Sunday, 30 December 2018

नया वर्ष

वर्षांत या नए वर्ष का आगाज़.. विदाई और मिलन रूपी जीवन के दो पहलुओं  की सटीक व्याख्या करता है । अंत होने पर ही आरम्भ होता है , कुछ नया पाने के लिए पुरातन का मोह छोड़ना पड़ता है ...बस यही हम नहीं कर पाते । हम बहुत कुछ पुरानी चीजें भी पकड़े रहना चाहते हैं..और नया पाने को लालायित रहते हैं । क्या मुट्ठी बाँधे हुए कुछ और पकड़ा जा सकता है.. नहीं  ! उसके लिए मुठ्ठी तो खोलनी ही पड़ेगी । बीज को धरती में दबाने पर उसका अस्तित्व खत्म होता है तभी एक नये पौधे का जन्म होता है , यदि बीज अपने अस्तित्व मिटने के डर से मिट्टी में मिलने से इन्कार करे तो क्या उसका एक नया खूबसूरत परिवर्तन देखने को मिलेगा ? तो नये परिवर्तनों का स्वागत कीजिये यदि उसके लिए कुछ पुराना दांव पर लगाना पड़े फिर भी । वक्त की धरा में नई उम्मीदों  , आशाओं के बीज रोपिये...अपने स्नेह, कर्म व परिश्रम का सिंचन कीजिये और सफलता , खुशी , सन्तोषरूपी फल का आस्वादन कीजिए । सिर्फ यही नहीं जीवन का प्रत्येक वर्ष आपके लिए मुबारक हो इन्हीं शुभकामनाओं के साथ आपकी अपनी दीक्षा ।
31 / 12 / 2018

Unexpected friends ( संस्मरण )

#Unexpected friends #
दोस्ती का अर्थ ही है बिना किसी अपेक्षा के साथ निभाना... जहाँ अपेक्षा है , कुछ पाने की चाहत है वहाँ दोस्ती हो ही नहीं सकती । लेन - देन तो व्यापार में होता है , दोस्ती में हिसाब नहीं रखा जाता कि सामने वाले ने मेरे लिए कितना किया...। सच पूछें तो मुझे दोस्त बनाने में कभी यकीन नहीं  रहा क्योंकि कई लोगों को देखा जो अपने मतलब के लिए दोस्त बनाते हैं इसलिए मैं कभी किसी से उतना लगाव नहीं रखती थी । स्कूल में मेरे सबसे मधुर सम्बन्ध रहे पर पक्की दोस्ती वाली बात कहीं नहीं रही । जब पी. जी. करने रायपुर गई तो मेरे कमरे के बगल में कोरबा की रेखा रहने आई । एक ही विषय , एक कक्षा तो साथ - साथ आने - जाने , खाने लगे । वह मेरा बहुत खयाल रखती , मेरे बारे में हमेशा अच्छा ही सोचती , मेरी सुविधाओं के बारे में सोचकर ही हर काम करती पर मेरे मन में पहले से ही धारणा थी कि अधिक लगाव रखने से स्वयं को ही तकलीफ होती है तो मैं उसे ज्यादा भाव नहीं देती थी और मेरे अपने सभी क्लासमेट्स से अच्छे सम्बन्ध थे तो मैं उसके लिए कोई विशेष महत्व नहीं दिखाती थी । पर उसे मुझसे विशेष लगाव बना रहा और उसने अपना  स्वभाव नहीं बदला..पढ़ाई पूरी होने के बाद जाते हुए उसने मुझे जो कहा , उसने मेरी धारणा बदल दी । पता नहीं तू मुझे याद करेगी कि नहीं लेकिन मैं तुझे बहुत मिस करूँगी । जिसे दूसरों का बहुत प्यार मिलता है उसे उसकी कद्र नहीं होती , तुझे हर किसी से बहुत प्यार मिलता है इसलिए तू बहुत लापरवाह रहती है। जिनके पास अच्छे दोस्त नहीं होते उनसे पूछना , एक अच्छा दोस्त खोना कितना दुख देता है । उसकी बातों ने मेरी आँखों में आँसू ला दिये.. सच में उसके जीवन में बहुत संघर्ष और विपरीत परिस्थितिया आई..चालीस वर्ष की उम्र में उसने अपने पति को खो दिया  और इस दुःख की घड़ी में मैं उसके साथ हूँ ।  मुझे खुशी है कि सही समय में मैंने दोस्ती का अर्थ जान लिया और आज भी  हमारी दोस्ती बरकरार है । अब मेरे बहुत सारे दोस्त हैं ।
स्वरचित ...डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 29 December 2018

