Sunday, 27 May 2018

पिघलती वेदना ( लघुकथा )

जब  अंशिका की माँ का  निधन हुआ तो  उसकी गर्भावस्था के नौ महीने  चल रहे थे... बहुत ही विकट स्थिति थी...वह  उनके अंतिम संस्कार के कार्यक्रम में शामिल नहीं हो पाई...न ही उनके अंतिम दर्शन कर पाई । मन अत्यंत व्यथित था...माँ की यादें रुला रही थीं और बच्चे की फिक्र रोने नहीं दे रही थी । दिल के किसी कोने में पीड़ा जम सी गई थी... अंशिका परेशान थी , बेचैनी के कारण न उसे सोते बन रहा था न बैठते । उसके पति माँ के अंतिम संस्कार के लिए गए हुए थे ...दूसरे दिन लौटे तो चुप से ही रहे । शायद अंशिका की हालत देखकर  कुछ बोलते न बना...पर उसकी व्यथा लाल आँखों और अस्त - व्यस्त सी हालत से  वे समझ गए थे । उनके बीच कुछ सम्वाद तो हुआ नहीं पर यदि दिलों में प्रेम हो तो संवादों के किसी पुल की आवश्यकता ही नहीं होती ।
बस , अपनी बाहों में भर लिया था उन्होंने अंशिका को...मानो उसे निश्चिंत कर रहे हों कि किसी बात की फिक्र न करो..मैं हूँ न तुम्हारे पास । स्नेह , विश्वास भरे बाहों के  घेरे में , पति के चौड़े सीने से लगकर  अंशिका के मन में जमी वेदना पिघलने लगी थी और अश्रु बहने लगे थे ....कतरे - कतरे दर्द बिखर रहा था और वह  रुई के फाहे की तरह हल्की हो उड़ चली थी ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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