Saturday, 5 May 2018

तपती दोपहर

धरती ने ओढ़ ली सुनहरी चादर ,
प्यासी है धरती , प्यासा अम्बर ।
लू के थपेड़ों में जलता शहर  ,
सूनी - सूनी गलियाँ , उदास सा मंजर ।
थके हारे पथिक ढूँढते बसर ,
शिथिल हो पवन हाँफता सर - सर ।
ठूँठ से खड़े पेड़ ,छाँव की फ़िकर ,
ऊँघती सी धूप ढूंढ रही बिस्तर ।
बेहाल जन मन , सूरज का कहर ।
प्रचंड ज्वाल सी तपती दोपहर ।।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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