आजा घरे म हमार

पुन्नी कस उजियार ,
तोर रूप ओ रानी...
आजा घरे  म हमार ,
संवर  जाय  जिनगानी...
नागिन सही चुन्दी तोर ,
बादर ला लजावत हे...
तोर आँखि के दाहरा म ,
मन मछरी फड़फड़ावत हे..
अपन रूप के दरस कराके ,
एला पिया दे पानी...
आजा घरे मा हमार ,
सुधर जाय जिनगानी ।।
मुड़ म पानी बोह के तेहा ,
कनिहा ल मटकाथस वो...
सुध बुध ल गंवा देथस मोला ,
रद्दा ले भटकाथस वो...
थाम ले मोर बांहा ला ,
संगे चलबो दुनों परानी...।
आजा घरे मा हमार ,
सुधर जाय जिनगानी ।।
मनमोहिनी तोर रूप ह ,
आँखि म मोर बस गे हे...
मोर  करेजा के हिरना ल ,
नैन बान तोर लग गे हे...
तोर पिरीत के अंचरा म ,
बांध के ले जा मोर जवानी..।
आजा घरे मा हमार ,
संवर जाय जिनगानी ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़



Wednesday, 26 December 2018

कल जब मैं नहीं रहूँगी 2

सोचती हूँ ,
कल जब मैं नहीं रहूँगी...
उलझे पड़े रहेंगे चादर ,
यहाँ वहाँ बिखरे होंगे सामान..
घर भले ही बिखरा हो ,
परिवार बिखरने मत देना...
स्नेह- डोर में बंधे रहना...
रोज सफाई न कर पाओ ,
आँगन में रंगोली न बनाओ..
पर पौधों को पानी देते रहना ,
फूलों को कुम्हलाने मत देना..
रात को थकहार कर आओगे ,
ढूंढोगे पर मुझे न पाओगे...
मन को उदास मत करना ,
अपनी मुस्कान में मुझे महसूसना..
घूम आना किसी ऐतिहासिक जगह ,
पढ़ना पत्थरों पर लिखी इबारतें..
देखना इमारतों की नक्काशियाँ ,
वहीं कहीं होऊँगी आस - पास
अपनी आँखों में ,
मेरे ख्वाब मुकम्मल करना..
उदास मत होना...

Monday, 24 December 2018

कल जब मैं नहीं रहूँगी

सोचती हूँ कल जब मैं नहीं रहूँगी..
तो क्या होगा..
नहीं थमेगा वक्त का पहिया ,
नहीं रुकेगा कोई काम..
दुनिया को क्या फर्क पड़ता है ,
किसी के होने न होने से...
पर , कोई दोस्त याद तो करेगा न ,
अपने जन्मदिन पर
मेरी शुभकामनाएं न मिलने  से...
पिता तो याद करेंगे ,
उनके स्वास्थ्य के लिए ,
चिंतित होती , परेशान होती ,
अपनी बेटी की नादानियों को...
माँ क्या भूल पायेगी ,
वो लाड़ - दुलार , मनुहारें ,
बेटी की अनगिन कहानियाँ...
भाई क्या याद न करेंगे ,
वो रूठना - मनाना ,
साथ खाना , खेलना
त्यौहारों की रवायतें...
बहन भूल तो नहीं पाएगी ,
मेरी  प्यार भरी शरारतें ,
खट्टी - मीठी यादों की साझेदारी ,
ख्वाबों  ख्वाहिशों की हिस्सेदारी...
वो खास सहेली पहचान लेगी न
हवा में घुली मेरी गन्ध ,
जो पहचान लेती थी छूकर
उसकी आँखों को मूंदे मेरे हाथ...
वो बगीचे के गुलाब ,
फिर बिखरायेंगे वही मुस्कान ,
वही भीनी सी मोगरे की गंध
सहला जायेगी मेरा आँचल..
बिखर जाऊँगी मैं बीज बनकर ,
खेतों - खलिहानों में ,
सावन की पहली बारिश से ,
मिट्टी की सोंधी महक  में घुल जाऊँगी...
अंकुरित , पल्लवित हो ,
फूल बन कर मुस्कुराउंगी...
हाँ , इस धरा पर मैं फिर आऊँगी...

