Wednesday, 29 April 2020

सीख (संस्मरण )

बात उन दिनों की है जब मैं बारहवीं कक्षा में पढ़ती थी । उस समय मेरे पापा के रिश्ते के बड़े  भाई जो गाँव में रहते थे वो अक्सर आया करते थे  । वे अपनी बेटी की शादी तय करने के सिलसिले में आते थे , हमारे घर पर रुकते । चूँकि मम्मी के वे जेठ लगते थे अतः उन्हें खाना , नाश्ता मुझे ही परोसना पड़ता था । अपनी पढ़ाई को छोड़कर उनके कार्य से मुझे कई बार उठना पड़ता था इसलिए मैं चिड़चिड़ा जाती थी । बड़े पापा कितने स्वार्थी हैं , बस अपनी ही सुविधा देखते हैं दूसरों के बारे में नहीं सोचते । मैं पापा जी से यही शिकायत करती थी , वे मुझे बड़े प्यार से समझाते कि थोड़ी बहुत तकलीफ होती है तो उठा लेना चाहिए लेकिन दूसरों की सेवा , सहायता करना बहुत पुण्य  का कार्य है । उनकी मजबूरी है इसलिए आते हैं नहीं तो अपना घर छोड़कर कौन आयेगा । पापा बहुत शांत स्वभाव के है । उन्हें क्रोध करते मैंने बहुत कम ही देखा है  , वे स्वयं कभी किसी से  कोई अपेक्षा नहीं रखते थे  और दूसरों की सहायता करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे । मुझे ऐसा लगता था कि लोग उनके सरल स्वभाव का फायदा उठाते हैं और अपना काम पूरा होने के बाद  भूल जाते हैं । कुछ वर्षों के पश्चात जब उन बड़े पापा की बेटी की शादी तय हो गई   उसके बाद वे जब भी मिलते पापा जी की बहुत प्रशंसा करते । उन्होंने जीवन भर उनका एहसान माना कि पापा के कारण उनकी बेटी की शादी तय हो पाई । हम सबकी वे खूब तारीफ करते , मुझे  बाद में बहुत पछतावा हुआ कि मैंने उनको गलत समझा । पेड़ पर जब फल लगते हैं तब हमें उसकी उपादेयता समझ आती है उसी प्रकार पिता के किये गए अच्छे कार्यों का प्रभाव जब हमें दूसरों के सहयोग द्वारा मिला तब समझ आया कि पापा क्यों दूसरों की मदद करने के लिए बोलते थे । उनके कारण हमारे कई कार्य बड़ी सहजता से पूरे हुए  और हमने दूसरों की मदद करने का  सबक आसानी से सीख लिया ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 27 April 2020

नमन माँ शारदे

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नमन करूँ मैं माँ शारदे को ,
मुझको नित ही ज्ञान मिले ।
चलती रहे यह कलम निरन्तर,
जग में विशिष्ट पहचान मिले ।।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
बढ़ती रहूँ सत्य के पथ पर ,
राह में न कोई तूफान मिले ।
हृदय विशाल बने सागर सा ,
लहरों सा सबल उत्थान मिले ।।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
स्नेह मिले सदा स्वजन का ,
पथ के साथी ज्ञानवान मिले ।
सुंदर , सरल , सहज हो जीवन ,
कभी भी न कोई अपमान मिले ।।
💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
महके सदैव मेरी बगिया ,
प्यार , मान - सम्मान मिले ।
सौभाग्य का वरदान दे माँ ,
चरणों में तेरे स्थान मिले ।।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 23 April 2020

सजल

             *सजल* 
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समांत     --- आद
पदांत      --- किया है
मा०भा०  ---  22
मात्रापतन -- * चिह्नित है
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रूढ़ियों  से  देश  को आजाद किया है
नीतियों से चमन को‌ आबाद किया है
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भूलना उन्हें नहीं जो देश हित मरे
उनकी जय का उच्च शंखनाद किया है
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कठिनाइयों ने जिंदगी आसान बना दी
पुरुषार्थ ने ही जीत से संवाद किया है
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वेदना की थाह तुम तो भाँप न पाए
आँसुओं ने दर्द का अनुवाद किया है
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ये साँप आस्तीन के सगे नहीं कभी
देश को जयचंदों* ने बर्बाद किया है
जयचंदों* ने ही देश को बरबाद किया है
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 22 April 2020

