Tuesday, 30 April 2019

मायने खोते रिश्ते

मायने खोते  रिश्ते ,
अजनबी सा लगे # शहर ।
लाभ - हानि का हिसाब औ,
स्वार्थ ढा रहा  # कहर ।
भिगोती नहीं मन को अब,
नेह की मृदुल # लहर ।
सामंजस्य प्रेम की सरिता,
सूखकर गई  # ठहर ।
घुल गया रगों में ,
धोखेबाजी का # जहर ।
टूटते विश्वास के ताने - बाने,
परिवार रहे  # बिखर ।
आधुनिकता की चोट का,
रिश्तों पर हुआ # असर ।
वक्त की घड़ी चल रही पर,
थम गया है # पहर ।
बचा लें अपना घर - आँगन ,
रह  न जाये कोई # कसर ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
  दुर्ग , छत्तीसगढ़

दर्पण

कहते हैं चेहरा ,
दर्पण होता है मन का
कह देता है सारी बात ।
क्यों नहीं जान पाते हम ,
किसी के मन में क्या छुपा ।
पत्नी क्यों नहीं देख पाती
पति के दिल में टूटते ,
विश्वास के तार ।
छली क्यों जाती नवयौवना
प्रेमी की मीठी बातों में ।
लोग क्यों फँस जाते ,
झूठ के बुने जालों में  ।
क्यों उलझ जाते हैं ,
जमाने की फरेबी बातों में ।
भटक जाते युवा ,
दोस्ती की चाह में ।
दर्पण झूठ क्यों बोले
राज दिलों के न खोले ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
     दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 28 April 2019

महकती सुबह

चिडियों की चुनचुन...
भौरों की गुनगुन..
कली फूल बन मुस्काई है ।
निशा की आली..
उषा की लाली..
महकती सुबह ले आई है ।।
पपीहे की बोली ,
कोयल भी डोली...
बेलों  पे छाई तरुणाई है ।
अमियों की झोली
बच्चों की टोली ,
यौवन छाई अमराई है ।
चंपा की खुशबू ,
मन हुआ बेकाबू ,
शीतल  बही पुरवाई है ।
सुरभित जीवन है ,
मदमस्त तन - मन है ,
पत्तों पे छाई अरुणाई है ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
              दुर्ग , छत्तीसगढ़

दोस्ती

कदम बढ़ाते चलो पुकारती हैं वादियाँ
हौसलों  से जीत लेंगे राह की दुश्वारियाँ ।
बादलों ने ढक लिया कुछ देर आसमान ,
सूरज को न रोक पायेंगी रात की बेड़ियाँ ।
ऊँचे - नीचे रास्ते क्या हुआ जो गिर पड़े ,
थामकर हाथ एक साथ  चलेंगे  साथिया ।
पार कर लेंगे  बाधाओं को हम मिलकर ,
पहाड़ों की  ऊँची चोटी देती हैं चुनौतियाँ ।
प्रेम , सहयोग का नाम ही है दोस्ती ,
पूरी करेंगे जीवन की हर कसौटियाँ ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 27 April 2019

गज़ल

तेरी खातिर संवरती  हूँ  मैं शृंगार करती हूँ...
मरती हूँ तुम पर , तुम्हीं से  प्यार करती हूँ..।

घड़ी भर साथ पाने के जतन हजार करती हूँ..
मेरे साथी तन मन धन तुझपे वार करती हूँ...।

सुनहरे ख्वाब जो देखे हैं हम दोनों ..ने मिलकर...
हकीकत में उन ख्वाबों को साकार करती हूँ..।

न जाने कब आ जाये घड़ी  पिया.. मिलन की..
जागकर सारी रात मैं इंतज़ार करती हूँ..।

राह ए वफ़ा  में कहीं न मात खा जाऊं..
 तुम्हें आजमाने से सदा इन्कार करती हूँ..।

मुरझा न जा...ये कहीं  इश्क ए चमन मेरा ..
अश्कों से सदा अपने  इसे गुलजार करती हूँ ।

दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Thursday, 25 April 2019

अच्छा हुआ ( लघुकथा )