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 16 December 2018

अंतिम विदाई

अंतिम विदाई

दुश्मनों के आगे शीश नहीं झुकाया है ,
माँ की कोख को कभी नहीं लजाया है ,
जरा  मैं उसकी  आरती उतार लूँ...
बेटा तिरंगे में सज कर आया है ,
जरा ठहरो ! उसे जी भर  निहार लूँ...
सौ - सौ मनौतियाँ मानकर ,
ईश्वर से  उसे माँगा था..
बाँधे थे कई ताबीज ,
काजल का टीका लगाया था.. 
सुशोभित उस वीर की ,
आज फिर नजरें उतार लूँ...
बेटा तिरंगे में सजकर आया है ,
जरा ठहरो ! उसे जी भर निहार लूँ ..।
खेल कर बाहर से ,
जब भी घर आता था...
माँ तेरी गोद भली है ,
कह मुझसे लिपट जाता था...
चिरनिद्रा में सो गया  वह ,
जरा उसकी अलकें सँवार लूँ...
बेटा तिरंगे में सजकर आया है ,
जरा ठहरो ! उसे जी भर निहार लूँ..
उंगली मेरी थाम ,
उसने चलना सीखा था...
संघर्ष ,परिश्रम  कर ,
जीवन जीना सीखा था..
अंतिम सफर पर निकला है  ,
यह सुन्दर छवि सीने में उतार लूँ....
बेटा तिरंगे में सजकर आया है ,
जरा ठहरो! उसे जी भर निहार लूँ...
मेरे लाल पर तन - मन -धन  वार दूँ...

स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 8 December 2018

फैसला ( लघुकथा )

लप्रेक ( लघु प्रेम कथा )
अदालत द्वारा दी गई एक महीने की मोहलत का आखिरी दिन...उन्होंने  प्रेम विवाह किया था...उसके बाद परिवारों की दखलंदाजी और गलतफहमियों के कारण दोनों के बीच दूरियाँ आती गई । रिश्ते इतने  उलझ गए थे कि सुलझाते - सुलझाते बहुत देर हो गई ।एक - दूसरे पर तोहमत लगाते  थक गए थे वे पर दिलों में झाँकने  की कोशिश नहीं कर पाये । आज चलते - चलते एक - दूसरे की आँखों में देख रहे थे वे अपना प्यार भरा अतीत...मीठी यादों ने वर्तमान की सारी कड़वाहटें भुला दी ...दिलों पर जमी  गलतफहमियों , शिकायतों की गर्द आँसुओं से धुल चुकी थी... फैसला हो गया था , लड़ेंगे , झगड़ेंगे पर साथ रहेंगे...प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए शब्दों की जरूरत नहीं थी...
गहराइयों ने आँखों की , दिल का हाल कह दिया...
लब खामोश रहे ,ढलते आँसुओं ने जज्बात कह दिया...
स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 4 December 2018

वो माँ है ( लघुकथा )

ट्यूशन क्लास में पहुँचकर अमित  बड़बड़ा रहा था.. अरे क्या हुआ ! नवीन ने पूछा । सिविल लाइंस के पास एक  आंटी अक्सर मुझे रोक कर मोबाइल पर बात करते हुए गाड़ी नहीं चलाने के लिए भाषण देती है ,... हाँ हाँ हमें भी उन्होंने टोका था  उसकी बात सुनकर अजय , राकेश और सुमित भी वहाँ आ गए थे । आजकल लोगों  पर न ...समाजसेवा का भूत सवार हो गया है.. अमित ने कहा । उन सबकी बातें सुनता अखिल बोल पड़ा... तुम लोग  ऐसा कैसे बोल सकते हो  , वो माँ है यार ..दो वर्ष पहले लापरवाही से गाड़ी चलाने के कारण उनके इकलौते बेटे की सड़क - दुर्घटना में  मौत हो गई थी... बस ,अब वह यही कोशिश करती है कि किसी और बेटे की जान न जाये ...। अमित और उसके दोस्तों की आँखें नम हो आई थी... उन्हें अपने ही  कहे गए शब्द चुभ रहे थे ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 29 November 2018

उसकी साड़ी ( लघुकथा )

ये औरतें भी ना ! बड़ी अजीब होती हैं... अपने पास कितनी भी अच्छी साड़ियाँ हों , उन्हें दूसरों की साड़ी ही अच्छी लगती है । विभा  भी  उनमें से ही एक थी , आज की पार्टी की कितनी तैयारी की थी उसने...पर स्वधा को देखते ही उसका कॉन्फिडेंस हिल गया..ओह! उसने आज नीली कांजीवरम पहनी थी सुनहरे बॉर्डर वाली...कितनी सुन्दर लग रही थी । बहुत देर दूर से ही घूरती रही उसे , फिर  उससे रहा नहीं गया...उसके पास जाकर पूछ ही लिया ...यह साड़ी कहाँ से  खरीदी तुमने
बेहद खूबसूरत है । पर जवाब में स्वधा ने जो कहा वह अप्रत्याशित था उसके लिये... अरे विभा , तुमने  कितने यूनिक कलर की साड़ी पहनी है आज...मुझे बहुत पसंद है कॉफी कलर...मैं तो कब से बस तुम्हीं को निहार रही हूँ । अच्छा ऐसा क्या...सुनकर गदगद हो गई विभा..लगा उसकी तैयारी सार्थक हो गई और कुछ देर के लिए उसकी खुशी का ठिकाना न रहा...देखा ...वाली गर्वीली आँखों से पति की तरफ देखने लगी ।  उसके पतिदेव सोच रहे थे ...जाने कब तक  बरकरार रहेगी यह खुशी ...शायद अगली खूबसूरत साड़ी दिखने तक ...भगवान जाने कितनी देर...☺️

