विवाह की यह परम्परा दिखने में जितनी सरल लगती है उतनी है नहीं अपितु निभाने में उससे कई गुना अधिक जटिल है । दो भिन्न परिवेश, परिवार , संस्कार में पले - बढ़े लोगों को सामंजस्य बिठाने में वक्त तो लगता है । दोनों परिवार के बड़ों को इसमें अपनी सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए , कोई एक भी गलत हुआ तो इस मधुर रिश्ते में दरार पड़ते देर नहीं लगती । मधुमास के दिन तो मानो पंख लगा कर उड़ गये , जब उन्होंने यथार्थ के ठोस धरातल पर पैर रखा तभी उनके जीवन की असली परीक्षा आरम्भ हुई ।
दोनों ने अपनी - अपनी ड्यूटी जॉइन की । घर पर सभी कार्यों के लिए नौकर थे पर उनके आने की समय - सीमा है तो सासु माँ ने सीमा को पहली जिम्मेदारी यही सौंपी कि अब से अपने पति यानि कि शशांक के लिए सुबह का टिफिन वह बना दिया करेगी बाकी और कुछ भी देखने की जरूरत नहीं है ,खाने व अन्य कार्यों की देखभाल वह स्वयं कर लिया करेंगी । शुरुआत में सीमा को अच्छा लगा सासु माँ ने अपना बेटा उसे सौंप दिया है तो वह खुशी से यह काम करने लगी । बस सुबह का नाश्ता बना कर अपने और शशांक के लिए टिफिन रख लेती और वे दोनो अपने - अपने कार्यक्षेत्र में चले जाते । शाम को घर लौटकर कुछ देर आराम करते , कहीं घूमने चले जाते , लौटकर रात का खाना खाते और सो जाते ।
सब कुछ अच्छा ही चल रहा था , शशांक के माता - पिता समझदार थे । कामकाजी बहू की जिम्मेदारी और सीमाओं को समझते हुए कभी उसे घर के नियमों में नहीं बाँधा और न ही उससे अधिक उम्मीद रखी कि बहू उनकी सेवा करे या उन्हें खाना बनाकर दे । पहले एक टाइम के लिए खाना बनाने के लिए उन्होंने कुक रखा था अब दोनों टाइम के लिए रख लिया ताकि सास - बहू के रिश्ते में कोई तनाव न रहे । उसके मनचाहा कपड़ा पहनने पर भी उन्होंने कभी रोकटोक नहीं किया । घर में ये करो वो करो कभी नहीं कहा । सीमा अपनी इच्छा से जितना कर देती वे उसी में खुश रहते थे । सब कुछ अच्छा चल रहा था । रविवार सबकी छुट्टी रहती थी तो उस दिन शशांक की माँ कुछ स्पेशल जरूर बनाती थी । शुरू से ही इस दिन का नाश्ता वह स्वयं बनाया करती थी । सासु माँ को करते देख सीमा भी उनके साथ हाथ बंटाने आ जाती फिर चारों इकट्ठे ही नाश्ता करते । अब तो कई रविवार सीमा भी कुछ नया बनाने की कोशिश करती और सब मजे लेकर खाते । कभी प्रयोग सफल होता कभी असफल , सीखने में इतना रिस्क तो लेना ही पड़ता है , कहकर पापा जी सीमा का पक्ष लेते तो उसे बड़ा अच्छा लगता ।
तालाब का जल तब तक निर्मल रहता है जब तक उसमें कोई कंकड़ न फेंके । कोई पत्थर या कंकड़ फेंकने पर तलहटी की सारी गंदगी ऊपर आ जाती है और समस्त जल को दूषित कर जाती है । कुछ ऐसा ही हुआ जब सीमा की माँ का ट्रांसफर उसी शहर में हो गया और वह अनायास ही उनके वैवाहिक जीवन में दखल देने लगी । सीमा को जब भी मौका मिलता वह अपनी मम्मी से मिलने चली जाती । पता नहीं वह क्या पट्टी पढ़ाने लगीं कि अब वह शशांक के प्रति लापरवाह होने लगी थी । टिफिन बनाने भी नहीं उठती - आज मम्मी को बोल दो न मैं सो रही हूँ या आज थोड़ी तबीयत ठीक नहीं है , कैंटीन में खा लेना कह देती । छुट्टी के दिन अपनी माँ के घर पर ही रहती या अधिकतर समय अपने कमरे में ही रहती । मैं देर से खाती हूँ बोलकर परिवार के साथ खाना खाना भी उसने बन्द कर दिया था । वक्त गुजरता गया , अब वह एक बेटे की माँ बन चुकी थी परन्तु उसका व्यवहार अब भी वही था । पति - पत्नी के सम्बन्धों में खिंचाव दिखने लगा था । आधी रात को उनके बीच जोर - जोर से बहस होने की आवाजें आतीं , शशांक के माता - पिता चिंतित हो उठे थे । उन्हें समझ नहीँ आ रहा था कि आखिर किस बात पर लड़ते हैं ये दोनों क्योंकि दोनों व्यस्त थे अपने कामों में । आज की भाग दौड़ भरी जिंदगी में इंसान के पास एक - दूसरे के लिए वक्त की ऐसी ही कमी है उसे भी ये प्यार से नहीं बिताते ।
