Saturday, 28 March 2020

सजल - 18

समां त - ओला 
पदांत -  है
मात्रा भार - 15
मात्रा पतन - *
❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️
शबनम नहीं यह शोला है
प्रेम एक आग का गोला है
❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️
मन मिले तो रूप - रंग क्या
झूठा यह* तन का चोला है
❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️
नेकी पर दुनिया यह टिकी 
 सन्मार्ग से क्यों डोला है
❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️
खुशी कहीं है गम कहीं पर
जीवन तो एक हिंडोला है
❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️
दिल में प्रिय की मूरत बसी 
आँखों  ने  राज खोला  है
❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़









Tuesday, 24 March 2020

कोरोना

कोरोना

कहते हैं मनुष्य को अपने बुरे कर्मों का
 फल यहीं भुगतना पड़ता है
बहुत किया प्रकृति से छेड़छाड़
वनों का विनाश,असन्तुलित पर्यावरण।
रसायनों का अधिकाधिक  प्रयोग
वायु  , जल , मिट्टी का प्रदूषण।
अत्याधुनिक हथियार , 
अस्त्र - शस्त्र , सुरक्षा के औजार  ।
कल - कारखाने  ।
वो चाँद , ग्रहों की सैर
चमचमाते शहर , बड़ी - बड़ी बिल्डिंग
मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर
यही है ना तरक्की के पैमाने ।
कहाँ हैं ये सब 
आते क्यों नहीं 
मानव  अस्तित्व बचाने ।
अब तो मिल गये  होंगे न तुम्हें ,
अपने सारे सवालों  के  जवाब ।
तुम कुछ भी नहीं हो
उस ईश्वरीय सत्ता के आगे
वो ,उसकी व्यवस्था है लाजवाब।
प्रकृति का दोहन किया तुमने बेहिसाब।
मौत के आगे तुम हो जाते ,
बेबस , लाचार ।
अब तो सुधार लो ,
अपने आचार - विचार , व्यवहार ।
बाढ़ ,तूफान , महामारी , संक्रमण 
ये हैं सिर्फ रूप उसकी  चेतावनी के
मानव ! सुधर , समझ
 तरक्की की अंधाधुंध दौड़ में 
विनाश बन्द करना होगा ।
विज्ञान और पर्यावरण में ,
सन्तुलन रखना होगा ।
अपने अस्तित्व को बचाने ,
प्रकृति के साथ चलना होगा ।
अपनी महत्वाकांक्षाओं पर,
 लगाम कसना होगा ।
बिगड़ा नहीं अभी कुछ
वक्त है अभी भी बहुत ,
मानव तुम्हें सम्भलना होगा
सृष्टि को बचाने ,
तुम्हें सम्भलना ही होगा ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 23 March 2020