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 25 November 2018

छुट्टी के मायने ( लघुकथा )

आज संडे है ....रेणु और राजीव  दोनों की छुट्टी  रहती है । आठ बजे सोकर उठे पतिदेव को चाय का कप थमाते हुए रेणु ने याद दिलाया..न्यूजपेपर  बेचना था जी , ढेर सारे हो गए हैं । आज नहीं जाऊंगा यार ...फिर कभी । नाश्ते के बाद सोने का दूसरा दौर और खाने के बाद तीसरी झपकी होने पर ही छुट्टी सार्थक लगती है राजीव को और रेणु... छुट्टी के मायने पुरुषों के लिए आराम और  महिलाओं , चाहे घरेलू हों या कामकाजी उनके लिए ढेर सारे  काम। । सुबह उठकर पूरे सप्ताह के कपड़े धोना , नाश्ता बनाना , सिंक , चिमनी , रसोई , बाथरूम की सफाई करना , फिर खाना बनाना इतने  सारे काम निपटा कर बिस्तर पर लेटी तो कमर दर्द के कारण  आह  निकल पड़ी । बिस्तर पर लेटते ही जैसे मच्छर आसपास घूमने लगते हैं वैसे ही पेंडिंग  काम याद आने लगते हैं.. ओह ! रात  के लिए सब्जी नहीं है..गेहूँ पिसवाना है और सूखे कपडे निकालने हैं.. उसने
कम्बल सिर के ऊपर तान लिया और आँखें बंद कर ली...मच्छरों से बचने के लिए या पेंडिंग कामों से ....।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , छत्तीसगढ़

Saturday, 24 November 2018

आज फिर गुलमोहर ने अर्जी दी है

याद है तुम्हे वो दिन जब हम मिले थे ,
दिलों में प्रीत के सुरभित गुल खिले थे...
पतझड़ का  ज्यों हुआ अंत था ,
जीवन में फिर आया वसन्त था...
महका - महका सा  लगे पवन ,
बहका - बहका  मदमस्त यौवन...
चारों तरफ यूँ  बहार  छाई थी ,
ख्वाहिशें मिलन की प्यार ले आई थी ...
पाया था तुम्हारा खूबसूरत साथ  ,
आँचल भर लाया खुशियों की सौगात...
उमंगों की बदली मन में छाई थी ,
खुशियों की रिमझिम बरसात ले आई थी....
खिली हर कली तितली हँसी थी ,
भँवरों की जान फूलों पर अटकी थी...
अंधेरी रातों में चाँदनी मुस्काई थी ,
जिंदगी जीने की एक नई वजह पाई थी...
क्यों भूल गए तुम वो वादे मोहब्बत के ,
धूमिल  क्यों  हो गए वो अफ़साने चाहत के...
दुनिया के रस्मो - रिवाजों ने
दिलों में दूरियाँ पैदा कर दी हैं...
पतझड़ ने गिरा दिये सारे पत्ते  ,
सुर्ख लाल फूलों ने शाखें ढक दी हैं...
वसन्त के  आगमन को ,
आज गुलमोहर ने फिर अर्जी दी है...
बहारों  की ऋतु ने ही नहीं ,
एहसासों ने भी दिलों पर दस्तक दी है...

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 17 November 2018

जीवन ऐसे जिया तो


क्या पाया सताकर  लोगों को ,
सुख - चैन सब खो गया ।
भर ली तिजोरी  धन  से
पर मन  तो रीता  रह गया ।
छल कर जीत ली दुनिया
दिलों को जीत न पाया ।
महल हो गई कुटिया
मन भर क्या रह पाया ।
अपना ईमान बेचकर
ऐशो आराम खरीद लिया ।
स्वाभिमान को मारकर
मान - सम्मान कमा पाया ।
जीवन ऐसे जिया तो
मानव  जन्म अधूरा लगता है।
साथ नहीं कुछ जायेगा
देह  कुविचारों का घूरा लगता है
झूठ , बेईमानी  , अहंकार भरा यह
श्मशान घाट की  ठंडी राख का चूरा लगता है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 13 November 2018

