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पत्ते तो झड़ गये पर ,
गुल खिल गये शज़र में ।
कुछ इस तरह यूँ ही ,
आ गई वो मेरी नज़र में ।
अनजाने ही चल पड़ा मन ,
फिर यादों के सफ़र में ।
शरारतों से भरी गलियाँ ,
गुजरा जहाँ बचपन ।
साथ पाकर तुम्हारा ,
सुरभित हुआ यौवन ।
लौट कर जब भी आया ,
चर्चा हुआ शहर में ।
अनजाने ही चल पड़ा मन ,
फिर यादों के सफ़र में ।
वो नदी का किनारा ,
वक्त साथ जो गुजारा ।
गुलमोहर के लाल दरीचे ,
अपनी ओर मुझको खींचे ।
बहक जाते थे दिल ,
महके हुए मंजर में ।
अनजाने ही चल पड़ा मन ,
फिर यादों के सफ़र में ।
एक - दूजे से किया वादा ,
हम दोनों न निभा पाये ।
मंजिल तो एक थी पर ,
साथ- साथ चल न पाये ।
कहीं न कहीं तो मिलेंगे ,
हम जीवन की डगर में ।
अनजाने ही चल पड़ा मन ,
फिर यादों के सफ़र में ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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