Tuesday, 29 May 2018

मिलनयामिनी ( लघुकथा )


  मिलनयामिनी ( लघुकथा )

आज  निशा और  रवि  की मिलन की रात थी ...घर के ऊपरी मंजिल पर था उनका कमरा... निशा कुछ पल के लिए बालकनी में आई और आसमान की ओर देखकर मानो निःशब्द हो गई.. पूनम के चाँद की  दूधिया रोशनी में आसमान नहाया हुआ था... तारे यहाँ - वहाँ छिटक कर  मानो लुकाछिपी का खेल खेल रहे हों ... घर की बाउंड्रीवाल पर चढ़ी मधुमालती के फूलों  की भीनी खुशबू मदहोश किये जा रही थी... निशा मन्त्र - मुग्ध सी  प्रकृति की खूबसूरती में इतनी  डूबी हुई थी कि उसे पता ही नहीं चला कब  रवि अंदर आ गया है और निशा  को निहार रहा है.. अचानक उस से निगाहें मिली और शर्म से झुक गई । पीछे से आकर अपनी बाहों में भर लिया था उसने निशा को... थैक्स टू यू... उस दिन तुमने पहल नहीं की होती तो आज मिलन की यह रात नहीं आई होती..  हिम्मत तो करनी ही थी...ऐसे कैसे जाने देती आपको..खिलखिला उठे थे वे दोनो ...दरअसल  मध्यस्थता करने वाले उनके एक रिश्तेदार ने  उनके बीच कुछ गलतफहमियां पैदा कर दी थी और दोनों परिवार यह समझ रहे थे कि सामने वाले ने उन्हें रिजेक्ट किया है । तब निशा ने ही रवि को फोन किया था यह जानने के लिए कि ऐसी क्या बात हो गई कि उन्होंने शादी के लिए मना कर दिया ...तब जाकर उन्हें असलियत मालूम हुई और उनकी गलतफहमियां दूर हुई  और वे जीवनसाथी बनकर एक राह पर चल पड़े । प्यार व विश्वास के साथ आज वे एक नई शुरुआत करने जा रहे थे... चाँद  अपने प्यार की चाँदनी  बरसा रहा था  और  मधुमालती अपनी खुशबू... दिलों की वीणा के तार झंकृत हो उठे थे... एहसासों की  महक के साथ मिलनयामिनी और भी खूबसूरत हो चली थी ।

स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 28 May 2018

निशा

चाँदनी चूनर ओढ़े...
सितारे जड़े आभूषण....
मद्धिम -मद्धिम
पिया मिलन को
चली दुल्हन...
जीवों ने साध लिया मौन
शीतल हुई पवन...
फूलों ने शृंगार किया ,
महका महका चमन....

Sunday, 27 May 2018

पिघलती वेदना ( लघुकथा )

जब  अंशिका की माँ का  निधन हुआ तो  उसकी गर्भावस्था के नौ महीने  चल रहे थे... बहुत ही विकट स्थिति थी...वह  उनके अंतिम संस्कार के कार्यक्रम में शामिल नहीं हो पाई...न ही उनके अंतिम दर्शन कर पाई । मन अत्यंत व्यथित था...माँ की यादें रुला रही थीं और बच्चे की फिक्र रोने नहीं दे रही थी । दिल के किसी कोने में पीड़ा जम सी गई थी... अंशिका परेशान थी , बेचैनी के कारण न उसे सोते बन रहा था न बैठते । उसके पति माँ के अंतिम संस्कार के लिए गए हुए थे ...दूसरे दिन लौटे तो चुप से ही रहे । शायद अंशिका की हालत देखकर  कुछ बोलते न बना...पर उसकी व्यथा लाल आँखों और अस्त - व्यस्त सी हालत से  वे समझ गए थे । उनके बीच कुछ सम्वाद तो हुआ नहीं पर यदि दिलों में प्रेम हो तो संवादों के किसी पुल की आवश्यकता ही नहीं होती ।
बस , अपनी बाहों में भर लिया था उन्होंने अंशिका को...मानो उसे निश्चिंत कर रहे हों कि किसी बात की फिक्र न करो..मैं हूँ न तुम्हारे पास । स्नेह , विश्वास भरे बाहों के  घेरे में , पति के चौड़े सीने से लगकर  अंशिका के मन में जमी वेदना पिघलने लगी थी और अश्रु बहने लगे थे ....कतरे - कतरे दर्द बिखर रहा था और वह  रुई के फाहे की तरह हल्की हो उड़ चली थी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