छठ पर्व

प्रतियोगिता 31
छठ पर्व
प्रकृति और मानव के अटूट रिश्तों का पर्व है यह...मनुष्य प्रकृति के उपादानों पर निर्भर है... उसके हर क्रियाकलाप चाँद , सूरज , अम्बर , धरा , पेड़ - पौधे , अग्नि ,पवन , जल  इत्यादि  के आस - पास ही घटित होते हैं । प्रकृति और मनुष्य एक - दूसरे के पूरक हैं और प्रकृति के संरक्षण के द्वारा ही मनुष्य अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकता है । हमारी परम्पराएं हमें प्रकृति से जोड़ती हैं  हमारे संस्कार हमें उनका आदर करना सिखाते हैं । छठ पर्व भी उनमें से एक है जब मनुष्य अपने परिवार की सुख समृद्धि के लिये सूर्य देव की शरण में जाता है । छठ देवी सूर्य की बहन है और पौराणिक कथाओं में सन्तान की सुरक्षा , स्वास्थ्य हेतु उनकी आराधना का विधान है ।
     छठ पर्व  का प्रारंभ शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को होता है जिसे नहाय खाय का दिन कहा जाता है...उपवास करने वाली स्त्रियाँ नदी या तालाब में स्नान कर अपने तन और मन को शुद्ध करती हैं  और दाल चावल का भोजन करती हैं.. पंचमी तिथि को निर्जला व्रत करती हैं जिसे खरना कहा जाता है.. तीसरे दिन षष्ठी को नदी के घाट पर जाकर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्ध्य देकर अपने पूजन को पूर्णता प्रदान  करती  हैं... चौथे दिन सप्तमी तिथि को उगते सूर्य के पूजन के पश्चात केला , सेब व गन्ने का भोग -  प्रसादी ग्रहण करती हैं । इस पूरे व्रत की विधि में शुद्धता व पवित्रता पर बल दिया जाता है , इसके प्रसाद को बहुत सावधानी से , अपने हाथों से सफाई के साथ तैयार किया जाता है । अपनी संतान की रक्षा , परिवार की सुख समृद्धि  की  मंगल कामना करते हुए महिलाएं छठी देवी की प्रार्थना करती हैं , मंगल गीत गाते हुए व्रत करती हैं और तन मन की पवित्रता के साथ , श्रद्धा पूर्ण वातावरण में पूजन विधि को सम्पन्न करती हैं ।

छठ मैया करना अमर सुहाग..
तोहरे दरस से जागे भाग...
सुख - समृद्धि से भरे अंगना..
बाढे  खेले मोर ललना ....
तोहरे कृपा से मिटे सन्ताप...
जग में सदा रहे पुण्य प्रताप..
सूर्यदेव अर्ध्य करो स्वीकार..
धन्य करो जिंदगी हमार..
दुख - दारिद्र्य मिटा देना...
सबको मनवांछित फल देना...
सदा अपनी शरण रखना..
भूल हमारी क्षमा करना...🙏🙏

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 8 November 2018

हर बार ( लघुकथा )

पिछले कई दिनों से दीपावली की तैयारी में जुटी प्रियल थककर चूर हो गई थी । सफाई है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती और हर बार कुछ न कुछ रह ही जाता है । इस बार प्रियल ने पूरे घर को जगमगाने की तैयारी की थी ...छुट्टियाँ लगने के बाद ही सही तरीके से काम हो पाता है , उसके पहले तो बस छोटे - मोटे काम होते रहते हैं । चलो इसी बहाने फालतू चीजें बाहर निकल जाती हैं और घर  साफ - सुथरा लगता है । दीपावली के दिन सुबह से लक्ष्मी जी के पूजन की तैयारियाँ करते- करते  प्रियल के हाथ -  पैर जवाब देने लगे थे । रात को दिये जलाने के बाद बड़ी हसरत से अपनी नई साड़ी के साथ पहनने के लिए खूब ढूँढ-ढूँढ कर खरीदी गई चूड़ियों और आभूषणों  की ओर देख रही थी पर  थके  हुए शरीर  ने  बिल्कुल साथ न दिया..और  जैसे - तैसे तैयार होकर उसने पूजा की । कोई न कोई कसर रह जाती है हर बार....सारे काम तो हो जाते हैं पर उसका अपना  ही  कुछ छूट जाता है ..न पार्लर जा पाई... न कहीं और... अच्छे से तैयार होने की साध तो पूरी नहीं  कर पाई ...पर  अपने चमकते - दमकते आशियाने को देखकर उसने संतोष भरी  राहत की  साँस ली और  दर्द भरी पिंडलियों में मालिश करने लगी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 4 November 2018

