मैंने बहुत पहले एक प्लॉट खरीदा था... उसकी जरूरत नहीं पड़ने पर वर्षों उस पर ध्यान नहीं दे पाया । बरसों बाद उसकी सुध ली तो पता चला कि जमीन बेचने वाले एक एजेंट ने उसे धोखे से किसी को बेच दिया है । बच्चों ने उस एजेंट के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई और उस पर केस किया । उसी सिलसिले में कोर्ट से वापस आ रहा था कि अपने बचपन के मित्र रामस्वरूप से मुलाकात हो गई । मन के किसी कोने में छुपी भूली - बिसरी बातें फिर से बाहर आ गई थी... हम दोनों ने बहुत देर तक अतीत की घटनाओं को दुहराकर उन्हें जीवंत किया और उन यादों में डूबे रहे ।
... पर वर्तमान के बारे में बताते हुए वह दुःखी हो उठा था...मातृविहीन जिस बेटे को चार साल की उम्र से माता -पिता दोनो का प्यार दिया.... पढ़ाया ,लिखाया...अपने पैरों पर खड़े होने के योग्य बनाया...सफल होने के बाद उसने धोखे से घर अपने नाम कराकर उसे बेघर कर दिया था । वह फिलहाल एक वृद्धाश्रम में रह रहा था..। मैं हतप्रभ सा उसकी बातें सुन रहा था.. क्या कोई इतना स्वार्थी , इतना बेगैरत हो सकता है कि पिता के जीवन भर के त्याग को न समझ पाये । कोई पराया या अनजान व्यक्ति धोखा दे जाये तो हम उसके खिलाफ मुकदमा दायर कर सकते हैं , अपना विरोध दर्ज करा सकते हैं.. पर किसी अपने के द्वारा किये गए विश्वासघात का क्या करें ? अपने बेटे को अदालत में घसीट कर वे उसे दुःखी भी नहीं देख सकते थे ..भले स्वयं परेशान हो रहे हों । मुझे लगा मेरी स्थिति उससे बेहतर है ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
बहुत अच्छा समसामयिक
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