बात उन दिनों की है जब मैं बारहवीं कक्षा में पढ़ती थी । उस समय मेरे पापा के रिश्ते के बड़े भाई जो गाँव में रहते थे वो अक्सर आया करते थे । वे अपनी बेटी की शादी तय करने के सिलसिले में आते थे , हमारे घर पर रुकते । चूँकि मम्मी के वे जेठ लगते थे अतः उन्हें खाना , नाश्ता मुझे ही परोसना पड़ता था । अपनी पढ़ाई को छोड़कर उनके कार्य से मुझे कई बार उठना पड़ता था इसलिए मैं चिड़चिड़ा जाती थी । बड़े पापा कितने स्वार्थी हैं , बस अपनी ही सुविधा देखते हैं दूसरों के बारे में नहीं सोचते । मैं पापा जी से यही शिकायत करती थी , वे मुझे बड़े प्यार से समझाते कि थोड़ी बहुत तकलीफ होती है तो उठा लेना चाहिए लेकिन दूसरों की सेवा , सहायता करना बहुत पुण्य का कार्य है । उनकी मजबूरी है इसलिए आते हैं नहीं तो अपना घर छोड़कर कौन आयेगा । पापा बहुत शांत स्वभाव के है । उन्हें क्रोध करते मैंने बहुत कम ही देखा है , वे स्वयं कभी किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखते थे और दूसरों की सहायता करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे । मुझे ऐसा लगता था कि लोग उनके सरल स्वभाव का फायदा उठाते हैं और अपना काम पूरा होने के बाद भूल जाते हैं । कुछ वर्षों के पश्चात जब उन बड़े पापा की बेटी की शादी तय हो गई उसके बाद वे जब भी मिलते पापा जी की बहुत प्रशंसा करते । उन्होंने जीवन भर उनका एहसान माना कि पापा के कारण उनकी बेटी की शादी तय हो पाई । हम सबकी वे खूब तारीफ करते , मुझे बाद में बहुत पछतावा हुआ कि मैंने उनको गलत समझा । पेड़ पर जब फल लगते हैं तब हमें उसकी उपादेयता समझ आती है उसी प्रकार पिता के किये गए अच्छे कार्यों का प्रभाव जब हमें दूसरों के सहयोग द्वारा मिला तब समझ आया कि पापा क्यों दूसरों की मदद करने के लिए बोलते थे । उनके कारण हमारे कई कार्य बड़ी सहजता से पूरे हुए और हमने दूसरों की मदद करने का सबक आसानी से सीख लिया ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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