सजल

सजल

सबकी नित नई कहानी  है
लहरों   में  मौज  रवानी  है
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मदमस्त पवन का झोंका है
जो   जीते  वही  जवानी  है
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उड़ने  को  है  अम्बर  सारा
कदमों में दुनिया* झुकानी है
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यादें  ही  जग में रह जातीं
साँसें  तो आनी - जानी है
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कोशिश है दुनिया कहे मुझे
सूरत   जानी   पहचानी  है
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स्वरचित - डॉ.  दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 19 April 2020

शिक्षक के लिए

सोंचें , समझें , सीखें , विस्तृत करें अपना ज्ञान ।
शिक्षा के इस महायज्ञ में , करना है हमको अंशदान ।।

विचलित न हों कर्तव्य - पथ से ,अपने - आप को लघु मान ।
सागर की विशालता में ,हर बून्द का होता योगदान ।।

लीक पुरानी छोड़ चलें अब , नवाचार की बाहें थाम ।
छँट गई बदली भ्रांतियों की , विज्ञान को मिला खुला आसमान।

छिड़ जाने दो जमकर , अंधेरे - उजाले का महा संग्राम ।
तैयार खड़े हैं अक्षर बाँकुरे , करके सारे इन्तजाम ।।

सद्भाव की श्यामल धरा पर , बीज उगायें कर्मवान ।
स्नेह , प्रेरणा के सिंचन से , फसल बनायें निष्ठावान ।।

गर्व करें हम शिक्षक हैं , है यह कार्य बड़ा महान ।
निभाकर अपना दायित्व , कर्म को अपना दें सम्मान ।।

स्वरचित -डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 16 April 2020

सीख प्रकृति की

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काँटों में खिले फूल ने हँसना  सिखलाया ,
कठिन परिस्थितियों में जीना  सिखलाया ।
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पशु , पंछी , पौध के जीवन से सीखो ,
गतिरोधों से लड़कर बढ़ना सिखलाया ।
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पर्वत जो खड़े हुए हैं गर्व से सीना ताने ,
जीवन के उद्दाम वेग में अड़ना सिखलाया । 
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धैर्य और संयम का पाठ पढ़ाता सागर ,
विशालता में छुपी उदात्तता सिखलाया ।
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राह के रोड़ों को बहा ले जाती सलिला ,
रुकना नहीं है  चलते  जाना सिखलाया ।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 15 April 2020

बेटा बड़ा हो गया (संस्मरण )

एक माँ के लिए उसके बच्चे सदैव छोटे ही रहते हैं और वह बच्चा छोटा हो तो वह कभी बड़ा होता ही नहीं । अपने बेटे के 
उन्नीसवें वर्ष में प्रवेश होने के बाद भी वह मुझे हमेशा छोटा ही महसूस होता है । वह जब कोचिंग के लिए कोटा में पढ़ने गया तो मुझे कुछ ढाढस हुई कि अब वह अपना ख्याल रख सकता है । जीवन में आने वाली परिस्थितियों का सामना कर सकता है , साथ ही दोस्त चुनना व अपने कार्यों को स्वयं पूरा करना इत्यादि जिम्मेदारी निभा सकता है । एक साल वहाँ अकेले रहकर वह काफी आत्मविश्वासी हो गया और मैं उसकी बातें सुनकर आनन्द  और निश्चिंतता के सागर में गोते लगाने लगी ।
   उसके अगले वर्ष उसका नागपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला हो गया ।  पहली बार उसे सामान सहित हॉस्टल छोड़ने गई और भरे मन से वापस दुर्ग आ गई । दो माह के बाद उससे मिलने हम लोग नागपुर गये तो उसमें बहुत परिवर्तन दिखा । ऐसा लगा मानो वह बड़ा हो गया है , सबसे पहले उसने हमें शेगाँव की मशहूर कचौरियां खिलाई , सबसे बड़ी बात उसने पेमेंट करते वक्त पापा की ओर नहीं देखा , खुद ही किया । उसके बाद उसने हमें वहाँ के दर्शनीय स्थलों को घुमाया । वह पूरे समय अपनी जिम्मेदारी के प्रति सजग रहा कि मम्मी - पापा उसके पास आये हैं तो वह विशेष ख्याल रखता रहा । उसकी हरकतें देखकर अच्छा लग रहा था पर कभी - कभी हँसी भी आ जाती थी और मैं इन्हें देख कर मुस्कुरा देती थी । बेटे का बड़ा होना , हमारा इतना ख्याल रखना अच्छा लग रहा था , एक माँ के लिए अपने बच्चे के विकास का हर चरण आनन्दित करने वाला होता है । बच्चे का उठ कर बैठना , घुटने चलना ,  खड़ा होना और चलना... बढ़ने का हर कदम माँ के मन को वात्सल्य के रस से भर देता है । परिवर्तन के ये पल आहलादित करने वाले होते हैं । माँ तो यही चाहती है कि उसका बच्चा खूब आगे बढ़े , कहीं भी रहे बस उसके दिल के करीब रहे ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