जनता कर्फ्यू और शंखनाद

बाइस मार्च ....आज की सुबह उठी तो मन में एक संशय था हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री द्वारा आहूत किया गया जनता कर्फ्यू अभियान सफल होगा कि नहीं परन्तु जैसे ही आँगन में आई सारे संशय उसी तरह मिट गये जैसे धूप के निकलने पर ओस की बूंदें । चारों ओर सन्नाटा पसरा था , गलियाँ सूनी पड़ी थी , बाहर न कोई इंसान था न कोई जानवर । यहाँ तक कि छोटे बच्चे भी अपने घरों में खेलते रहे । आज पहली बार कामवाली बाई के न आने पर दुःख नहीं हुआ बल्कि खुशी हुई कि यह वर्ग भी इतना जागरूक हो गया है । जनता कर्फ्यू की सफलता यह सिद्ध करती है कि कानून या सख्ती से बढ़कर मनुष्य का स्व - अनुशासन अधिक महत्वपूर्ण है । सबने कोरोना की भयावहता को समझ लिया है और इससे लड़ने को तैयार हैं । भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश का अपने - आपको घर में स्वस्फूर्त बन्द कर लेना विश्व को एक महान सन्देश देता है कि हम अपनी सुरक्षा के लिए कितने जागरूक हैं ।
           शाम को पाँच बजे जब हम शंख , थाली व घण्टी लेकर बाहर निकले तो अद्भुत नजारा देखने को मिला । लोग अपने घर के बाहर तैयारी के साथ खड़े थे । थाली , ताली ,शंखनाद के द्वारा सभी ने अपनी सहभागिता दी और कोरोना के कर्मवीरों के प्रति अपनी सद्भावना को व्यक्त किया । इस आवाज को सुनने वाले वहाँ आस- पास हों या न हों परन्तु एक - दूसरे का सबने हौसला बढ़ाया और दूर रहकर भी यह संदेश दिया कि मुसीबत की इस घड़ी में हम साथ हैं । इस वक्त न कोई वर्गभेद था न  कोई जातिभेद , सभी सिर्फ और सिर्फ भारतीय थे । यह हमारी संस्कृति है जो हमें उदार , शांतिप्रिय और  समन्वयशील बनाती है । यह नजारा वाकई मर्मस्पर्शी था । शाहीनबाग में धरना दे रहे और विदेशों से आकर छिपने व अलग न रहकर दूसरों को संक्रमित करने वाले लोगों के प्रति हर किसी के मन में आक्रोश है । काश ! वे स्थिति की भयावहता को समझते और सावधान रहते तो बीमारों की संख्या इतनी भी न होती ।
          यह हमारे समाज और देश के हित में है कि हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझे , सतर्कता बरते , कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए बताये जा रहे नियमों का पालन करे , भीड़भाड़ वाले जगहों पर जाने से बचें । 
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

सजल - 17

समांत - आह
पदांत - है वहाँ
मात्रा भार - 19
************************
प्यार है जहाँ , नहीं आह है वहाँ
दर्द है जहाँ  , अश्कगाह है वहाँ
************************
रात की पनाह में ,  भोर है छिपा
चाह है जहाँ  नई  राह है वहाँ
*************************
बाँध दे जो तीव्र जाह्नवी  की * धार
 उसी धीर  की वाह - वाह है वहाँ
*************************
आस के उजास की  हिलोर है जहाँ
प्रेम  की प्रगाढ़ता की थाह है वहाँ
**************************
त्याग , तोष , तप  की विनीत साधना
भावना का सघन प्रवाह है वहाँ
***************************
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़




एक हुए आज हम

एक हुए आज हम
एक सबका कर्म है ।
न जात है न पात है
न वर्ग है न धर्म है
मंजिल है एक हमारी
एक सबका कर्म है ।
इरादे बुलन्द हैं
मदद को बढ़े हाथ है
मानव - कल्याण हित
आज हम साथ हैं
पीड़ा है एक हमारी
एक सबका मर्म हैं ।
एक हुए आज हम 
एक सबका कर्म है ।
मुसीबत जो आई है
वो रंग न पहचानती
राज्य , देश और विदेश
कोई सीमा न जानती
मिटाना है इसे हमें
यह युद्ध राष्ट्रधर्म  है ।
एक हुए आज हम
एक सबका कर्म है ।
हौसलों के पर हैं
उमंगों के परवाज हैं
प्रकृति की आपदा के
खिलाफ मुखर आवाज है
चुनौती ये स्वीकार कर
हुआ खून  गर्म है ।
एक हुए आज हम
एक सबका कर्म है ।
सावधान रहें सभी
कोई  न संशय हो
हराना है विषाणु को
मन में न कोई भय हो
संक्रमित जो हो गये
बोलने  में क्या शर्म है ।
एक हुए आज हम
एक सबका कर्म है ।
पावन है ये वसुंधरा
संस्कृति मनभावनी
शांति और सद्भावना
भारत की पहचान बनी
जीतेंगे जरूर हम
आरम्भ किया जो जंग है ।
एक हुए आज हम
एक सबका कर्म है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़









 

Friday, 20 March 2020

कोरोना ब्रेक ( लघुकथा )

