Sunday, 12 April 2020

ग़ज़ल

ग़ज़ल
काफ़िया - अरा
रदीफ़ -हुआ है
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पाबन्दियों का जितना पहरा हुआ है ,
मोहब्बत का असर उतना गहरा हुआ है ।
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सूखने का डर है  इख्लास की तपिश से ,
टूटकर समंदर  आज कतरा हुआ है ।
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जुदा हुए थे हम एक - दूजे से जहाँ पर ,
गया  वक्त  अब भी वहीं ठहरा हुआ है ।
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मुझे ढूँढना वहीं जहाँ फूटकर रोया  ,
अश्कों की बूंदों में मन  बिखरा हुआ है ।
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मीठी बोली का जहाँ बहता था निर्झर ,
उस दिल में  नफरत का जहर  भरा हुआ है ।
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लड़ा रहा रुपया यहाँ इंसा को इंसा से ,
  इंसानियत को हिर्स से खतरा हुआ है ।
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अनसुनी कर रहा है वो मेरी फरियादें ,
संगदिल सनम इस कदर बहरा हुआ है ।
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इख्लास = प्रेम
हिर्स= लालच
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

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