किस्से सुखीराम के भाग - 3

किस्से सुखीराम के भाग 3
   उस दिन सुखीराम घर पर ही थे...समाचार पत्र लेकर आँगन में बैठे ही थे कि पड़ोस के घर से वाद - विवाद के स्वर सुनाई पड़े...उनकी पत्नी ने भी कई बार जिक्र किया था कि पड़ोस के घर में किराए पर रहने आये दम्पत्ति आपस में बहुत झगड़ते हैं और पूरा मोहल्ला उनके बीच होते झगड़े का आनन्द लेता है.. और उनका मजाक भी खूब उड़ाया जाता है । क्या वे इस बात से अनजान होंगे कि बाहर सभी उनकी बातें सुन रहे हैं फिर भी वे ऐसी हरकतें क्यों करते हैं? पत्नी  कृष्णा ने उनसे सवाल किया । गुस्सा.. कृष्णा ...क्रोध मनुष्य की सोचने समझने की शक्ति को नष्ट कर देता है फिर कहाँ उसे ख्याल आता है कि कौन क्या सोचेगा... नहीं तो वे लड़ते ही नहीं । क्रोध में लोग बड़ी - बड़ी गलती कर देते हैं परन्तु जब यह ज्वार थमता है तब महसूस होता है कि क्या अपराध हो गया उनसे ।
   उनके परिवार को तो मैं जानती नहीं लेकिन   स्त्री बड़ी भली लगती है...बड़े स्वादिष्ट व्यंजन बनाती है.. एक दो बार हमारे घर आई थी  त्यौहार पर प्रसाद देने...बातें भी अच्छी करती है ,  पता नहीं क्या वजह होगी जो उनके बीच इतने झगड़े होते हैं । छोटी - छोटी नोकझोंक  या बहस होना तो गृहस्थ जीवन में  सामान्य बात है... दो अलग माहौल में जन्मे , पले बढ़े व्यक्ति जब साथ रहने लगते हैं तो कुछ मतभेद तो होते ही हैं  पर इन्हें दाल में तड़के की तरह ही देखा जाना चाहिए न कि बहुत बड़ी गलती की तरह । बहुत अधिक अकड़ना या लचीला होना भी गृहस्थी को नीरस बना देता है.. थोड़े चटपटे पन की जीवन में गुंजाइश तो बने ही रहना चाहिए ...
उनके बीच क्या समस्या है मैं नहीं जानता लेकिन किसी एक के द्वारा दूसरे को सम्मान या महत्व न देना भी एक कारण हो सकता है नाराजगी का जो किसी न किसी बहाने उभरकर आते रहता है । पति - पत्नी दोनों एक - दूसरे को स्पेस दें तो झगड़े , असंतोष की कोई गुंजाइश नहीं... दरअसल उनके साथ उनके माता - पिता नहीं हैं नहीं तो ऐसे वक्त समझदार माता - पिता की समझाइश काम आती है । कभी उनसे मुलाकात होगी तो मैं उन से बात करूँगा ...नासमझी में कई बार रिश्ते बिखर जाते हैं और फिर उन्हें टूटने से कोई बचा नहीं सकता । क्या सुखीराम अपने पड़ोसी की कोई मदद कर पाये... उन्होंने क्या तरकीब निकाली ...पढ़ते हैं अगले भाग में...तब तक के लिए नमस्कार , प्रणाम , जय जोहार ।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 26 May 2018