सजल

मुझ पर हक अपना  जताने लगे हैं ,
अपना  सब कुछ वो लुटाने लगे हैं ।

मिट्टी लगी है त्याग और विश्वास की , 
घर को बनाने में जमाने लगे हैं ।

हो गया भरोसा पंछियों को मुझपे ,
घोंसला मेरे घर बनाने लगे हैं ।

पाला है जिनको खून - पसीने से ,
दवा न लाने के बहाने लगे हैं ।

दिल में जगह थोड़ी दे दी उन्होंने ,
रूठने पर मुझे अब मनाने लगे हैं ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़



Tuesday, 14 April 2020

सजल

सजल 
समांत - ईल
पदांत - है
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भाग्य की शिकायत में देता कई दलील है ,
 कर्मशीलता  का  पक्षधर वक्त बना वकील है ।
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लक्ष्य निर्धारित करने से ही मिलेगी मंजिल ,
साहस से ऊँची उड़ान भरता हुआ चील है ।
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घाव कड़वी बोली का भरता नहीं जीवन भर ,
 छोड़ जाती  निशान जब चुभती  कोई कील है ।
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सत्संग का असर देखो  क्या  रंग दिखाता है ,
अंबर के अनुराग  में  समंदर हुआ नील है ।
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न्याय की देवी ने आँखों पर बाँधी पट्टी है ,
 चीख - चीख कर सच  कर रहा न्याय की अपील है ।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

सजल

सजल
समां त - अड़ी
पदांत - है
मात्रा भार - 20
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मुसीबत ये सिर पर आई बड़ी है
रखो धीर ये परीक्षा की घड़ी है
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रखना है संयम खुद पर ही हमको
चलती रहे जो  साँसों की लड़ी है 
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सुरक्षा हमारी केवल सावधानी
हमें तोड़ना  संक्रमण की कड़ी है 
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कोशिश हम सबको करनी ही होगी 
यहाँ नहीं कोई जादू की छड़ी है
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 खतरे को समझें सम्भल जाएं अब
हम सबके आगे  ये मौत खड़ी है
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 13 April 2020

मुक्तक

वैदेही

वैदेही तुम  त्याग और  धैर्य की मूरत थी ,
सेवाभावी , दया और ममता की सूरत थी ।
रामप्रिया , पति की अनुगामिनी, धर्म परायणा _
लक्ष्मण - रेखा को लाँघने की क्या जरूरत थी ।।
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चली वैदेही  राम के संग पर वक्त न उसके साथ चला ,
उस ने निभाया सदा धर्म अपना पर  रावण ने  उसे  छला ।
अग्नि परीक्षा देकर उसने निष्कलंक साबित किया खुद को _
हुई निर्वासित  फिर भी , शक की आग ने उसे  दिया जला।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 12 April 2020

ग़ज़ल

ग़ज़ल
काफ़िया - अरा
रदीफ़ -हुआ है
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पाबन्दियों का जितना पहरा हुआ है ,
मोहब्बत का असर उतना गहरा हुआ है ।
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सूखने का डर है  इख्लास की तपिश से ,
टूटकर समंदर  आज कतरा हुआ है ।
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जुदा हुए थे हम एक - दूजे से जहाँ पर ,
गया  वक्त  अब भी वहीं ठहरा हुआ है ।
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मुझे ढूँढना वहीं जहाँ फूटकर रोया  ,
अश्कों की बूंदों में मन  बिखरा हुआ है ।
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मीठी बोली का जहाँ बहता था निर्झर ,
उस दिल में  नफरत का जहर  भरा हुआ है ।
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लड़ा रहा रुपया यहाँ इंसा को इंसा से ,
  इंसानियत को हिर्स से खतरा हुआ है ।
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अनसुनी कर रहा है वो मेरी फरियादें ,
संगदिल सनम इस कदर बहरा हुआ है ।
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इख्लास = प्रेम
हिर्स= लालच
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 9 April 2020