    एक कामकाजी गृहिणी के लिए अपनी अभिरुचियों के लिए वक्त निकालना मुश्किल होता है । कोरोना के कारण मिले आकस्मिक अवकाश ने शिखा को यह अवसर दे दिया था । पतिदेव से पेंट - ब्रश मंगाकर उसने एक पेंटिंग बनाना शुरू कर दिया , बचपन से ही यह कला उसे एक अलग दुनिया में ले जाती थी ..उसकी अपनी दुनिया जहाँ न कोई नियम - कानून थे और न ही कोई बंदिश । उसके अपने खास रंग थे जो नये - नये खाके में उभरने लगते । वह मंत्रमुग्ध हो कर पेंटिंग बनाती किसी को वह पसन्द आये न आये पर अपने सृजन को देखकर  उसे जो खुशी मिलती वह अनमोल थी । 
             आज का दिन कुछ विशेष था उसकी पेंटिंग देखकर दोनों बच्चे अत्यंत प्रफुल्लित हुए साथ ही चकित भी। " माँ ! आप तो बहुत खूबसूरत पेंटिंग बनाती हैं बिल्कुल बाजार में मिलने वाली पेंटिंग्स की तरह ।  आप हमेशा क्यों नहीं बनाती ? " बिटिया ने आँखें फैलाकर कहा । उसके आठ वर्षीय भाई ने  समर्थन किया और पापा ने भी । उतना वक्त नहीं निकाल पाती.. धीमी आवाज में शिखा ने उत्तर दिया था । " मम्मा आज के बाद आप अपनी पेंटिंग्स के लिए समय निकालेंगी और हाँ मेरे कमरे के लिए आपको बड़ी वाली तस्वीर बनानी होगी " बिटिया ने उसके गले में अपनी बाहें डालकर मनुहार की तो शिखा मुस्कुराए बिना नहीं रह सकी । इस कोरोना ब्रेक ने रोजमर्रा के कामों से ऊबते सीले से मन को ताजगी की धूप दिखा दी थी ।
         *******************
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
 

Thursday, 19 March 2020

सजल 16

 खनक रहा है बहुत समझ लो वह  सिक्का  तो खोटा है
कभी किसी के काम न आया  ज्ञान समझिए थोथा है 
***************************************
शांत रहे  वह  सदा   ज्ञान का जो अथाह भंडार रहे
आधी भरी गगरी का जल ही बहुत  उछलता है 
*************************************
दौड़ लगानी होगी  तुमको साथ - साथ चलकर
समय  किसी के लिए  भला कब और कहाँ ये रुकता है
*************************************
बैठ किनारे  रह जाने  से नहीं कभी कुछ  मिलता  है
डूब गया जो गहरे तक उसको ही मोती मिलता है
*************************************
पूरी उम्र बीत जाती है तब  जाकर मिलता अनुभव 
नहीं लौटकर आता है वो पल जो कर से  छूटा  है
*************************************
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़


Tuesday, 17 March 2020

बेबस किसान

बेबस किसान
*************
बीमारी , गरीबी और बेबसी का मारा है ,
किसान आज खराब मौसम  से हारा है ।

सिर पर हाथ रखकर अम्बर को ताके ,
घूम - घूम कर बरस रहा बादल आवारा है ।

बेमौसम बरसात  में बर्बाद  हुई फसल  ,
विपदा के इस पल में प्रभु तेरा सहारा है ।

नेता अपनी जेब भरें , क्रूर हुए व्यापारी ,
जय जवान  किसान केवल एक नारा है ।

जरूरतमंद को नहीं मिलती कोई मदद ,
भूख से या  खुदकुशी से मरता बेचारा है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 16 March 2020

सजल

जिंदगी गम की पोषिका हो गई है ।
संतापों से भरी वेदिका हो गई है ।

कल तक जो अधिकारिणी थी ,
आज वक्त की सेविका हो गई है ।

दिखाने लगी है नखरे , नज़ाकत ,
दोस्त से बढ़कर प्रेमिका हो गई है ।

हार गये कर के सौ - सौ जतन  ,
शौक था जो , आजीविका हो गई है ।

पीछे चलकर  देख लिया " दीक्षा ",
अभी तू विद्रोही नाायिका हो गई है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 14 March 2020