किस्से सुखीराम के भाग 2

      सुखीराम जी अपने नाम के अनुरूप हमेशा खुश और सन्तुष्ट रहते थे । उनकी दो सन्तानें थीं - बड़ा बेटा जो अभी  कॉलेज की  पढ़ाई कर रहा था और बेटी छोटी अभी स्कूल में थी । आजकल के माता - पिता सबसे ज्यादा दुःखी हैं अपने बच्चों की पढ़ाई की चिंता में...के. जी. टू में पढ़ने वाले बच्चे की माँ भी चिंता में डूबी दिखाई देती है ...हिंदी वर्णमाला ठीक से लिख नहीं पा रहा है बेटा... क्लास वन , टू में नम्बरों की होड़ लगी है । बच्चे को उठते , बैठते फ्रूट्स , फ्लॉवर्स के नाम रटाये जा रहे हैं... और वह बेचारा उनींदी आँखों से पढ़ाई किये जा रहा है । बच्चे थोड़े और बड़े हुए तो क्या बनना है...क्या विषय लेना है.. माँ - बाप ज्यादा टेंसन में रहते हैं । रट - रट कर अच्छे नम्बर लाने वाले कई बच्चे बड़ी कक्षाओं में फिसड्डी हो जाते हैं... और ले - देके पास होने वाले कई बच्चे भविष्य में पढ़ाई के प्रति अधिक जिम्मेदार हो जाते हैं । सफलता का एक ही मन्त्र है... कठिन मेहनत और आत्म विश्वास ...इसका कोई शॉर्टकट नहीं होता । उनके पड़ोसी राजकुमार कहते हैं - सुखीराम आपको कोई मुश्किल नहीं हुई अपने बच्चे को विषय का चुनाव करवाते समय...मुश्किल क्या ? उसको जो पढ़ना था , उसने लिया ...भैया  ..पढ़ना उसको है , परीक्षा में  उसी को लिखना है तो हम कौन होते हैं उसे विषय दिलवाने वाले ....हमने तो बस उसे अपना भला - बुरा परखने की बुद्धि दी है बस ...उसके लिए क्या अच्छा है क्या बुरा ...अगर वह समझ जाये तो खुद ही निर्णय लेगा और उस पर अमल भी करेगा । आपने अपनी बिटिया को जबरदस्ती गणित दिलवाया था ना... फिर क्या हुआ । बेचारी ग्यारहवीं में फेल हो गई । लेकिन दूसरे साल मेरे कहने पर उसे अपनी रुचि का विषय वाणिज्य लेने दिया तो रिजल्ट क्या रहा..जरा बताओ । हाँ.. फर्स्ट डिवीजन से पास हुई वह -- राजकुमार ने जवाब दिया । यही तो हम भी कह रहे..बच्चे पर अपनी पसंद मत थोपो.. उसे अपनी राह स्वयं चुनने दो...उसके बाद वह आपसे कोई मदद माँगे तो जरूर करो..जैसे कॉलेज , स्थान का चुनाव या खर्च को देखकर यदि वह आगे कदम न बढ़ाये तो उसका हौसला बढ़ाओ । अपनी चुनी हुई राह में यदि उसे कोई परेशानी आती हो तो उसमें मदद करो...बच्चों को आगे बढ़ने की प्रेरणा दो , उसका आत्मविश्वास बढ़ाओ , असफलता से हार मत जाये ये दिलासा दो...जीवन बहुत अनमोल है , उसकी कद्र करना सिखाओ ।  जिंदगी ऐसा प्रश्न नहीं है जिसका एक ही उत्तर हो...इसे जीने के लिए कई ऑप्शन हैं.. ईश्वर जब एक रास्ता बंद करता है तो दूसरा रास्ता खोल  देता है ।  कई बार असफल  होकर सफलता की मंजिल पाने वालों के उदाहरण भरे पड़े हैं.. उनसे अपने बच्चों को रूबरू कराओ । फिर तो दुखी होने की कोई बात नहीं है... सुख ही सुख होंगे जीवन में ।
    क्या आप भी  सहमत हैं सुखीराम जी की बातों से..तो बच्चों की पढ़ाई को तनाव का कारण मत बनाइये क्योंकि जो होना है वह तो होकर रहेगा । अपने बच्चे को उसकी रुचि के अनुसार राह चुनने की आजादी दीजिये... सभी विषयों में भरपूर च्वॉइसेस हैं । अगर वह मेहनत करेगा तो जिस विषय , जिस राह को चुनेगा उसमें सफल होगा । तो चिंता जाओ भूल ...जियो कूल- कूल ।
     फिर मिलेंगे --नमस्कार , प्रणाम , जय जोहार ।।
      
