में असमर्थ था । बच्चे के मोह ने उसे बाँध रखा था इसलिए वह सीमा को छोड़ भी नहीं सकता था । उसके आगे साँप - छछून्दर वाली स्थिति थी न खाते बने न उगलते । 
    शशांक के कुछ दोस्तों ने उसे मम्मी - पापा से अलग रहने का सुझाव दिया । क्या पता पूरी जिम्मेदारी अपने सिर पर आने पर उसके व्यवहार में बदलाव आ जाय परन्तु शशांक का मन बिल्कुल नहीं था कि वह अपने परिवार से अलग हो । आखिर उनके प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारी है , उम्र के इस मोड़ पर उन्हें मेरे साथ की जरूरत है मैं उन्हें कैसे छोड़ दूं । उसके मन में बस यही दुविधा थी । मम्मी - पापा दोनों उसकी मनःस्थिति समझ रहे थे और वे यही चाहते थे कि उनका बेटा खुश रहे चाहे वह कहीं भी रहे । उन्होंने ही जिद कर शशांक को नया घर दिलवाया और वहाँ शिफ्ट होने को कहा । माता - पिता जीवन भर अपनी खुशी से पहले अपने सन्तान की खुशी देखते हैं , यह बात शायद सीमा और उसकी माँ कभी समझ नहीं पाये । बहुत दुखी होकर शशांक अलग हुआ हालांकि वह जानता था कि इंसान की प्रवृत्ति जगह बदलने पर नहीं बदलती । यदि  उसके परिवार के साथ रहकर सीमा के मन में उनके लिए अपनापन नहीं जागा तो अलग होने के बाद भी क्या फ़र्क पडेगा । उसकी दिनचर्या बस वैसे ही चलती रही । सीमा  कभी यहाँ कभी मायके में रहती ,  घर अस्त - व्यस्त फैला रहता । शशांक ने उसे टोकना छोड़ दिया था , उसकी जो मर्जी होती वह करती । बेटा अब  बड़ा हो रहा था इसलिए उसके आगे पति - पत्नी के बीच वाद - विवाद की स्थिति न आये वह ऐसा प्रयास करता ।
        कुछ वर्षों के पश्चात सीमा के इकलौते भाई की शादी हुई , परिस्थितियाँ अब वैसी नहीं रहीं जैसी  पहले थी । सीमा की माँ की उम्र अधिक होने के कारण वह कमजोर हो गई थी , अब बहू के आने पर वह उसके क्रियाकलापों में रोकटोक नहीं करती थी । सीमा अपने - आपको वहाँ उपेक्षित महसूस करने लगी थी । माँ अपनी बहू को उससे अधिक महत्व देती है , यह बात उसे पीड़ा पहुँचाती थी । उस घर में पहला अधिकार वह अपना समझती आई थी परन्तु अब यह उपेक्षा उसे खटक रही थी । दूसरी बात माँ उसे ससुराल में व्यवहार को लेकर जिन बातों के लिए हिदायत देती थी , अपनी बहू के लिए वही बात नहीं  सोचती थी । बेटी को कभी ससुराल वालों से सामंजस्य स्थापित करना उन्होंने नहीं सिखाया पर अपनी बहू से उनकी यही उम्मीद थी कि वह यहाँ सबसे घुल - मिलकर रहे । अपने मायके अधिक न जाये । कई बार अपनी भाभी का सास ( माँ ) के साथ  इतनी नजदीकी उसे विचलित कर देती , उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा था पर अब बहुत देर हो चुकी थी । उन्होंने कितने प्यार से उसे अपनाया था , वह खुद ही उनसे दूर हो गई । रिश्तों के बीच खुद उसने इतनी बड़ी खाई खोद दी थी  ,अब वह पछताने के अलावा कुछ नहीं कर सकती थी । जीवन के इस मोड़ पर वह अपने - आपको बहुत अकेला महसूस कर रही थी , सुख - सुविधाओं का अभाव नहीं था पर उसकी खुशियों में शामिल होने वाला कोई नहीं था । शशांक को उसके परिवार से अलग कर उसे भी बहुत पीड़ा दी थी इसलिए वह उसकी भी गुनहगार थी । अब किस मुँह से वह उनके पास जाए । सीमा की आँखों  से अनवरत आँसू बह रहे थे , अचानक उसकी आँखों के आगे अंधकार सा छा गया और जब उसकी आँखें खुली तो वह अस्पताल में बिस्तर पर लेटी थी । उसके पास शशांक के मम्मी - पापा , भाई , शशांक और उसका बेटा चिंतित से खड़े थे । उसके आँख खोलते ही सबके चेहरे खिल उठे थे । भीगी आँखों और अवरुद्ध कण्ठ से सीमा ने अपने दोनों हाथ जोड़कर उनसे अपनी गलतियों की माफी माँग ली थी और अपना खोया परिवार फिर से पा लिया था । अब उसे सब कुछ मिल गया था ।
     