सजल - 11

माता - पिता की थी लाडली 
नाज - नखरों के साथ पली 
************************
कल तक जो चंचल हिरनी
घूमती थी वह गली - गली
************************
खिल न पाई पूरी तरह से 
अभी तो थी नादान कली
************************
छोड़ कर बाबुल का आँगन
पिया का दामन थाम चली
***********************
वेदना से झुलसा तन - मन
करना स्नेह की छांव अली
***********************
भोलापन था दोष उसका
दहेज अग्नि में देह जली
***********************
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 9 March 2020

होली

****************************
रहे न मन में  मलाल होली में ,
लगाओ अबीर , गुलाल होली में ।
प्रेम के रंग में रंग जाये जीवन_
हो खुशियों की बौछार होली में ।।
*******************************
होली त्यौहार की ढेर सारी शुभकामनाएं - 
समीर , दीक्षा , शुभि , क्षितिज
*******************************

Sunday, 8 March 2020

काफी है ( लघुकथा )

 रविवार छुट्टी होने के कारण गृहणियों का काम कुछ ज्यादा
ही हो जाता है । रमा सुबह से ही भिड़ी थी नाश्ता , खाना , बच्चों का यूनिफॉर्म धोना , प्रेस करना  उन्हें पढ़ाना  ..सब करने के बाद शाम को लेटी तो उठने की हिम्मत नहीं हुई । लगभग आधा - पौन घण्टे आराम करने के बाद वह अनमनी सी उठी ..रसोई में कुछ खटपट हो रही थी झांककर देखा तो देखती ही रह गई ।  पतिदेव और दोनों बच्चे खाना बना रहे थे
उसे देखते ही  उसके पति बोले - "अरे ! तुम क्यों उठ गई , तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं लग रही , तुम लेटी रहो ।" " हाँ मम्मी आप आराम कीजिए आज हम खाना बना रहे हैं " - उसके नन्हें से लाड़ले बेटे ने कहा तो स्नेहसिक्त हो गया उसका अंतर्मन  । भीगे हुए शब्दों में बस इतना ही कहा - " तुम लोगों को परेशान होने की क्या जरूरत थी , मैं तो आ ही रही थी ।"
बिना कहे उसके प्रियजन उसकी तकलीफ समझ लें , बस ...इतने में ही वह अपनी सारी तकलीफें भूल जाती है  । इतना ही काफी है उसके लिए ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 7 March 2020

पूर्वजों ने यही कहा

 पूर्वजों ने यही कहा 
नारियों की पूजा होती है जहाँ ,
देवता निवास करते हैं वहाँ ।।
जब हार मान लेते सभी ,
ब्रह्म , विष्णु , शिव , ऋषि ,
राक्षसों का संहार करने  को ,
लेती जन्म दुर्गा , काली यहाँ ।।
भगिनी वह , जननी वह ,
संस्कारों की वाहिनी वह ।
रीत , व्यवहार , कुल की मर्यादा ,
प्रिय की अंकशायिनी वह ।
वह नीर सी सरल -  तरल ,
उसका निश्चित कोई स्थान कहाँ ।।
दायित्व जब जो भी मिला ,
उसने खुद को साबित किया ।
युद्ध लड़ी भीतर  - बाहर ,
सन्तुलन स्थापित किया ।
अपने हक की खातिर ,
पीड़ा उसने क्या - क्या न सहा ।।
व्रती , तपस्वी , साधुजन ,
करते नव - कन्या का पूजन ।
माँ की कोख में ही कर देते ,
कन्या - भ्रूण का विसर्जन ।
कुदृष्टि से अपनी करते रोज ,
स्त्री का चीर हरण !अहा ।।
अपने - आप को भूलकर ,
हमेशा दूसरों के लिए जिया ।
परम्परावादी  हो या आधुनिका ,
कर्तव्य अपना पूरा किया ।
सुख की गगरी भरते - भरते ,
मन तो उसका  रीत रहा ।।
जीवन यूँ ही बीत रहा ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़