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Friday, 25 May 2018

किस्से सुखीराम के

किस्से सुखीराम  के ☺️☺️
        भाग -1

  हाइट पाँच फीट तीन इंच , दुहरा शरीर , लिबास धोती कुर्ता , छोटे - छोटे फौजी स्टाइल में कटे हुए बाल , छोटी सी चुटिया..जो उन्हें विद्वानों की श्रेणी में ला देती थी ...ये हैं हमारे सुखीराम जी...वैसे उनका असली नाम पंडित  सुखराम शर्मा था परन्तु उनकी जीवनशैली , कार्य - व्यवहार ने उन्हें सुखीराम के नाम से मशहूर कर दिया है ।  कोई बहुत ऊँची शिक्षा तो प्राप्त न की उन्होंने , पर शास्त्र - ज्ञान बहुत था उन्हें । थोड़ा - बहुत ज्योतिष का ज्ञान भी रखते थे... दरअसल उन्होंने ज्योतिष और दर्शनशास्त्र में एम. ए. का फॉर्म भरा था...एम. ए. पूर्व की परीक्षा भी दिलाई थी...पूरे जिले में एकमात्र विद्यार्थी थे वे...बस , संकोचवश  फाइनल की परीक्षा में नहीं बैठे । अब एक परीक्षार्थी के लिए विश्वविद्यालय का इतना ताम झाम उन्हें उचित नहीं लगा..पर परीक्षा पास करें न करें क्या फर्क पड़ता है... असली बात तो ज्ञान की है , वह तो उन्हें मिल ही गया था ।
       सुखीराम जी की जिंदगी के अलग ही फंडे हैं.. सच पूछिए तो घुट्टी में घोंटकर जैसे पत्तों का रस ( सत्व ) निकाल लिया जाता है ना , उसी तरह अनुभवों का सार होती हैं उनकी बातें ...बहुत ही सरल और मजेदार । कहा जाता है कि जीवन में जहाँ काम की दो बातें सुनने मिले ..सुन लेना चाहिए , क्या पता उनकी किस बात से आपको भी राहत या खुशी के दो पल मिल जाएं ।
        आज का किस्सा यह है कि सुखीराम जी बाजार जा रहे थे तो उन्हें चचेरा भाई मुन्नू मिल गया । भाई !सुना है कल अपने रायपुर वाली बुआ के बेटे की शादी हुई ..उन्होंने तो हमें निमन्त्रण भी नहीं दिया...अब हम इतने दूर हो गए कि पूछा तक नहीं । मुन्नू को दुखी देखकर सुखीराम बोले कि निमंत्रण तो मुझे भी नहीं दिया पर हो सकता है इसमें उनकी कोई मजबूरी  रही होगी या वो भूल गए होंगे । आजकल सबके परिवार , रिश्तेदार , मित्र सबको मिलाकर बहुत लोग हो जाते हैं.. किसे बुलायें किसे छोड़ें  ,यह भी बहुत बड़ी समस्या हो जाती है । कोई बात नहीं ...तुम दुःखी मत हो... आने - जाने , लेन देन का खर्च बच गया...इतनी गर्मी में आजकल परिवार को लेकर जाने में बहुत दिक्कत भी है ...स्वास्थ्य भी खराब हो जाता है । बहु , बच्चे परेशान होते..चलो जो होता है भले के लिए ही होता है । इस ढंग से तो सोचा ही नहीं था मुन्नू ने..सच में.. इतनी गर्मी में परिवार को कहीं ले जाना माने मुसीबत में फँसना था । वैसे अभी छुट्टियों में खर्चे भी बढ़ जाते हैं , शादी में जाना यानि पत्नी को नई साड़ी , गहने , बच्चों के लिए कपड़े अतिरिक्त खर्च था आने - जाने के अलावा । मुन्नू के माथे पर पसीने की बूंदें उभर आई थी...सुखीराम भैया के लिए मन में श्रद्धा बढ़ गई थी क्या पते की बात कह गये भैया...कहाँ तो दुःखी हो रहा था और अब इस ढंग से सोचने पर खुशी ही हो रही है कि नहीं बुलाये तो कोई बात नहीं ...जो भी हुआ अच्छा हुआ।
        अगर यही बात उल्टी हुई होती यानि कि शादी में उन्हें बुलाया जाता तो सुखीराम कहते...अरे भाई ...यही तो बहाने होते हैं लोगों से मेल - मुलाकात के । अपने घर में तो सभी आराम से रहते , खाते -पीते  हैं... कभी - कभार तो इन बहानों से बाहर जाना होता है तो इसका भी अलग मजा है । अपने नाते - रिश्तेदारों के लिए दो रुपये खर्च भी हो गए तो क्या हुआ...स्नेह , अपनापन तो बढ़ता है जो खर्च करने पर भी न मिलता । ऐसे हैं अपने सुखीराम ।
     सुखीराम जी के आज के इस अनुभव से हमने क्या सीखा... मन हमारा है तो हम ही यह तय करेंगे ना कि यह किस बात पर दुःखी होता है और किस बात पर खुश । अपने मन की लगाम हम दूसरों के हाथों में क्यों सौपें ?
दूसरे यह तय क्यों करें कि हम अपने जीवन में सफल हैं या नहीं ...ये तो सिर्फ और सिर्फ हमारा निर्णय होना चाहिए । है कि नहीं ....तो आप सबको सुखीराम का नमस्कार , प्रणाम , जय जोहार... फिर मिलेंगे सुखीराम के जीने के दूसरे फंडे के साथ । 👦