खिला रहे फूल ( कहानी )

         ससुराल से  आए दो दिन हो गए  थे  आज रीमा को  ...पता नहीं क्यों वह पहले वाली चंचल चुलबुली रीमा नहीं लग रही थी । उसकी मम्मी देख रही थी वह कुछ उदास अनमनी- सी है । जब से आई थी उसने एक बार भी अपने पति रोहन या अपने ससुराल वालों का जिक्र नहीं किया था । तीसरे दिन खाना खाने के बाद जब  सभी सोने चले गये तो उन्होंने अपनी बेटी का मन टटोला - " क्या बात है बेटा  , तुम कुछ उदास लग रही हो  कहीं रोहन से झगड़ कर तो नहीं आई तुम ?" पहले तो रीमा थोड़ी सकपकाई , फिर उसने यह स्वीकार कर लिया । मम्मी , रोहन तो बिल्कुल अपनी मम्मी  की हर बात मानते हैं । कभी मेरा पक्ष लेते ही नहीं । इसी बात के कारण  कई बार हमारा झगड़ा हुआ वरना हम लोगों के बीच कोई विवाद होता ही नहीं । उनकी मम्मी को भी हमें कुछ स्पेस देना चाहिए न ,पर वो तो हमेशा बेटे के पीछे लगी रहती हैं । खाना ठीक से खाया कि नहीं । यहाँ जाओ ,वहाँ मत जाओ । रात को जल्दी घर आया करो , बाहर का खाना मत खाया करो । हर चीज में रोक-टोक , मैं तो परेशान हो जाती हूँ । रोहन को तो कुछ फर्क ही नहीं पड़ता , उनको यह सब सामान्य लगता है ।

        बेटे , शुरुआत में थोड़ी एडजस्टमेंट प्रॉब्लम तो होती ही है । तुम कुछ समय धैर्य रखो , धीरे - धीरे सब कुछ सामान्य हो जाएगा । शादी को दो साल होने को आये मम्मी और कितना  समय दूँ । बेटे होने के अलावा रोहन अब पति भी हैं , क्या मेरी तरफ उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती । अब मेरा उनके साथ रहना मुश्किल है , मुझे  रोहन से दिक्कत नहीं है लेकिन उनकी फैमिली के साथ मैं नहीं रहूँगी , बस यही बोलकर मैं घर आ गई हूँ । उन्हें स्वीकार होगा तो मुझे लेने आयेंगे वरना मैं आत्मनिर्भर हूँ ,उनके बिना भी रह लूँगी " - रीमा ने  अपना फैसला सुना दिया था । उसकी मम्मी सोच में पड़ गई , आजकल के बच्चे छोटी-सी समस्या को बड़ी बना लेते हैं । हम लोगों के जमाने में तो ये निभा ही नहीं पाते । सुबह उठकर जो रसोई में घुसते तो पतिदेव से मिलना रात को ही होता था । बड़ों के सामने दोनों की घिघ्घी बंधी रहती । सीधे खाना माँगने में भी संकोच करते । आजकल अब वह बंधन नहीं रहा , न वह रूढ़िवादिता । आजकल के सास-ससुर भी आजाद ख्याल के हो गए हैं । फिर भी बच्चों को कोई न कोई शिकायत रहती है , अपनी बेटी की जिद को वह भली - भाँति पहचानती थीं  किस प्रकार उसे परिवार की महत्ता वह समझाए कुछ समझ नहीं आ रहा था ।  बस वह वक्त का  इंतजार करने लगीं  और वह अवसर उन्हें शीघ्र मिल भी गया । 

