ससुराल से आए दो दिन हो गए थे आज रीमा को ...पता नहीं क्यों वह पहले वाली चंचल चुलबुली रीमा नहीं लग रही थी । उसकी मम्मी देख रही थी वह कुछ उदास अनमनी- सी है । जब से आई थी उसने एक बार भी अपने पति रोहन या अपने ससुराल वालों का जिक्र नहीं किया था । तीसरे दिन खाना खाने के बाद जब सभी सोने चले गये तो उन्होंने अपनी बेटी का मन टटोला - " क्या बात है बेटा , तुम कुछ उदास लग रही हो कहीं रोहन से झगड़ कर तो नहीं आई तुम ?" पहले तो रीमा थोड़ी सकपकाई , फिर उसने यह स्वीकार कर लिया । मम्मी , रोहन तो बिल्कुल अपनी मम्मी की हर बात मानते हैं । कभी मेरा पक्ष लेते ही नहीं । इसी बात के कारण कई बार हमारा झगड़ा हुआ वरना हम लोगों के बीच कोई विवाद होता ही नहीं । उनकी मम्मी को भी हमें कुछ स्पेस देना चाहिए न ,पर वो तो हमेशा बेटे के पीछे लगी रहती हैं । खाना ठीक से खाया कि नहीं । यहाँ जाओ ,वहाँ मत जाओ । रात को जल्दी घर आया करो , बाहर का खाना मत खाया करो । हर चीज में रोक-टोक , मैं तो परेशान हो जाती हूँ । रोहन को तो कुछ फर्क ही नहीं पड़ता , उनको यह सब सामान्य लगता है ।
बेटे , शुरुआत में थोड़ी एडजस्टमेंट प्रॉब्लम तो होती ही है । तुम कुछ समय धैर्य रखो , धीरे - धीरे सब कुछ सामान्य हो जाएगा । शादी को दो साल होने को आये मम्मी और कितना समय दूँ । बेटे होने के अलावा रोहन अब पति भी हैं , क्या मेरी तरफ उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती । अब मेरा उनके साथ रहना मुश्किल है , मुझे रोहन से दिक्कत नहीं है लेकिन उनकी फैमिली के साथ मैं नहीं रहूँगी , बस यही बोलकर मैं घर आ गई हूँ । उन्हें स्वीकार होगा तो मुझे लेने आयेंगे वरना मैं आत्मनिर्भर हूँ ,उनके बिना भी रह लूँगी " - रीमा ने अपना फैसला सुना दिया था । उसकी मम्मी सोच में पड़ गई , आजकल के बच्चे छोटी-सी समस्या को बड़ी बना लेते हैं । हम लोगों के जमाने में तो ये निभा ही नहीं पाते । सुबह उठकर जो रसोई में घुसते तो पतिदेव से मिलना रात को ही होता था । बड़ों के सामने दोनों की घिघ्घी बंधी रहती । सीधे खाना माँगने में भी संकोच करते । आजकल अब वह बंधन नहीं रहा , न वह रूढ़िवादिता । आजकल के सास-ससुर भी आजाद ख्याल के हो गए हैं । फिर भी बच्चों को कोई न कोई शिकायत रहती है , अपनी बेटी की जिद को वह भली - भाँति पहचानती थीं किस प्रकार उसे परिवार की महत्ता वह समझाए कुछ समझ नहीं आ रहा था । बस वह वक्त का इंतजार करने लगीं और वह अवसर उन्हें शीघ्र मिल भी गया ।
एक दिन घर के बगीचे में माँ-बेटी साथ घूम रहे थे । बारिश का खुशगवार मौसम था , चारों ओर हरियाली छाई हुई थी । हल्की बूंदाबांदी के बीच घूमते हुए रीमा को पीले गुलाब से खिला गमला दिख गया और वह प्रसन्नचित्त होकर अपने मनपसंद फूलों को प्यार से सहलाने लगी । उसकी मम्मी ने तुरंत एक फूल तोड़कर झट से रीमा के हाथ में पकड़ा दिया । अरे मम्मी ! आपने यह क्या कर दिया । इसे तोड़ क्यों दिया , यह पौधे से अलग होकर कितने देर तक खिला रहेगा । कुछ समय बाद मुरझा जायेगा । यदि तोड़ती नहीं तो अभी कई दिनों तक खिला रहता ।
हाँ बेटा , मैंने सिर्फ फूल ही तोड़ा है तुम तो किसी पौधे को उसकी जड़ से अलग करना चाहती हो । " किसकी बात कर रही हो मम्मी " , रोहन की बात कर रही हूँ बेटा , क्या तुम उसे उसकी जड़ों से दूर करने की शर्त नहीं रख रही । जरा सोचो , उसके मम्मी - पापा चाहे जैसे भी हों पर उसके लिए तो वे सदैव सम्मानित ही रहेंगे न । उनसे अलग रहकर क्या उसे सच्ची खुशी मिल पायेगी । अपनी शादी को बचाने के लिए वह अलग हो भी जायेगा तो इस गुलाब की तरह मुरझा नहीं जाएगा । फिर उसे दुःखी कर क्या तुम उसके साथ खुश रह पाओगी । रीमा कुछ पल अपने हाथों में थामे गुलाब को देखती रही और कुछ पल सोचकर बोली - "आप सच कह रही हैं मम्मी । मैं आपकी बात समझ गई । अपने परिवार से अलग रहना किसी समस्या का समाधान नहीं है । अब मुझे जो भी समस्या होगी मैं वहीं उनके साथ रहकर ही सुलझा लूँगी । आपकी तरह सकारात्मक नजरिया रखने से शायद मुझे अधिक समस्या होगी भी नहीं । थैंक्यू मम्मा । आप चिंता मत कीजिए । मेरी गृहस्थी का गुलाब पौधे में ही खिला रहेगा ,मैं उसे उसकी जड़ों से अलग नहीं करूँगी । दोनों माँ - बेटी खिलखिलाकर हँस पड़े थे ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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