स्वरचित  -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 24 May 2018

एक अनमोल रिश्ता...बहन

समाज की बुनावट रिश्तों के ताने - बाने से हुई है...इसमें विविध रिश्तों का अपना ही महत्व है और उन रिश्तों में सबसे प्यारा व खूबसूरत है बहन का होना...बहन चाहे वह भाइयों की लाडली हो या बहन की..अत्यंत अनमोल है.. ईश्वरीय वरदान है । कोई समस्या सुलझाना हो...कोई बात जो मन को परेशान कर रही है और उसे हमें शेयर करना हो..बहन सबसे विश्वसनीय होती है । हमारे यहाँ सभी रीति - रिवाजों में बहन की उपस्थिति को बहुत महत्व दिया गया है , उसके आये बिना कोई भी संस्कार , उत्सव पूरा नहीं होता ।  रक्षाबन्धन , भाईदूज उनके बिना अधूरे हैं ...बहनें अपने भाइयों की खुशी के लिए सदैव प्रार्थना करती हैं.. ससुराल में भी उनका दिल भाइयों की शुभेच्छा  करता रहता है । भाई अगर दुःखी हो तो वह खुश नहीं रह पाती । विवाह के पश्चात उसका आना घर - आँगन को  खुशियों व रौनक से भर देता है । माता - पिता के दिल को वह ठंडक  पहुँचाती
है.. भाई व बहन का सम्बल बन  जाती है । दीदी आ गई
अब मैं निश्चिंत हूँ ये एहसास मन में जाग उठते हैं । बहनों के बीच की बॉन्डिंग देखते ही बनती है... वे सिर्फ कपड़े की ही शेयरिग नहीं करती बल्कि   भावों की , एहसासों की  शेयरिंग करती हैं ...एक - दूसरे पर विश्वास  करती हैं  , बड़े से बड़ा काम वे मिलजुलकर निपटा लेती हैं....मन की सारी बातें एक - दूसरे के सामने खुलकर कह पाती हैं..
उनके बीच कोई मतभेद नहीं होता...एक बार भाई अपना फर्ज पूरा करने में चूक जाते हैं पर बहनें कभी नहीं चूकतीं । मुसीबत में वे एक - दूसरे का सहारा बनकर खड़ी हो जाती हैं । अगर किसी परिवार में सिर्फ बेटियाँ हैं तो वे अपने माता - पिता का पूरा ख्याल रखती हैं... विवाह के पश्चात भी..और दामाद भी आजकल सकारात्मक भूमिका निभाते हैं । आधुनिकता के रंग में रंगकर , स्वार्थों के वशीभूत होकर इन रिश्तों में कडुवाहट को स्थान न दें । परम्पराओं को भाई- बहन के प्रेम को बढ़ाने के लिए बनाया गया है... इसे बोझ न समझें । भाई व बहन दोनों को अपने व्यवहार में लचीलापन लाना होगा... इस रिश्ते की पवित्रता को बरकरार रखने के लिए स्वार्थों के दायरे से बाहर आना होगा... एक - दूसरे के प्रति अपेक्षाएं कम करनी होगी । बहन का होना एक खूबसूरत उपलब्धि है... यह व्यक्तित्व के अधूरेपन को पूरा करता है  , जीवन को खुशनुमा रंगों से सराबोर करता है । बहन का प्यार मिलना हमारी खुशकिस्मती है..बहन एक अनमोल व प्यारा रिश्ता है ..खूशबू के झोंके की तरह यह हमारे जीवन को खुशियों से भर देता है.... इस रिश्ते की कद्र करें , इस बन्धन को संजोकर रखें ।