संस्था प्रमुख अपने एक मातहत के साथ दुर्व्यवहार  कर
निकले थे... रास्ते में उनकी कार दुर्घटनाग्रस्त हो गई
...घटनास्थल पर ही उनकी मौत हो गई । उनके सहयोगी की तुरंत प्रतिक्रिया क्या रही होगी..." अच्छा हुआ ! "  भले ही बाद में उन्हें अपने ही कथन पर पछतावा हुआ होगा । किसी के साथ ऐसा  व्यवहार न करें कि आपकी मौत के बाद किसी को भी आपके लिए ये दो शब्द कहना पड़े ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे ,दुर्ग , छत्तीसगढ़

दीर्घायु भव ( लघुकथा )

सुमन को  उसकी दीदी फोन पर बहु रमा की शिकायतें
बताती रहती थी कि  रमा ने उसके खाने - पीने में कटौती कर रखी  है , उसके खाने पर  खूब पाबंदी लगाती है । उससे अधिक उन्हें तकलीफ इस बात की थी कि बेटा पंकज उसे कुछ नहीं  कहता  ।
   सुमन स्वयं जाकर देखना चाहती थी कि इसमें कितनी सच्चाई है क्योंकि पंकज की बहु रमा तो समझदार लगी थी । दीदी के घर रहकर उसने महसूस किया कि रमा अपनी सास का खूब ख्याल रखती है..डॉक्टर के मना करने के कारण उन्हें तेल , मिर्च , मसाले वाली चीजें खाने नहीं देती..उनके लिए   सुपाच्य खिचड़ी बनाती है । दीदी के लिए यह सब इंतजाम करने के लिए उसे अतिरिक्त समय देना पड़ता है पर दीदी यह सब क्यों नहीं समझती । दीदी के झल्लाने का दोनों पति - पत्नी बुरा भी नहीं मानते, बस मुस्कुरा देते हैं.. सुमन के पूछने पर रमा ने बस इतना ही कहा - जिंदगी भर बड़े हमें " दीर्घायु भव " का आशीर्वाद देते हैं ...अब हमारी बारी है उन्हें दीर्घायु बनाये रखने का प्रयास करने की ..ताकि हमारे सिर पर उनकी स्नेह छाया बनी रहे ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Sunday, 21 April 2019

पन्ना का बलिदान

भारत के इतिहास का यह गौरवशाली अध्याय है ।
राष्ट्रहित बलिदानियों  में  प्रथम पन्ना धाय है ।।
मेवाड़ को हथियाने बनवीर ने षड़यंत्र रचाया था  ।
जनता का ध्यान बटाने  दीपदान पर्व कराया था ।।
राणा सांगा को मारकर  ताज पहनना चाहता था ।
अपनी राह के कंटक उदय को मारना चाहता था ।।
रक्तरंजित तलवार लेकर  राजमहल में आया था ।
सैनिकों  के साथ  पन्ना को  डराया  धमकाया था ।
कर्तव्यनिष्ठ ,वीरांगना मुसीबतों से न कभी हारी थी ।
मेवाड़ के उत्तराधिकारी को  बचाने की  बारी थी ।।
जूठे पत्तलों की टोकरी में उदय को  भिजवाया था ।
कीरत बारी  के द्वारा सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया था ।।
बनवीर को दिग्भ्रमित करने तरकीब एक लगाई थी ।
उदय की शय्या में  अपने पुत्र चंदन को सुलाई थी ।।
बनवीर की शमशीर को रक्तरंजित होते देखा था ।।             आँखों के आगे अपनी कोख  को उजड़ते देखा था ।।
उस धीर - वीर माता ने  अश्रु न  एक बहने दिया ।
राष्ट्रहित सर्वोपरि है कर्म से उसने यह सिद्ध किया ।।
नमन  वीर माताओं को  जो भारत की शान बढ़ाई है।
अपने पावन कर्मों से  वसुंधरा की आन बचाई है ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 19 April 2019

गज़ल

मन ही  मन घुटने से बेहतर , गुनगुनाना चाहिए ।
लाख गम हो जिंदगी में , फिर भी मुस्कुराना चाहिए ।

राहे जिंदगानी बड़ी मुश्किल है  तू  अकेला न चल ,
मुसीबतों में साथ दे , ऐसा हमसफ़र बनाना चाहिए ।

महफ़ूज रखती हैं हमें  तूफान  और बारिश से..
मजबूत रखनी हो जो दीवारें ,नमी से बचाना चाहिए ।

वक्त  रेत की तरह मुट्ठी  से  कहीं फिसल न जाये ,
व्यस्तताओं  में भी खुशियों के  पल चुराना चाहिए ।

अर्जुन की तरह एकाग्र व  कर्तव्यनिष्ठ बने रहना ,
भेद सके लक्ष्य  को  अचूक  वो निशाना चाहिए ।

