उन्नीसवें वर्ष में प्रवेश होने के बाद भी वह मुझे हमेशा छोटा ही महसूस होता है । वह जब कोचिंग के लिए कोटा में पढ़ने गया तो मुझे कुछ ढाढस हुई कि अब वह अपना ख्याल रख सकता है । जीवन में आने वाली परिस्थितियों का सामना कर सकता है , साथ ही दोस्त चुनना व अपने कार्यों को स्वयं पूरा करना इत्यादि जिम्मेदारी निभा सकता है । एक साल वहाँ अकेले रहकर वह काफी आत्मविश्वासी हो गया और मैं उसकी बातें सुनकर आनन्द और निश्चिंतता के सागर में गोते लगाने लगी ।
उसके अगले वर्ष उसका नागपुर के इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला हो गया । पहली बार उसे सामान सहित हॉस्टल छोड़ने गई और भरे मन से वापस दुर्ग आ गई । दो माह के बाद उससे मिलने हम लोग नागपुर गये तो उसमें बहुत परिवर्तन दिखा । ऐसा लगा मानो वह बड़ा हो गया है , सबसे पहले उसने हमें शेगाँव की मशहूर कचौरियां खिलाई , सबसे बड़ी बात उसने पेमेंट करते वक्त पापा की ओर नहीं देखा , खुद ही किया । उसके बाद उसने हमें वहाँ के दर्शनीय स्थलों को घुमाया । वह पूरे समय अपनी जिम्मेदारी के प्रति सजग रहा कि मम्मी - पापा उसके पास आये हैं तो वह विशेष ख्याल रखता रहा । उसकी हरकतें देखकर अच्छा लग रहा था पर कभी - कभी हँसी भी आ जाती थी और मैं इन्हें देख कर मुस्कुरा देती थी । बेटे का बड़ा होना , हमारा इतना ख्याल रखना अच्छा लग रहा था , एक माँ के लिए अपने बच्चे के विकास का हर चरण आनन्दित करने वाला होता है । बच्चे का उठ कर बैठना , घुटने चलना , खड़ा होना और चलना... बढ़ने का हर कदम माँ के मन को वात्सल्य के रस से भर देता है । परिवर्तन के ये पल आहलादित करने वाले होते हैं । माँ तो यही चाहती है कि उसका बच्चा खूब आगे बढ़े , कहीं भी रहे बस उसके दिल के करीब रहे ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़
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