स्वरचित  - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 23 May 2018

हो गई मैं आज गुलमोहर

सूने - सूने थे  रास्ते...
उजाड़ था मंजर ...
शहर भी उदास था..
मौसम हुआ पतझर...।
रातें अमावस सी..
दिन  हुई दोपहर...
नदी सूखी - सूखी सी...
ठहरा हुआ समन्दर..।
चाह नहीं कुछ पाने की..
उमंगें  भूलीं डगर..
चलते रहे कदम यूँ ही ..
अँधेरों का कहर...।
शाम बीतती नहीं...
इंतजार में रहबर...
लम्बी काली रातें...
चुभो रही नश्तर ...।
अब आ भी जाओ प्रिय...
राह तकती नजर...
वीरान इस चमन में...
गुलों का  भी हो बसर..।
आना तेरा यूँ जीवन में...
लो बहारों को हो गई खबर..
कल तक थी निष्पत्र जो..
खिल गई डगर- डगर..।
हो गई मैं आज गुलमोहर...।।
स्वरचित- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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आईना ( लघुकथा )

    वर्मा जी  के बेटे का ससुराल उसी शहर में था...जाहिर है बेटे - बहु का वहाँ आना - जाना लगा रहता था ।  वैसे उसके ससुराल वाले  हर काम में मदद भी किया करते थे । आये दिन बहु के वहाँ रुक जाने पर उन्हें दिक्कत होने लगी थी  ..  वर्मा दम्पत्ति को कुछ ठीक नहीं लग रहा था फलतः उन्होंने बेटे को समझाने की कोशिश की... थोड़ा कम आया जाया करो बेटा ..तभी इज्जत बनी रहेगी । क्यों पापा ? आप जिंदगी भर   अपने ससुराल का फायदा उठाते रहे तब यह बात याद नहीं आई थी  .. संयोग से वर्मा जी की ससुराल भी वहीं थी...बेटे ने  तो बस उन्हें आईना दिखा दिया था ।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

धोखा ( लघुकथा )