Wednesday, 4 March 2020

जीवन में संगीत

जीवन में संगीत के मायने

जिस प्रकार शरीर बिना प्राण के व्यर्थ  है , उसी प्रकार संगीत के बिना जीवन  अधूरा है । संगीत के बिना जिंदगी बेरंग हो जायेगी । एक थकाहारा इंसान जब घर आकर संगीत के आगोश में खो जाता है तो अपनी थकान , तनाव , चिंता सब भूल जाता है । संगीत हमें जीने के लिए ऊर्जा प्रदान करता है । जीने का उत्साह और उमंग जगाता है । संगीत में इतनी ताकत है कि बेजान शरीर में जान फूंक  दे इसलिए बहुत सी बीमारियों के इलाज के लिए मधुर संगीत भरा वातावरण बनाया जाता है ।  आँखें बंद कर कुछ पल  संगीत सुनकर  बोझिल दिमाग को शांति मिल जाती है , परीक्षार्थी के सिर से परीक्षा का तनाव चला जाता है । मुश्किलों भरी सुनसान राहों का सफर संगीत के संग आसान हो जाता है  । ध्यान लगाने के लिए भी संगीत एक बड़ा व महत्वपूर्ण माध्यम है । संगीत में सम्मोहन का गुण होता है जो  इंसान को अपना वर्तमान भुला देता है । इंसान तो इंसान यह जानवरों को भी अपने वश में कर लेता है । उत्सवों , पर्वों , त्योहारों का रंग संगीत के बिना फीका है । भारतीय संस्कृति में संगीत रचा - बसा है । खेतों में काम करते स्त्री पुरूष जब लोकगीतों की तान छेड़ते हैं तो  प्रकृति भी पुलकित हो उठती है   , परम्पराओ  और पर्वों के लोक संगीत सबके मन को तरंगित कर देते हैं । हाथों में रंग - अबीर लिए हुरियारे जब नगाड़े पर थाप लगाते हैं तो पैर थिरक उठते हैं और दिलों की धड़कन तेज हो जाती है । ढोलक की मधुर पुकार दुल्हन के कपोलों पर  लाज की गुलाल फैला जाती है तो युवा दिलों में सुखद भविष्य की उमंगें छलका जाती हैं । प्रत्येक प्रान्त की अपनी संस्कृति और विशेष संगीत व परम्पराएं हैं ,भारत विविधताओं का देश है । इसके कोने - कोने में  मधुर संगीत लहरियों की कई दास्तानें हैं जो इसे विशिष्ट और अन्य देशों से भिन्न बनाता है ।  सबके अपने साज और आवाज हैं , इतिहास के  धरोहर  , घराने हैं । संगीत मनुष्य के व्यक्तित्व की चरम अभिव्यक्ति है , सुकूनभरी साँस है और जीवन में खुशियों की रंगीन फुहार है । आइये जिंदगी के मधुर संगीत में सराबोर हो जायें ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे 
दुर्ग , छत्तीसगढ़

वो गर्माहट ( संस्मरण )