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
      

मेरे खयालों में रहने लगे

प्रीत सितारों से हो गई है , 
नजारे भी अपने लगने लगे ।
दिल में बस गई सूरत  तेरी  ,
 मेरे खयालों में रहने लगे ।।

जिंदगी हसीन लगने लगी ,
 ख़्वाब आँखों में सजने लगे ।
दुनिया नई सी लगने लगी  ,
सतरंगी सपने पलने लगे ।।

उमंगों भरी उड़ान है मेरी , 
सपनों के पर लगने लगे ।
भूलने लगी खुद को मैं , 
 आँखों में तुम दिखने लगे ।।

खुशियों से भीगा सारा बदन , 
कानों में संगीत बजने लगे  ।
महका हुआ लगा ये चमन , 
फूल भी संग- संग हँसने लगे ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़






बयासी साल का जवान दोस्त (संस्मरण )

एक सच्चा दोस्त मिलना जिंदगी का सबसे खूबसूरत उपहार होता है ।  उस दिन मैं डेंटिस्ट के पास गई थी । काफी भीड़ थी , अपनी बारी का  इंतजार करते हुए मैं वहाँ बैठे लोगों  के चेहरे पढ़ रही थी । हमारे आस - पास न जाने कितनी कहानियाँ साँस लेती रहती हैं बस उन्हें ध्यान से सुनने की आवश्यकता होती है । ऐसे ही एक मजेदार व्यक्ति मिले , मैं उनसे बातें करती रही । वे भी मेरे बारे में उत्सुकता से पूछ रहे थे कि मेरी शिक्षा और व्यवसाय क्या है , निवास , परिवार इत्यादि । मुझे लगा वे अपने इलाज के लिए ही आये होंगे । एक बुजुर्ग जिनकी उम्र अस्सी वर्ष की थी उन्हें डॉक्टर ने बुलाया । उनका दाँत तोड़ना था तो डॉक्टर ने उनके अटेंडेंट को बुलाया क्योंकि दाँत तोड़ने के बाद कई बार चक्कर आता है या थोड़ी कमजोरी महसूस होती है तो साथ में परिवार के एक सदस्य को रहना जरूरी होता है । डॉक्टर के बुलाने पर वे अंकल  जिनसे मैं बात कर रही थी  - " मैं उनके साथ आया हूँ बोलकर अंदर गये "। फिर हँसते हुए बाहर आये , आते ही मुझसे बोले - "डॉक्टर साहब पूछ रहे थे आप इनके साथ आये हैं इनकी उम्र कितनी है । मैं बोला - "अस्सी साल "। फिर डॉक्टर मुझसे पूछे - " आपकी उम्र क्या है ? " मैं बोला बयासी साल । ये मेरा दोस्त है । डॉक्टर हँसने लगे - " आप इनको अच्छे से ले जायेंगे । मैं बोला - " हाँ इसीलिए तो आया हूँ । " डॉक्टर बोले - ठीक है फिर आप बाहर बैठिये ।             
         यह बात कहते हुए उस बयासी वर्ष के बुजुर्ग के चेहरे पर जवानों- सा आत्म विश्वास था और उनकी यही खूबी उनकी ताकत थी । मुझे उनके अस्सी वर्ष के दोस्त के विश्वास पर भी गर्व हुआ जो उनके भरोसे अस्पताल आये थे । कहाँ हम साठ वर्ष होते ही अपने बड़ों को आराम करने की सलाह देने लगते हैं लेकिन उनकी जिंदादिली , आत्मविश्वास बनाये रखना चाहिए ताकि उनमें जीने का जज़्बा बना रहे । वे सक्रियता व चुस्ती - फुर्ती के साथ जिंदगी का जश्न मनाते रहें । वो बयासी वर्ष के बुजुर्ग ..नहीं नहीं जवान दोस्त मेरे यादों के पिटारे में अपनी विशेष जगह बना गये हैं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