जिंदगी  की राहों में गुलों के संग खार भी मिलेंगे ,
इन सबको साथ लेकर प्यार से  निभाना चाहिए । 

मिटा कर  अंधेरा   हर कोने  में उजाला भर दे ।
मन में ' दीक्षा ' ज्ञान की ज्योति जलाना चाहिए।

स्वरचित -     डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Wednesday, 17 April 2019

आलेख

#आज की नारी कितनी आजाद #

आज की नारी  बहुत ही मजबूत बनकर उभरी है और कठिन से कठिन कार्यों को  उसने कर दिखाया है । जीवन के सभी क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती स्त्री न सिर्फ आत्मनिर्भर हुई है  बल्कि बेबाकी से उसने अपने खिलाफ होते अन्याय के विरूद्ध आवाज मुखर किया है । गलत का विरोध करने की हिम्मत जुटाई है ।
सामाजिक रूढ़ियों से वह आजाद हुई है... गलत परम्पराओं  से वह आजाद हुई है... वे सब नियम जो उसे सिर्फ घर की देहरी से बांधकर रखते थे , उन बन्धनों से आजाद हुई है ।  पर क्या यह सही मायने में आजादी है.. मनचाहा वस्त्र पहनना , मनपसन्द कार्य करना , खाना , घूमना , अभिव्यक्ति तक ही यह आजादी क्यों  सिमट कर रह गई है... आज भी  " तुम तो चुप ही रहो , तुम क्या जानती हो इसके बारे में , बस , तुम अपना चूल्हा - चौका सम्भालो "  के जुमले सुनाई देते हैं ।  बहुतायत महिलाओं की राय नहीं ली जाती घर के महत्वपूर्ण फैसलों में जबकि वह कामकाजी होते हुए भी घर व बाहर संतुलन बनाये रखती है । आज भी वे आर्थिक मामलों में अपना मुँह बंद ही रखती हैं.. । यहाँ तक कि उनकी तनख्वाह का हिसाब - किताब भी पति ही रखते हैं.. उन्हें अपने खर्च के लिए भी पति से पूछना पड़ता है । पति - पत्नी दोनों
जो भी कमाते हैं घर के लिए ही और सब कुछ दोनों का साझा ही होता है  पर बहुत सी स्त्रियों को खर्च करने की आजादी नहीं है । मेरे विचार से आजादी विचारों की होनी चाहिए चाहे वह घरेलू महिला हो या कामकाजी ।
उसे अपने घर के हर मामले में बोलने की आजादी हो
क्योंकि वह अपने घर - परिवार का भला ही सोचती है । कुछ महिलाएं स्वयं अपने - आपको कई प्रकार के बंधनों में बाँध कर रखती हैं.. लोग क्या कहेंगे , बदनामी होगी , तरह - तरह की भ्रांतियाँ ..उन्हें इन बन्धनों से स्वयं को आजाद करना होगा । नारी सुरक्षा आज सबसे बड़ी समस्या है.. अपनों के बीच भी वह सुरक्षित नहीं है । लोलुप निगाहें हर जगह उसका पीछा करती हैं इसलिए आजादी के साथ सुरक्षा को जोड़ना आवश्यक है । आजादी के नाम पर अपनी सुरक्षा को दांव पर नहीं लगाया जा सकता ।
      कुछ  देह - प्रदर्शन  , नशा करने , देर रात तक घूमने को  आजादी का पर्याय मानती हैं पर यह सही नहीं है । आजादी का अर्थ उद्दंड , अमर्यादित होना कतई नहीं है ..अपनी सीमाओं को समझते हुए , स्व - अनुशासन रखते हुए  परिवार व समाज से मिली आजादी का उपयोग होना चाहिए ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 16 April 2019

मर्यादा ( लघुकथा )