धन तेरस

काव्यमाला 17
विषय  - धन तेरस (फटीचर जेब )

हे धन्वन्तरि...
शुभागमन आपका
पावन दिवस , पावन बेला
शरद मनभावन , मन डोला ।
चहुँ ओर रौनक छाई
खुशियों की बेला आई ।
रंगोली से सजे घर - आँगन
तरंगित आबाल वृद्ध यौवन ।
जगमग दीपों की कतारें
श्रद्धा , स्नेह की पुकारें
वैभव  सुख  की दरकार
समृद्धि आये घर द्वार ।
किसी के पास सब कुछ
किसी की जेब खाली ।
हे ईश्वर ! कर दे ऐसा चमत्कार
किसी की फीकी न हो दिवाली ।
सम्पन्न हों या फटीचर जेब
सबको खुशियाँ भेज ।
सब तेरी ही सन्तान
दे सबको यश , मान सम्मान ।
भूखे पेट न सोये कोई
पाये जीवन का सुख हर कोई ।
है यही प्रार्थना तुझसे
सबके घर धन, सुख बरसे ।।

आप सभी को दीपावली की शुभकामनाएं
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 26 October 2018

अप्रत्याशित घटना ( संस्मरण )

मुझे लिखने में देर हो गई पर इस घटना से  एक सीख मिलती है इसलिए इसका जिक्र कर रही हूँ ।  आज से दो वर्ष पूर्व की घटना है । हम लोग सपरिवार दुर्ग से बिलासपुर जा रहे थे , जिस  ट्रेन से हमें जाना था वह लगभग दो घण्टे लेट हो गई और उसके बाद आने वाली ट्रेन प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी । पतिदेव टीटीई से बात कर रहे थे , बच्चे भी उन्हीं के साथ थे , सीट कन्फर्म होने पर उन्होंने मुझे फोन किया कि मैं जहाँ पर खड़ी थी वहीं से ट्रेन में चढ़ जाऊँ क्योंकि वे मुझसे काफी दूरी पर थे और ट्रेन छूटने लगी थी । पति और बच्चों को ट्रेन में चढ़ते देखकर मैं हड़बड़ा गई कि कहीं छूट न जाऊँ ...मेरे .एक हाथ में बैग और दूसरे हाथ में मोबाइल..जल्दबाजी में मोबाइल पकड़े हुए ट्रेन के डिब्बे का हैंडल पकड़ा...परन्तु मेरे चढ़ते ही ट्रेन छूट पड़ी..झटके के कारण मेरा हाथ छूटने ही वाला था कि अप्रत्याशित रूप से डिब्बे में खड़े किसी व्यक्ति ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे ऊपर खींच लिया...मैं कुछ पल के लिए चेतना शून्य की स्थिति में आ गई थी क्योंकि मुझे महसूस हुआ था कि अब तो मैं गई...लगा जैसे मौत से साक्षात्कार हो गया हो । अगले स्टेशन में पति और बच्चे मिल गए और सीट भी .. एक बड़ा हादसा  टल गया था पर उसका डर मुझे अब भी सताता है  और मैंने चलती ट्रेन में कभी भी नहीं चढ़ने की कसम खा ली है । आनन - फानन में ट्रेन बदलने का निर्णय लेने  के लिए  पतिदेव से मेरी नाराजगी बनी रही और बिलासपुर पहुँचने तक मैंने उनसे बात नहीं की । आप सभी से अनुरोध है कि किसी भी परिस्थिति में अपनी जान को खतरे में न डालें ...जीवन बहुमूल्य है अपने लिए भी... अपनों के लिए भी ।
डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 18 October 2018

एक प्रेम कहानी का अंत ( कहानी )