सीमा को यह शिकायत हमेशा रहती कि शशांक अपनी माँ की बात अधिक सुनता है , परिवार के लिए अधिक समय देता है , इसी बात पर अक्सर झगड़ पड़ती । वह स्वयं तो शशांक की कोई परवाह नहीं करती , उसकी ड्यूटी के समय तक उसके लिए तैयारी नहीं करती और न ही उसे इस बात से मतलब रहता कि शशांक ने खाना खाया है कि नहीं । उसके कपड़े , उसके आराम किसी चीज के लिए वह फिक्रमंद नहीं होती उल्टे उसकी माँ के लिए नाराज होती जो शशांक की फिक्र करती । अब भी शशांक अपनी माँ की ही बात अधिक मानता है , उन्हीं के पास अधिक रहता है , सीमा की एक ही शिकायत होती । एक माँ तो अपने बच्चे के लिए करेगी ही , जब बहू अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पा रही तो वह उसे कैसे उपेक्षित करे ।
सीमा अपने पति की एक भी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं थी लेकिन अपना पूरा अधिकार चाहती थी । वह तो कई बार अपने बेटे को भी इग्नोर कर देती , उसे सबसे पहले अपना स्वार्थ , अपनी सुख - सुविधा दिखती थी । इसके आगे उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता था । वह अपने बच्चे को भी घर के सदस्यों के पास न छोड़कर आया के पास या अपनी मम्मी के पास छोड़ना पसन्द करती थी । इस तरह वह उन्हें आहत करने की कोशिश करती और अपनी नाराजगी जताती । उसे कभी भी एहसास नहीं हुआ कि वह गलत है । हम जिस रंग का चश्मा पहनते हैं सारी दुनिया हमें उसी रंग में रंगी नजर आती है वैसे ही वह अपने आपको कभी गलत नहीं मानती थी । घर के खर्चों में भी उसने कभी अपना सहयोग नहीं किया उसे सिर्फ अपने लिए ही खर्च किया । शायद उसकी यही धारणा थी कि वह कामकाजी है तो उसे और कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है । आप कितने भी नौकर रख लें पर एक माँ , पत्नी या किसी भी रूप में किसी के लिए कुछ करना उसके प्रति अपनी परवाह , फिक्र को दिखाना होता है । यही परवाह , अपनापन ही तो एक मकान को घर बनाता है । सबकी जरूरतों का ख्याल रखने में एक गृहणी को जो सन्तुष्टि मिलती है , उस सुख को कहीं और ढूंढा नहीं जा सकता । जो इस बात को समझ नहीं पाते वही इसे अपने पैरों की बेड़ियाँ मान इधर - उधर भटकते हैं और इस खुशी से वंचित रहते हैं । समानता की यह परिभाषा नहीं है कि पुरूष जैसे ही स्त्री भी बेफिक्र घूमे ,उस पर घर की कोई जिम्मेदारी न रहे ।स्त्री गृहस्थ जीवन की धुरी है , उसके स्नेह और संस्कारों से ही घर घर बनता है । उसके रहते ही तीज - त्यौहार हैं , उचित व्यवस्था है । उसे कामकाजी होते हुए यह निभाना ही होगा और लाखों औरतें ऐसा कर रही हैं । घर और नौकरी दोनों के बीच संतुलन बनाते हुए अपनी जिम्मेदारियाँ बखूबी निभा रही हैं । सीमा स्वयं अपनी माँ के साथ रहती और शशांक से यह उम्मीद रखती कि वह अपनी माँ , अपने परिवार को छोड़कर अलग रहे परन्तु वह कोई जिम्मेदारी भी निभाना नहीं चाहती थी तो शशांक किस आधार पर उसे लेकर अलग रहता जबकि उसको मालूम था कि वहाँ जाकर भी सीमा कुछ नहीं करने वाली । वह स्वयं बहुत परेशान होने वाला है और उसे ही अपनी और अपने बेटे की देखभाल करनी पड़ेगी । सीमा की गैर - जिम्मेदारी ने उसे दुःखी कर दिया था और वह कोई भी निर्णय लेने में असमर्थ था । बच्चे के मोह ने उसे बाँध रखा था इसलिए वह सीमा को छोड़ भी नहीं सकता था । उसके आगे साँप - छछून्दर वाली स्थिति थी न खाते बने न उगलते ।