इशिता  प्रेम - विवाह कर इस घर में आई थी...अपने मन की न कर पाने के कारण सासु माँ नाराज थी..इकलौते बेटे से तो कुछ कह न पाई पर सारी झल्लाहट व आक्रोश इशिता पर फूटने लगा । अपनी मर्यादा में रहकर इशिता  मुस्कुराती हुई अपना फर्ज निभाती रही , कभी उन्हें पलट कर जवाब नहीं दिया..समझती थी बेटा माँ के दिल के करीब होता है... अचानक उस पर पत्नी का अधिकार जताना उन्हें कैसा महसूस होता होगा । उनके रिश्ते के बीच वह कभी नहीं आई..हाँ , अपनी कुछ तरकीबें लगाकर उनकी प्रगाढ़ता बढ़ाया ही । उनकी पसन्द का ध्यान रखना , उन्हें हमेशा सम्मान देना..कोशिशों से तो पत्थर से भी मीठे जल का स्त्रोत फूट पड़ता है फिर वह तो इंसान थी ...आखिर उनका दिल पिघल गया और उन्होंने बहु को भी अपनी ममता के आगोश में समेट लिया ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे
   दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 9 April 2019

आलेख

 

# दो औरतें कभी दोस्त  नहीं हो सकतीं #

आज जब  नारी विकास के चरम पर पहुँच गई हैं , उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में अपनी योग्यता सिद्ध की है । ट्रेन के पायलट से लेकर सेना , पुलिस , राजनीति , शिक्षा , चिकित्सा , सेवा प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है । नारी सुरक्षा को लेकर हमेशा सवाल उठते रहे हैं और
सार्वभौमिक सोच यही है कि सभी क्षेत्रों में स्त्री की उपलब्धता ही इसका सर्वश्रेष्ठ समाधान है । हम यदि किसी काम से जाते हैं तो वहाँ किसी स्त्री की उपस्थिति हमें सहज कर देती है और यही अपेक्षा की जाती है कि उनके द्वारा हमें यथोचित सहयोग प्राप्त होगा । पर काश ऐसा होता ? जितना पुरूष  वर्ग  में  महिलाओं की सहयोग की भावना होती  है  उतना एक महिला के द्वारा अपने ही वर्ग के लिए सहानुभूति या सहयोग की भावना नहीं मिलती । हर बात हर किसी के लिए लागू नहीं होती क्योंकि कुछ लोग इस धारणा के विपरीत बहुत ही सहयोगी स्वभाव के होते हैं ...पर अधिकांश लोगों के अनुभवों के कारण लोगों की किसी के बारे में धारणा बनती है । मैं एक बार कृषि विभाग कार्यालय में काम से गई थी तो वहाँ उपस्थित एक महिला क्लर्क के पास ही सबसे पहले गई और मुझे जो जानकारी चाहिए थी उसके बारे में बात की.. लेकिन अफ़सोस उस महिला ने मुझे कोई सहयोग नहीं किया ..यहाँ तक कि ठीक से बात भी नहीं की । फिर उसी विभाग के एक सज्जन ने मेरा मार्गदर्शन किया और मेरा काम भी पूरा कराया । यह सिर्फ एक ही विभाग की बात नहीं है कई जगह ऐसे लोग दिखते हैं । किसी महिला की गाड़ी खराब होने पर कितनी ही महिलायें गुजर जाती हैं लेकिन  वहाँ  कोई नहीं रुकती। वहाँ रुकने और मदद करनेवालों में पुरुषों का प्रतिशत ही अधिक होता है । प्रतियोगिता , अहम , जिद , हीन भावना  , स्वार्थ इत्यादि कई कारण हैं जिनके कारण एक औरत दूसरी औरत की दोस्त नहीं बन सकती । हालाँकि इस धारणा को झूठा साबित कर कुछ दोस्ती निभाती भी हैं पर ऐसा बहुतायत में होगा तो ही हम लोगों की धारणा को बदल पायेंगे । औरतों के बीच बहनापा शायद बहुत से अन्याय , शोषण व अपराधों को कम करने में मददगार भी साबित होगा । इति शुभम ।

स्वरचित -- डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Saturday, 6 April 2019

बदलते रिश्ते ( लघुकथा )

उमा के पति का  पिछले कई महीनों से इलाज चल रहा था । इसमें उनकी  सारी जमापूंजी खर्च हो गई थी । मजबूरी में अपने जेठ , ननद , भाई सबके पास मदद के लिए गई...सबने अपनी असमर्थता जाहिर की । उसकी विपरीत परिस्थितियों के बारे में जानकारी होने पर उसके दोस्तों ने बिना कहे मिलकर पूरी राशि जुटा दी ..उमा के लिए यह अप्रत्याशित था...जिंदगी भर जिन्हें आदर दिया , जब जो भी आवश्यकता पड़ी , उनका साथ दिया वो रिश्तेदार वक्त पर काम नहीं आये जबकि दोस्तों के लिए कभी कुछ विशेष नहीं किया ..उनसे कभी कोई अपेक्षा नहीं रखी.. उन्होंने अपनी जिम्मेदारी निभाई थी । वक्त ने उसे सच्चे रिश्तों का मोल समझा दिया था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

# नव वर्ष की नई सुबह #

नव वर्ष की नई सुबह #

कूक उठी कोयल
आम भी बौराये....
लद गई शाखें फूलों से
सबके मन हर्षाये...

