किस्से सुखीराम के ☺️☺️
भाग -1
हाइट पाँच फीट तीन इंच , दुहरा शरीर , लिबास धोती कुर्ता , छोटे - छोटे फौजी स्टाइल में कटे हुए बाल , छोटी सी चुटिया..जो उन्हें विद्वानों की श्रेणी में ला देती थी ...ये हैं हमारे सुखीराम जी...वैसे उनका असली नाम पंडित सुखराम शर्मा था परन्तु उनकी जीवनशैली , कार्य - व्यवहार ने उन्हें सुखीराम के नाम से मशहूर कर दिया है । कोई बहुत ऊँची शिक्षा तो प्राप्त न की उन्होंने , पर शास्त्र - ज्ञान बहुत था उन्हें । थोड़ा - बहुत ज्योतिष का ज्ञान भी रखते थे... दरअसल उन्होंने ज्योतिष और दर्शनशास्त्र में एम. ए. का फॉर्म भरा था...एम. ए. पूर्व की परीक्षा भी दिलाई थी...पूरे जिले में एकमात्र विद्यार्थी थे वे...बस , संकोचवश फाइनल की परीक्षा में नहीं बैठे । अब एक परीक्षार्थी के लिए विश्वविद्यालय का इतना ताम झाम उन्हें उचित नहीं लगा..पर परीक्षा पास करें न करें क्या फर्क पड़ता है... असली बात तो ज्ञान की है , वह तो उन्हें मिल ही गया था ।
सुखीराम जी की जिंदगी के अलग ही फंडे हैं.. सच पूछिए तो घुट्टी में घोंटकर जैसे पत्तों का रस ( सत्व ) निकाल लिया जाता है ना , उसी तरह अनुभवों का सार होती हैं उनकी बातें ...बहुत ही सरल और मजेदार । कहा जाता है कि जीवन में जहाँ काम की दो बातें सुनने मिले ..सुन लेना चाहिए , क्या पता उनकी किस बात से आपको भी राहत या खुशी के दो पल मिल जाएं ।
आज का किस्सा यह है कि सुखीराम जी बाजार जा रहे थे तो उन्हें चचेरा भाई मुन्नू मिल गया । भाई !सुना है कल अपने रायपुर वाली बुआ के बेटे की शादी हुई ..उन्होंने तो हमें निमन्त्रण भी नहीं दिया...अब हम इतने दूर हो गए कि पूछा तक नहीं । मुन्नू को दुखी देखकर सुखीराम बोले कि निमंत्रण तो मुझे भी नहीं दिया पर हो सकता है इसमें उनकी कोई मजबूरी रही होगी या वो भूल गए होंगे । आजकल सबके परिवार , रिश्तेदार , मित्र सबको मिलाकर बहुत लोग हो जाते हैं.. किसे बुलायें किसे छोड़ें ,यह भी बहुत बड़ी समस्या हो जाती है । कोई बात नहीं ...तुम दुःखी मत हो... आने - जाने , लेन देन का खर्च बच गया...इतनी गर्मी में आजकल परिवार को लेकर जाने में बहुत दिक्कत भी है ...स्वास्थ्य भी खराब हो जाता है । बहु , बच्चे परेशान होते..चलो जो होता है भले के लिए ही होता है । इस ढंग से तो सोचा ही नहीं था मुन्नू ने..सच में.. इतनी गर्मी में परिवार को कहीं ले जाना माने मुसीबत में फँसना था । वैसे अभी छुट्टियों में खर्चे भी बढ़ जाते हैं , शादी में जाना यानि पत्नी को नई साड़ी , गहने , बच्चों के लिए कपड़े अतिरिक्त खर्च था आने - जाने के अलावा । मुन्नू के माथे पर पसीने की बूंदें उभर आई थी...सुखीराम भैया के लिए मन में श्रद्धा बढ़ गई थी क्या पते की बात कह गये भैया...कहाँ तो दुःखी हो रहा था और अब इस ढंग से सोचने पर खुशी ही हो रही है कि नहीं बुलाये तो कोई बात नहीं ...जो भी हुआ अच्छा हुआ।
अगर यही बात उल्टी हुई होती यानि कि शादी में उन्हें बुलाया जाता तो सुखीराम कहते...अरे भाई ...यही तो बहाने होते हैं लोगों से मेल - मुलाकात के । अपने घर में तो सभी आराम से रहते , खाते -पीते हैं... कभी - कभार तो इन बहानों से बाहर जाना होता है तो इसका भी अलग मजा है । अपने नाते - रिश्तेदारों के लिए दो रुपये खर्च भी हो गए तो क्या हुआ...स्नेह , अपनापन तो बढ़ता है जो खर्च करने पर भी न मिलता । ऐसे हैं अपने सुखीराम ।
सुखीराम जी के आज के इस अनुभव से हमने क्या सीखा... मन हमारा है तो हम ही यह तय करेंगे ना कि यह किस बात पर दुःखी होता है और किस बात पर खुश । अपने मन की लगाम हम दूसरों के हाथों में क्यों सौपें ?
दूसरे यह तय क्यों करें कि हम अपने जीवन में सफल हैं या नहीं ...ये तो सिर्फ और सिर्फ हमारा निर्णय होना चाहिए । है कि नहीं ....तो आप सबको सुखीराम का नमस्कार , प्रणाम , जय जोहार... फिर मिलेंगे सुखीराम के जीने के दूसरे फंडे के साथ । 👦
स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़