मैंने बहुत पहले एक प्लॉट खरीदा था... उसकी जरूरत नहीं पड़ने पर वर्षों उस पर ध्यान नहीं दे पाया । बरसों बाद उसकी सुध ली तो पता चला कि जमीन बेचने वाले एक एजेंट ने उसे धोखे से किसी को बेच दिया है । बच्चों ने उस एजेंट के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई और उस पर केस किया । उसी सिलसिले में  कोर्ट से वापस आ रहा था कि अपने बचपन के मित्र रामस्वरूप से मुलाकात हो गई । मन के किसी कोने में छुपी भूली - बिसरी बातें फिर से बाहर आ गई थी... हम दोनों ने बहुत देर तक अतीत की घटनाओं को दुहराकर उन्हें जीवंत  किया और उन यादों में डूबे रहे ।
      ... पर वर्तमान के बारे में बताते हुए वह दुःखी हो उठा था...मातृविहीन जिस बेटे को चार साल की उम्र से माता -पिता दोनो का प्यार दिया.... पढ़ाया ,लिखाया...अपने पैरों पर खड़े होने के योग्य बनाया...सफल होने के बाद उसने धोखे से घर अपने नाम कराकर उसे  बेघर कर दिया था । वह फिलहाल एक वृद्धाश्रम में रह रहा था..। मैं हतप्रभ सा उसकी बातें सुन रहा था.. क्या कोई इतना स्वार्थी , इतना बेगैरत हो सकता  है कि पिता के जीवन भर के त्याग को न समझ पाये । कोई पराया या अनजान व्यक्ति धोखा दे जाये तो हम उसके खिलाफ मुकदमा दायर कर सकते हैं , अपना विरोध दर्ज करा सकते हैं.. पर किसी अपने के द्वारा किये गए विश्वासघात का क्या करें ? अपने बेटे को अदालत में घसीट कर वे उसे दुःखी भी नहीं देख सकते थे ..भले स्वयं परेशान हो रहे हों ।  मुझे लगा मेरी स्थिति उससे बेहतर है ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 21 May 2018

वो स्कूटर प्रेम ( संस्मरण )

संस्मरण
#वो स्कूटर प्रेम#
बात बहुत पुरानी है, तब लड़कियों के पास गाड़ी नहीं हुआ करती थी... बहुत हुआ तो किसी को लूना या स्कूटी मिल गई । मेरे लिए गाड़ी चलाना स्वप्न हो गया था और गाड़ी चलाने के प्रति आकर्षण मन में बढ़ता ही जा रहा था । मैं तो सपने में भी अपने आपको गाड़ी चलाते ही देखती । तब मैं आठवी कक्षा में थी..मामाजी के घर बलौदा गई हुई थी गर्मी की छुट्टियों में । मामाजी उस दिन बस से गये थे बिलासपुर । बस , मुझे मौका मिल गया और मैने उनका स्कूटर निकाल लिया उस सँकरी सी उबड़ - खाबड़ गली में । मन में कोई डर तो नहीं था पर आत्म विश्वास गजब का था....पहली बार स्कूटर वो भी बिना किसी बड़े की सहायता लिये... ऑब्जर्वेशन पॉवर जबरदस्त थी ..देखती रहती थी कैसे स्टार्ट करते हैं..कैसे गियर लगाते हैं... उन्हीं निरीक्षणों के बदौलत स्कूटर स्टार्ट कर ली , गियर लगा ली और मेरी गाड़ी चल पड़ी...पर बहुत सी बातें तो हम अनुभवों से सीखते हैं ....ब्रेक और गियर का सामंजस्य स्थापित करना एक बार में सीखने वाली बात नहीं थी...ब्रेकर में उसी स्पीड से गाड़ी कूदा दी और धड़ाक.... गाड़ी के साथ मैं भी जमीन पर । मुहल्ले के एक दो परिचित वहाँ थे , उन्होंने गाड़ी और मुझे उठाया और घर पहुंचाया । मुझे और गाड़ी दोनों को कोई विशेष नुकसान नहीं हुआ पर अपनी इस डेयरिंग पर थोड़ी डाँट जरूर लगी...सीखने का शौक था तो बताना था ना...गाड़ी ऐसे गली में थोड़ी सीखी जाती है । पर मैंने ऐसे ही सभी गाड़ियों पे हाथ आजमाया..मोटर साइकिल पर भी ।
   तब यह बात तो समझ में आ गई कि कोई नया काम सीखना हो तो किसी जानकार व्यक्ति से राय ले लेने में कोई बुराई नहीं । आपके अंदर कितना भी आत्मविश्वास हो फिर भी....हर नया काम शुरुआत में कठिन लगता है पर अभ्यास उसे आसान बना देता है हमेशा ।
आप सबका दिन शुभ हो ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 17 May 2018