               एक दिन घर के बगीचे में  माँ-बेटी साथ घूम रहे थे । बारिश का खुशगवार मौसम था , चारों ओर हरियाली छाई हुई थी । हल्की बूंदाबांदी के बीच घूमते हुए  रीमा को पीले गुलाब से खिला गमला दिख गया और वह प्रसन्नचित्त होकर अपने मनपसंद फूलों को प्यार से सहलाने लगी । उसकी मम्मी ने तुरंत एक फूल तोड़कर झट से रीमा के हाथ में पकड़ा दिया । अरे मम्मी ! आपने यह क्या कर दिया । इसे तोड़ क्यों दिया , यह पौधे से अलग होकर कितने देर तक खिला रहेगा । कुछ समय बाद मुरझा जायेगा । यदि तोड़ती नहीं तो अभी कई दिनों तक खिला रहता । 

           हाँ बेटा , मैंने सिर्फ फूल ही तोड़ा है तुम तो  किसी  पौधे  को  उसकी जड़ से  अलग करना चाहती हो । " किसकी बात कर रही हो मम्मी " ,  रोहन की बात कर रही हूँ बेटा , क्या तुम उसे उसकी जड़ों से दूर करने की शर्त नहीं रख रही । जरा सोचो , उसके मम्मी - पापा चाहे जैसे भी हों पर उसके लिए तो वे सदैव  सम्मानित ही रहेंगे न । उनसे अलग रहकर क्या उसे सच्ची खुशी मिल पायेगी । अपनी शादी को बचाने के लिए वह अलग हो भी जायेगा तो इस गुलाब की तरह मुरझा नहीं जाएगा । फिर उसे दुःखी कर क्या तुम उसके साथ खुश रह पाओगी । रीमा कुछ पल अपने हाथों में थामे गुलाब को देखती रही और कुछ पल सोचकर बोली - "आप सच कह रही हैं मम्मी । मैं आपकी बात समझ गई । अपने परिवार से अलग रहना किसी समस्या का समाधान नहीं है । अब मुझे जो भी समस्या होगी मैं वहीं उनके साथ रहकर ही सुलझा लूँगी । आपकी तरह सकारात्मक नजरिया रखने से शायद मुझे अधिक समस्या होगी भी नहीं । थैंक्यू मम्मा  । आप चिंता मत कीजिए  । मेरी गृहस्थी का गुलाब पौधे में ही खिला रहेगा ,मैं उसे उसकी  जड़ों से अलग नहीं करूँगी  । दोनों माँ - बेटी खिलखिलाकर हँस पड़े थे ।


स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे

दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 4 April 2020

फिर लौट आया बचपन

थिरकने लगा है मेरा अंग - अंग ,
बारिश ने जब - जब भिगोया तन - मन ।
डोरी बनी  उड़ते पतंग के संग ,
मृग से कुलांचे भरते चंचल नयन ।
मस्ती लिये फिर लौट आया बचपन ।।

बुलाया बगिया के पुष्पों ने हरदम ,
झूले ने उमंगित किया है यह तन ।
मर्यादा की बेड़ी में जकड़े कदम ,
पर तितलियों के पीछे दौड़ा यह मन ।
मस्ती लिये फिर लौट आया बचपन ।।
 
तस्वीर पुरानी जो हाथ में आई ,
स्मृतियों में थिर हुआ चंचल चितवन ।
पुरानी सखियों की यादें  आईं ,
मायके की याद में छाया सावन ।
मस्ती लिये फिर लौट आया बचपन ।।

झाँके आँखों में जब कोई सुंदर गाँव ,
 तालाबों के शीतल जल की छुअन ।
अमराई की ठंडक , पीपल की छाँव ,
 कानों में सरगम सुनाती ज्यों पवन ।
मस्ती लिये फिर लौट आया बचपन ।।

पहने माँ की साड़ी , दादी की नकल ,
मन को भाती माँ की चूड़ी खनखन ।
बच्चों की शरारत में दिखती शक्ल ,
बज उठती  जब मेरी पायल छनछन ।
मस्ती लिये फिर लौट आया बचपन।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़







Thursday, 2 April 2020

मुक्तक

खून से लथपथ पड़ी है अपनों की लाश ,
नशे के मूल में ही छुपा है सर्वनाश ।
सोचने - समझने की खत्म हो गई शक्ति_
खत्म कर दी है स्वयं की जीने की आस ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़