अस्तित्व ( लघुकथा )

आज  रमा बेहद  उदास थी । कभी - कभी लगता है कि सब अपने - अपने कार्यों में ही व्यस्त रहते हैं और वह अपने आपको उपेक्षित सी महसूस करती है । वह सबकी व्यवस्था में लगी रहती है  उनकी सुविधाओं का ध्यान रखती है , उनकी पसंद के अनुसार खाना बनाती है और यह सब करना उसे अच्छा भी लगता है । लेकिन कभी उसकी भी बात होनी चाहिए न ! कभी उसके परिवार के सदस्यों को उसकी पसन्द का ध्यान आना चाहिए बस यही बात उसे परेशान किये जा रही थी । उस दिन बाई उसे बिना बताये छुट्टी मार दी थी तो उसे बहुत परेशानी हुई । उसके आने के बाद शिकायत करने पर उसने जो कहा रमा की आँख खोलने के लिए वह काफी था -"नई आंव तभे पता चलथे न मेहर कतना बुता करथंव " अगले दिन रमा बिस्तर पर लेटी हुई थी और सारा घर उसकी तीमारदारी में जुटा हुआ था कि माँ के बिना तो पूरा घर अस्त - व्यस्त हो जाता है । एक दिन की छुट्टी लेकर उसने भी सबको अपने अस्तित्व का ज्ञान करा दिया था ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

सजल - 9

सजल - 9
समांत - आद
पदांत - करता है
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नादान है ये दिल तुम्हें ही याद करता है ,
घड़ी - घड़ी मिलने की फरियाद करता है ।

 खूबसूरत बहुत होते हैं नागफनी के फूल ,
सफर काँटों का मंजिल आबाद करता है ।

आवाज ऊँची करने से सच झूठ नहीं बनता ,
झूठ को सच बनाने व्यर्थ विवाद करता है ।

कुछ भाव शब्दों में अभिव्यक्त नहीं हो पाते ,
मौन भी कभी - कभी  संवाद करता है ।

सोच को अपनी कभी कमजोर मत करना ,
 इरादों की गहराई मजबूत बुनियाद करता है ।

मकड़जाल हैं ये इनसे बचकर रहना ,
दुर्व्यसन  जीवन को सदा बर्बाद करता है ।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़







Friday, 14 February 2020

प्रेम है ना❤️❤️

प्रेम है ना !❤️ !
भीगी आँखों पे पलकों के साये
टूटे दिल पे रखे प्यार के फाहे
नर्म होठों से चूम कर माथा
बाहें घेर कर तसल्ली दिलाये
प्रेम है ना !
हँसते अधरों के बीच भी
पढ़ लेते नम निगाहें
सीने से लगकर जी भर रो लें
दर्द जहाँ जाकर सुकून पाये
प्रेम है ना !
जीवन में सुख - दुःख के हिंडोले
नैया डगमग- डगमग डोले
लड़खड़ाए जहाँ कदम मेरे
दौड़कर तुम थामने आये
प्रेम है ना !
ध्यान रखते कितना मेरा
पूरी करते छोटी- बड़ी चाहें
सुख के कितने निर्मल झोंके
गृहस्थ जीवन में आये - जाये
प्रेम है ना !
❤️❤️
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