तुम्हें जाना , तुम्हें चाहा , तुम्हें पूजा मैंने ..
बस एक यही खता थी मेरी , और खता क्या...
  शायद पूजा की रूह यही सवाल कर रही होगी सार्थक से और सार्थक...उसके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है । प्रेम क्या इतना स्वार्थी हो सकता है... किसी को पाने का इतना जुनून कि सही गलत का ध्यान ही न रहे । जिसे अपनी जान से अधिक चाहने का दावा करते हैं . उसे कैसे नुकसान पहुंचा सकते हैं ये । खोने - पाने से परे रूहानी प्रेम का  दौर अब नहीं रहा...प्रेम में धोखा देना...एकतरफा प्रेम में पड़कर किसी मासूम चेहरे को तेजाब से जला देना , वर्तमान समय में प्रेम का यह कैसा वीभत्स  चेहरा देखने को मिल रहा है... सार्थक को बेड़ियों में जकड़कर ले जाते हुए देखकर चारों तरफ आज यही चर्चा हो रही थी ।
      सार्थक और पूजा आठ वर्षों से एक - दूसरे को जानते थे , उनके घर आस- पास तो थे ही ,स्कूल, कॉलेज की पढ़ाई भी उन्होंने एक साथ  की । दोस्ती और अधिक लम्बे साथ ने कब उनके रिश्ते को प्रगाढ़ कर दिया था , इस बात का उन्हें पता ही नहीं चला । कॉलेज की पिकनिक हो या किसी दोस्त की जन्मदिन की पार्टी , सार्थक के साथ होने पर अपने - आपको सुरक्षित महसूस करती थी पूजा और उसके मम्मी - पापा भी उसके साथ  कहीं भी भेजने में हिचकिचाते नहीं थे ।
        उनकी आँखों में सुनहरे भविष्य के ख्वाब सजने लगे थे...दिलों के तार में  प्रेम की रागिनियाँ अंगड़ाई लेने लगी थी... दुनिया की हर शै खूबसूरत लगने लगी थी...यह वय ही ऐसी होती है कि  अपने प्रिय की हर बात सुहाने लगती है...कमियाँ तो दिखती ही नहीं या उनकी आँखें देखना ही नहीं चाहती ।उन्होंने अपने  प्रेम की दुनिया बसाने का निर्णय कर लिया था ।
    पढ़ाई के बाद नौकरी के लिए दोनों प्रयास कर रहे थे, कई बार निराशा के दौर आये पर दोनों  एक - दूसरे की हिम्मत बने रहे । एक - दूसरे के सुख - दुःख में साथ निभाने का वादा किया था उन्होंने । अपने लक्ष्य को पाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे थे वे दोनों और उनके परिश्रम का सुखद फल भी उन्हें मिल गया । दोनों को एक ही विभाग में नौकरी मिल गई थी । अब तो कोई बाधा नहीं थी , बस दोनों परिवारों  की सहमति चाहिए थी और उन दोनों की वर्षों की दोस्ती को रिश्ते में बदलने में कोई कठिनाई नजर नहीं आ रही थी । कई बार राहों में आने वाले रोड़े नजर नहीं आते पर उनकी वजह से हमें ठोकर लग जाती है और कदम लड़खड़ा जाते हैं । ऐसा ही कुछ उनके साथ हुआ ।
      सार्थक का जो  अटेंशन पूजा को सुखद अनुभूतियों से भर देता था , वही अब उसे बन्धन लगने लगा था...इतना अधिक पसेसिवनेस... कभी - कभी पूजा को अजीब लगने लगता था । नौकरी करने के साथ प्राथमिकताएं स्वाभाविक रूप से बदल जाती हैं परन्तु सार्थक को उससे शिकायतें रहने लगी थी । जीवनसाथी बनने के निर्णय ने शायद उसे अधिक अपनेपन और अधिकार का एहसास कराया था कि वह पूजा को एक मिनट के लिए भी  अपनी नज़रों से ओझल नहीं होने देना चाहता था ।
        पूजा ने महसूस किया कि सार्थक स्वयं तो आजाद पंछी की तरह उड़ना चाहता है  परन्तु उस पर कई तरह की पाबन्दियाँ लगाता है । प्रेम तो मुक्त करता है , किसी को बाँधता नहीं ....उसने कभी भी सार्थक को बाँधने की कोशिश नहीं की । उसे अपने प्यार पर विश्वास था और जहाँ विश्वास है वहाँ किस बात का डर ? कॉलेज में एकदम स्वतंत्र व्यवहार रखनेवाला सार्थक आज पूजा को अपने सहयोगियों से घुलने - मिलने पर टोकने लगा था । शादी से पहले ही उसका पागलपन देखकर भयभीत हो गई थी पूजा और अब वह इस रिश्ते से बच रही थी... वह चाहती थी कि सार्थक उसकी भावनाओं को समझे और शादी के बाद भी वे अच्छे दोस्त बने रहें ...लेकिन अभी वह इस रिश्ते में नहीं बंधना चाहती ।सार्थक उसके इस निर्णय से तिलमिला उठा था..उसे अब किसी भी कीमत पर पूजा से अलग रहना गवारा नहीं था । उस दिन खूब लड़कर गया था सार्थक उससे और पूजा का दर्द इन शब्दों में उभर आया था...
  काश ! मैं जिंदा न होती...
जब भी  आँखों को बंद करती हूँ ,
गहरा अंधेरा देखती हूँ...
मैं अपने तमाम डर के ,बोझ तले दब गई हूँ...
यहाँ रहने से डरती हूँ ,
हम कभी साथ में खिलौनों से खेलते थे..
और अब खुद खिलौना बन गए हैं ,
सच में लड़के तो लड़के ही होते हैं...
और हम लड़कियाँ अपनी बात कह भी नहीं पाती ।।
    उस दिन पूजा सार्थक से अपने मन की बात कहने गई थी इन्हीं कुछ शब्दों में.... और वह बर्दाश्त न कर
सका था... क्रोध और आवेश दिग्भ्रमित कर देता है... क्यों पूजा ...आखिर क्यों , यह प्रश्न पूछ्ते हुए अचानक उसकी हथेलियाँ पूजा के गले पर कसती गई...इतना कि पूजा अनुत्तरित रह गई । जब तक वह होश में आता पूजा उसे छोड़कर जा चुकी थी...हमेशा के लिए । हाँ.. यह प्रश्न छोड़कर कि क्या इस प्रेम कहानी का यही अंत होना था ।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 16 October 2018