शशांक के कुछ दोस्तों ने उसे मम्मी - पापा से अलग रहने का सुझाव दिया । क्या पता पूरी जिम्मेदारी अपने सिर पर आने पर उसके व्यवहार में बदलाव आ जाय परन्तु शशांक का मन बिल्कुल नहीं था कि वह अपने परिवार से अलग हो । आखिर उनके प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारी है , उम्र के इस मोड़ पर उन्हें मेरे साथ की जरूरत है मैं उन्हें कैसे छोड़ दूं । उसके मन में बस यही दुविधा थी । मम्मी - पापा दोनों उसकी मनःस्थिति समझ रहे थे और वे यही चाहते थे कि उनका बेटा खुश रहे चाहे वह कहीं भी रहे । उन्होंने ही जिद कर शशांक को नया घर दिलवाया और वहाँ शिफ्ट होने को कहा । माता - पिता जीवन भर अपनी खुशी से पहले अपने सन्तान की खुशी देखते हैं , यह बात शायद सीमा और उसकी माँ कभी समझ नहीं पाये । बहुत दुखी होकर शशांक अलग हुआ हालांकि वह जानता था कि इंसान की प्रवृत्ति जगह बदलने पर नहीं बदलती । यदि उसके परिवार के साथ रहकर सीमा के मन में उनके लिए अपनापन नहीं जागा तो अलग होने के बाद भी क्या फ़र्क पडेगा । उसकी दिनचर्या बस वैसे ही चलती रही । सीमा कभी यहाँ कभी मायके में रहती , घर अस्त - व्यस्त फैला रहता । शशांक ने उसे टोकना छोड़ दिया था , उसकी जो मर्जी होती वह करती । बेटा अब बड़ा हो रहा था इसलिए उसके आगे पति - पत्नी के बीच वाद - विवाद की स्थिति न आये वह ऐसा प्रयास करता ।
कुछ वर्षों के पश्चात सीमा के इकलौते भाई की शादी हुई , परिस्थितियाँ अब वैसी नहीं रहीं जैसी पहले थी । सीमा की माँ की उम्र अधिक होने के कारण वह कमजोर हो गई थी , अब बहू के आने पर वह उसके क्रियाकलापों में रोकटोक नहीं करती थी । सीमा अपने - आपको वहाँ उपेक्षित महसूस करने लगी थी । माँ अपनी बहू को उससे अधिक महत्व देती है , यह बात उसे पीड़ा पहुँचाती थी । उस घर में पहला अधिकार वह अपना समझती आई थी परन्तु अब यह उपेक्षा उसे खटक रही थी । दूसरी बात माँ उसे ससुराल में व्यवहार को लेकर जिन बातों के लिए हिदायत देती थी , अपनी बहू के लिए वही बात नहीं सोचती थी । बेटी को कभी ससुराल वालों से सामंजस्य स्थापित करना उन्होंने नहीं सिखाया पर अपनी बहू से उनकी यही उम्मीद थी कि वह यहाँ सबसे घुल - मिलकर रहे । अपने मायके अधिक न जाये । कई बार अपनी भाभी का सास ( माँ ) के साथ इतनी नजदीकी उसे विचलित कर देती , उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा था पर अब बहुत देर हो चुकी थी । उन्होंने कितने प्यार से उसे अपनाया था , वह खुद ही उनसे दूर हो गई । रिश्तों के बीच खुद उसने इतनी बड़ी खाई खोद दी थी ,अब वह पछताने के अलावा कुछ नहीं कर सकती थी । जीवन के इस मोड़ पर वह अपने - आपको बहुत अकेला महसूस कर रही थी , सुख - सुविधाओं का अभाव नहीं था पर उसकी खुशियों में शामिल होने वाला कोई नहीं था । शशांक को उसके परिवार से अलग कर उसे भी बहुत पीड़ा दी थी इसलिए वह उसकी भी गुनहगार थी । अब किस मुँह से वह उनके पास जाए । सीमा की आँखों से अनवरत आँसू बह रहे थे , अचानक उसकी आँखों के आगे अंधकार सा छा गया और जब उसकी आँखें खुली तो वह अस्पताल में बिस्तर पर लेटी थी । उसके पास शशांक के मम्मी - पापा , भाई , शशांक और उसका बेटा चिंतित से खड़े थे । उसके आँख खोलते ही सबके चेहरे खिल उठे थे । भीगी आँखों और अवरुद्ध कण्ठ से सीमा ने अपने दोनों हाथ जोड़कर उनसे अपनी गलतियों की माफी माँग ली थी और अपना खोया परिवार फिर से पा लिया था । अब उसे सब कुछ मिल गया था ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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