जिनगानी के हाल

जिंदगानी के हाल...
तोला का बताव संगी  ..
रेहेंव फटेहाल ...
फेर कर पारेव बिहाव संगी...।
बाई के घर आये ले...
मन मंजूर नाचीस...
अंगना  कुरिया चमक गे ,
मोरो भाग जागिस...
मेहर ओखर हीरो बनगेव,
सोच सोच मुस्कियाव संगी ....।
थोरकिन दिन बने लागिस...
तहां नून तेल के खर्चा बाढिस ,
कपड़ा लत्ता , काजल ,लिपस्टिक...
अब्बड़ कन ओखर फरमाइश ,
कइसे एला निपटाव संगी....।
दु बछर म लइका आगे..
जउहर मोर परान सुखागे...
लइका अउ बाई के चक्कर मा ,
मोर मुड़ी के चुन्दी झररागे ...
बुता करे कइसे जाव संगी...।
घर मा किचकिच...
बाहिर ऊंच नीच...
कोनो नइहे रद्दा दिख्य्या ...
आमदनी अठन्नी , खर्चा रुपय्या,
कइसे पार लगाव संगी.....।
जिनगानी के हाल ल...
तोला कइसे बताव संगी....।।

स्वरचित --- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 16 May 2018

पीड़ा सृजन की

फिर वही अथाह लहर ,
असहनीय पीड़ा...
मुझे ही आखिर क्यों 
स्त्री की नियति में दर्द ही क्यों
अक्सर मेरे जेहन में ,
सवाल यह करता मंथन ।
पीड़ा से ही क्यों होता सृजन ।।
धरा ने दिया जवाब ,
मुझ पर चला हल ..
विदीर्ण होता मेरा तन,
तब जाकर देती मैं अन्न ।
पुत्री , पीड़ा से ही  होता सृजन।।
मिट्टी भी मुस्काई  ,
मन की व्यथा समझाई ..
मुझे कूट कर नरम बनाया ..
गूँधा ...आग में तपाया ,
तब बने सुन्दर बर्तन ।
बहन , पीड़ा से ही होता सृजन ।।
स्वर्ण भी आगे आया ,
उलझन मेरी सुलझाया ..
मुझे खान से खोदा गया ,
स्वच्छ कर धोया गया ,
पीटा , तपाया ,पिघलाया..
तब बने आकर्षक आभूषण ।
सखी ,पीड़ा से ही होता सृजन ।।
नीर नदी की पास आई ,
वेदना अपनी बतलाई ,
अपनों से बिछड़ी , वाष्पित हुई ...
नीरद बन भटकी गगन -गगन ,
संघनित हुई तब हुआ वर्षण ।
प्रिय , पीड़ा से होता सृजन ।।
रहस्य मैंने यह जान लिया ,
हाँ ...मैंने यह मान लिया..
व्यर्थ नहीं स्त्री का जन्म ,
वेदना को जो करती सहन  ,
वह सृष्टि का करती सर्जन ।
हाँ , पीड़ा से होता सृजन ।।
हाँ , पीड़ा से होता सृजन ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 11 May 2018

तोर मया

गरमी म जुराये छांव सही ,
तोर मया दुलार ।
सावन के पहिली फुहार सही,
तोर मया दुलार ।।
बैरी मन के टेडगा बोली,
कर देथे मुंधियार ।
तोर गुरतुर बोली ,
चंदा कस उजियार ।।
जिनगी भर संग देबे ,
करत हंव गोहार ।
जुरमिल के कर लेबो,
भवसागर  ल पार ।
भरोसा ले घर कुरिया ल,
राख लेबो संवार ।
मया पिरीत के बंधना मा,
बंधा जाहि संसार ।।
मोर सुख दुख के संगी,
तोर खुसी म जिनगी न्यौछार।
तोर मोर रद्दा एक हे ,
एक हमर घर संसार ।।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे  , दुर्ग , छत्तीसगढ़