अच्छाई का उजाला ( लघुकथा )

  राहुल अपनी दुकान बंद करके लौट रहा था  । रास्ते में
उसे एक थैला मिला ...डरते हुए खोलकर देखा तो चकित रह गया... उसमें रुपयों  का एक बड़ा बंडल एक कपड़े में लपेट कर रखा गया था । अचानक इतने रुपये मिलने पर उसका मन प्रसन्न हो गया क्योंकि त्योहार सामने था और उसकी आर्थिक स्थिति खराब थी । लगता है ईश्वर ने उसकी विपत्ति दूर करने के लिए ही यह व्यवस्था की है । घर पहुँचकर पत्नी रमा से सब हाल कह सुनाया और बहुत सम्भालकर रुपयों को ट्रंक में रख दिया । रमा  की बातों  ने सिक्के के दूसरे पहलू की ओर उसका ध्यान खींचा  -
आपको रुपये मिले तो आप खुश हो रहे हैं लेकिन सोचिए जिसके रुपये गुम  हुए हैं वो कितनी तकलीफ में होंगे , शायद ये उसके जीवन भर की कमाई होगी या उसने किसी जरूरी काम के लिए लोन लिया होगा ।
हाँ रमा , तुम कह तो सही रही हो पर इतने बड़े शहर में यह पता लगाना बहुत  मुश्किल होगा कि  इसका असली मालिक कौन है । समय गुजरता  गया , उन पैसों का उपयोग कर राहुल ने अपना व्यवसाय बढ़ा लिया... लेकिन  एक निश्चित रकम वह बैंक में जमा करता गया ताकि कभी उस कर्ज को वापस भी कर पाये । कुछ कल्याणकारी कार्यों के लिए भी उसने रुपये खर्च किये ।
पर उसका मन एक बोझ  महसूस करता कि मिले हुए रुपयों के असली मालिक को ढूँढने का उसने प्रयास नहीं किया । एक दिन अपने दुकान के पास उसने एक बुजुर्ग को कुछ ढूँढते देखा ...वह अपनी बेटी की शादी के लिए  बैंक से रुपये निकालने  आये थे और वह कहीं खो गए थे । जिंदगी भर की जमापूंजी वक्त पर काम नहीं आई , शादी में अधिक दिन भी नहीं रह गए थे ..अब खुदकुशी करने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था । राहुल को  ईश्वर की मर्जी समझ आ गई थी... ईश्वर चाहता है कि मैं उस वृद्ध की मदद करूँ तभी तो यह घटना उसके दुकान के सामने ही हुई । राहुल ने उस वृद्ध को अपने घर ले जाकर खाना खिलाया और उनके विश्राम करते तक बैंक में जमा रुपये उसे लाकर दे दिए । वे बुजुर्ग उसे देखते ही रह गए , बेटा तुम भगवान बन कर मेरी मदद करने आ गए... मैं तुम्हारा यह एहसान कैसे उतारूंगा । नहीं बाबा , आपको  ये रुपये वापस करने की कोई आवश्यकता नहीं.. मेरी जरूरत के वक्त ईश्वर ने ये रुपये मुझ तक भिजवाए थे , अब वो आपको भिजवा रहे हैं । मैं तो सिर्फ एक माध्यम हूँ ...बाद में आपको कभी कोई जरूरतमंद दिखे तो  आप उसकी मदद कर दीजियेगा... अच्छाई का उजाला  जितना फैलेगा , बुराई का अंधकार क्षेत्र कम होते जाएगा । मानवता की यही पहचान है और इस पहचान को बनाये रखने के लिए छोटा सा प्रयास तो सबको करना ही होगा । बुजुर्ग की आँखों से आँसू अनवरत बह रहे थे... उन्होंने राहुल का माथा चूम लिया और उस पर अपने आशीषों की बारिश कर दी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़