Wednesday, 16 May 2018

पीड़ा सृजन की

फिर वही अथाह लहर ,
असहनीय पीड़ा...
मुझे ही आखिर क्यों 
स्त्री की नियति में दर्द ही क्यों
अक्सर मेरे जेहन में ,
सवाल यह करता मंथन ।
पीड़ा से ही क्यों होता सृजन ।।
धरा ने दिया जवाब ,
मुझ पर चला हल ..
विदीर्ण होता मेरा तन,
तब जाकर देती मैं अन्न ।
पुत्री , पीड़ा से ही  होता सृजन।।
मिट्टी भी मुस्काई  ,
मन की व्यथा समझाई ..
मुझे कूट कर नरम बनाया ..
गूँधा ...आग में तपाया ,
तब बने सुन्दर बर्तन ।
बहन , पीड़ा से ही होता सृजन ।।
स्वर्ण भी आगे आया ,
उलझन मेरी सुलझाया ..
मुझे खान से खोदा गया ,
स्वच्छ कर धोया गया ,
पीटा , तपाया ,पिघलाया..
तब बने आकर्षक आभूषण ।
सखी ,पीड़ा से ही होता सृजन ।।
नीर नदी की पास आई ,
वेदना अपनी बतलाई ,
अपनों से बिछड़ी , वाष्पित हुई ...
नीरद बन भटकी गगन -गगन ,
संघनित हुई तब हुआ वर्षण ।
प्रिय , पीड़ा से होता सृजन ।।
रहस्य मैंने यह जान लिया ,
हाँ ...मैंने यह मान लिया..
व्यर्थ नहीं स्त्री का जन्म ,
वेदना को जो करती सहन  ,
वह सृष्टि का करती सर्जन ।
हाँ , पीड़ा से होता सृजन ।।
हाँ , पीड़ा से होता सृजन ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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