   बचपन के बीतने के बाद ही उसकी अहमियत समझ आती है । उन दिनों माता - पिता के प्यार की ठंडी छाँव में दिन कैसे बीतते हैं पता ही नहीं चलता । हँसते - खेलते , पढ़ते वक्त गुजर जाता है और बचपन की मौज - मस्ती रेत की मानिंद मुट्ठी से फिसल जाती  है । दो भाईयों के बीच की अकेली बहन होने के कारण मुझ पर मम्मी - पापा का विशेष स्नेह था । विशेषकर पापा की मैं लाडली थी , उनकी और मेरी जुगलबन्दी अच्छी जमती थी  । वे कहते - " रे मिनी "। मैं उन्हें उत्तर देती - "रे पापा " जिस सुर में वे बोलते मैं उन्हें वैसे ही उत्तर देती । लाड़ में पापा मुझे कई नामों से पुकारते -  गुड्डी ,मिनी , मुनी , कुनी मुनि आदि । पापा बहुत सुबह उठ जाते थे और योग करते रहते । जब हम छत पर सोते तो सुबह थोड़ी ठंड हो जाती । पापा उठने के बाद अपनी चादर मुझे ओढ़ा देते , यह गर्माहट मुझे बहुत प्यारी लगती । कई बार मैं नींद खुलने पर भी पापा के चादर की गर्माहट के लिए आँख बंद किये पड़ी रहती । उनके स्नेह रूपी चादर की उत्तराधिकारी मैं हूँ , यह बात मुझे गौरवान्वित कर जाती । अपने भाईयों से झगड़ने पर यह मेरा सुरक्षा कवच भी होता कि पापा मुझे ज्यादा प्यार करते हैं ।                          छः बजे पापा जबरन मुझे उठाकर पैर से पकड़ कर उल्टा कर देते और सीधे बाथरूम के पास ले जाकर छोड़ते  । मैं कुनमुना कर उठती पर इसी वजह से मुझे जल्दी उठने की आदत पड़ गई । जल्दी उठकर , नहाकर पहले योग करने की प्रवृत्ति उनके कारण बनी । भाई लोग भले उनकी बात टाल जाते पर मैंने उन्हें कभी मना नहीं किया । उन्होंने मुझे जब भी , जो भी जिम्मेदारी सौंपी , मैंने पूरे मनोयोग से वह कार्य पूर्ण किया । पापा अक्सर लोगों के सामने मेरे गुणों की तारीफ किया करते , हर छोटी बात के लिए उनकी प्रशंसा मेरे लिए प्रेरणा बनती और मैं उनकी नजर में अधिक अच्छा बनने के लिए प्रयास करती । मेरे रचनात्मक लेखन की शुरुआत भी उन्हीं की प्रेरणा से हुई । उन्होंने मुझे चाचा , दीदी , मामा इत्यादि विभिन्न रिश्तेदारों को पत्र लिखने के लिए प्रोत्साहित किया । तब मैं मिडिल स्कूल में थी , उस उम्र में मेरी लेखन शैली की सभी रिश्तेदार खूब तारीफ किया करते । सभी का प्रोत्साहन पाकर हमेशा लिखते रहने का अभ्यास बढ़ा ।                       पापा जी के कहने पर मैंने आकाशवाणी रायपुर और विभिन्न समाचार पत्रों में अपनी रचनाएं भेजना प्रारंभ किया  और इस प्रकार मेरा साहित्यिक जीवन प्रारंभ हुआ । अच्छी किताबें पढ़ने के लिए उनकी प्रेरणा ने मेरा जीवन बदल दिया क्योंकि स्वाध्याय की प्रवृत्ति हमें एक नई दुनिया का दीदार कराती है । जानकारी का भंडार हमारे सामने खुल जाता है , जीवन की बहुत सी समस्याएं भी सुलझ जाती हैं क्योंकि किताबें अकेलेपन की सबसे खूबसूरत व विश्वसनीय साथी होती हैं । कई बुराईयों की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता और हम एक स्वस्थ मानसिकता के स्वामी बनते हैं ।  पिता के विचार , मानसिकता , संस्कार बच्चों को वसीयत में मिलते हैं । अनजाने ही कब उनकी आदतों , बातों को बच्चे अपना लेते हैं पता ही नहीं चलता इसलिए पिता की जिम्मेदारी बढ़ जाती है।
सुव्यवस्थित रहने की आदत मैंने अपने पिता से अनायास ही पाई है । उनका लाड़ - दुलार  वायुमण्डल के ओजोन परत की तरह है जो हानिकारक विकिरणों से हमारी सुरक्षा करता है । वो स्नेह भरी गर्माहट मेरी स्मृति पटल पर  हमेशा बनी रहेगी उम्र भर । शुक्रिया पापा 🙏🙏

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 3 March 2020

फाल्गुन

कूक उठी कोयल ,
भृमर गुनगुनाया ।
टेसू की गंध घुली पवन में ,
आम भी बौराया ।
फाल्गुन मास आया ।।

नगाड़े की थाप ने ,
मन को गुदगुदाया ।
होलिका - दहन की तैयारी ,
मस्ती का आलम छाया ।
फाल्गुन मास आया ।।

बिखरे रंग खुशी के ,
अबीर ने चेहरों को रँगाया ।
पुलकित , उमंगित प्रकृति ने ,
फूलों का सेज बिछाया ।
फाल्गुन मास आया ।।

ढोल - नगाड़ों के संग ,
रंग - गुलाल बरसाया ।
फ़ाग की मस्ती में सब झूमे - नाचे ,
प्यार के रंगों ने दिलों को मिलाया ।।
फाल्गुन मास आया ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़