अमर शहीद

इतिहास में अपना नाम महान कर गये ,
वे अपनी जान देश पर कुर्बान कर गये ।

धन्य हैं वे माँएँ जिनने इन्हें जन्म दिया ,
देश के नाम  वे जिस्मो- जान कर गये ।

देश की रक्षा का वादा माँ से किया था ,
शहीद होकर वर्दी का सम्मान कर गये ।

तिरंगे झंडे में लिपटकर ही लौटे वे ,
लहू से माँ भारती का गुणगान कर गये ।

याद कर उनको न अश्रु बहाना " दीक्षा ",
वीरता को वे अपनी पहचान कर गये ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


Wednesday, 5 February 2020

सजल - 6

समांत - अरी
पदांत - है
मात्राभार - 18
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रंग - बिरंगी धरा हरी भरी है
कुदरत की अनूठी कारीगरी है
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लोगों की भीड़ में अपना कोई 
जो परख सके वो जौहरी है 
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रंक को राजा बना दे पल में
विधाता की यह बाजीगरी है
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निर्मल हो जाता है मन उनका
बात जो  करते  खरी - खरी  है
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कह देती मन की हर पीर " दीक्षा "
मेरी सखी बन गई शायरी है
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 4 February 2020

सजल - 7

सजल
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समांत - अरा
पदांत - होगा
मात्राभार - 21
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वक्त  वहीं उसी मोड़ पर ठहरा होगा
मन पर यादों का सख्त पहरा होगा 
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छलक  रहा है दर्द जो आँखों से 
दिल का घाव अब भी हरा होगा 
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याद आते ही भीग जाती हैं पलकें
असर जुदाई का सच में गहरा होगा
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कसौटियों में कस ले जो चाहे जिंदगी
स्वर्ण अग्नि में तपकर ही खरा होगा
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बाहरी लोगों पर नजर रखा " दीक्षा "
कहाँ सोचा था अपनों से खतरा होगा
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 3 February 2020

ग़ज़ल

काफ़िया - अना
रदीफ़ - सीखा है
मात्राभार - 16

फूलों से हँसना सीखा है ,
काँटों से लड़ना सीखा है ।

बाधाएँ डिगा न पायेंगी ,
पहाड़ों से अड़ना सीखा है ।

अंधेरों की मुझे फिक्र नहीं ,
दीपक से जलना सीखा है ।

मंजिल से पहले रुकना नहीं ,
सूरज से चलना सीखा है ।

आँधियाँ उखाड़ न पायेंगी ,
तृणों से झुकना सीखा है ।

पथरीली राहों पर चलकर ,
लक्ष्य तक पहुँचना सीखा है ।

हौसला बना रखना " दीक्षा",
पंछियों से उड़ना सीखा है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 1 February 2020

मुक्तक

चेहरा तो दर्पण है सच ही दिखलाता है ,
जब दिल में हो खुशियाँ तब मुस्कुराता है ।
       या
चेहरा तो दर्पण है सच ही दिखलाता है ,
जब खुशियाँ हों मन में तब मुस्कुराता है ।
असहनीय जब हो जाती वेदना मन की _
नयन सेअश्रुजल आप ही छलक जाता है ।।
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परिश्रम जरूरत से ज्यादा कर लिया हमने ,
अपने - आप से यह वादा कर लिया हमने ।
बाधाओं के आगे झुकेंगे नहीं कभी अब_
जीत का पक्का इरादा कर लिया हमने ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़



सजल - 5

सजल
समांत  - अय 
पदांत - हो
मात्राभार - 23
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राष्ट्र की अखण्डता  का मापदंड  तय हो
एकता की उदधि में जाति धर्म का* विलय हो 
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नींद , चैन त्यागते सीमा के जो प्रहरी 
राष्ट्र समर्पित वीर सैनिकों की जय हो 
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दीमक की तरह खोखला करते देश को
कमजोर करती हुई  ताकतों का क्षय हो
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देश की भक्ति दौड़े जन - जन के रगों में 
भुजा हो बलशाली  पर मन सहृदय हो 
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मेरे देश की माटी  महके चन्दन  सी 
गूंजे गीत सद्भाव के* एकता की लय हो 
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़