फसलें पककर घर आईं
मेहनतकश मुस्काये...
शस्य स्यामला धरा के
आगे  अपना शीश नवाये...

धूप बत्ती की पावन गन्ध
घर - आँगन  को महकाये....
सुवासित हुआ तन - मन
मिटी मन की आशंकाएँ...

नई उमंगें  , नई चाह
राहें  सरल बनायें...
परिश्रम व दृढ़ विश्वास
लक्ष्य  तक पहुंचाएं...

नव वर्ष की नई सुबह
लेकर कई खुशियाँ आये....
सुख - समृद्धि बनी रहे
दूर  हों सब बाधाएँ ....

आप सभी को चैत्र प्रतिपदा नव वर्ष की शुभकामनाएं

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 5 April 2019

खुद से मिल लिया करो

जीवन में  तो गम बहुत हैं...
फिर भी हँसकर जी लिया करो ।
खामोशी  की इन दरारों को...
अपनी  बातों से सी लिया करो ।
आते हैं कभी जो  बेबसी के पल...
घूँट जहर भरा पी लिया करो।
छँट जायेगी धुंध धूप आने पर..
चुपचाप कुछ दूर चल लिया करो ।
कब तक डरायेंगे तुम्हें ये अंधेरे...
हाथों में जुगनू भर लिया करो ।
खुशियों का बसेरा तो अंतर्मन में है ...
कभी - कभी खुद से मिल लिया करो ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Tuesday, 2 April 2019

स्कूल की यादें ( संस्मरण )

यादें ...और वो भी बचपन की...मन को दूर कहीं उड़ा ले जाती हैं और कुछ देर के लिए अपने वर्तमान को भूलने को मजबूर कर देती हैं । बचपन की यादें होठों पर बरबस मुस्कान ला देती हैं क्योंकि उन पलों  में छुपी होती हैं ढेर सारी शरारतें...मस्ती...हुड़दंग । यूँ तो ढेर सारी बातें हैं कहने को पर यादों की पोटली से एक घटना आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ । बात उन दिनों की है जब  मेरे पापा जी की पोस्टिंग नारायणपुर में थी । वहाँ मिडिल स्कूल न होने के कारण लगभग एक किलोमीटर दूर नवागांव के स्कूल में पढ़ने जाना पड़ता था । हमारे ग्रुप में बहुत लोग थे तो साइकिल से जाते और खूब मस्ती करते हुए जाते । एक - दूसरे को चिढ़ाते , खिजाते रास्ता कैसे तय होता पता ही नहीं चलता । मुझे किताबें पढ़ने का बहुत शौक था और समाचार पत्र भी नियमित रूप से पढ़ती थी तो उनके बीच मेरा प्रभाव कुछ ज्यादा ही अच्छा था । सभी मेरी बातें ध्यान से सुनते भी थे । एक बार हम शौक में ही पैदल स्कूल गये पर थक गए थे तो लौटते समय हमने तय किया कि लिफ्ट लेकर जायेंगे। कोई गाड़ी आ नहीं रही थी... बस एक ट्रक दिखा , उसे ही रोककर हम पीछे ट्रॉली में बैठ गए ..हम सबको बहुत मजा आ रहा था तभी मुझे समाचार पत्र में पढ़ी एक घटना याद आई और मैंने अपने दोस्तों को बताया कि ऐसे ही एक ट्रक वाला एक लड़की को लिफ्ट के बहाने बिठाकर उसका अपहरण कर लिया था और दूसरे राज्य में ले जाकर बेच दिया । बस , क्या था...मस्ती वाले माहौल में भय व्याप्त हो गया...हालांकि बहुत दूर का सफर नहीं था फिर भी सभी डरने लगे । मुझे भी पछतावा होने लगा कि मैंने उन्हें अभी यह बात क्यों बता दी..हम अपने गाँव पहुँचने ही वाले थे...अपने रुकने के स्थान पर हमने हल्ला मचाया...रोको , रोको...चूंकि ट्रक स्पीड में थी तो कुछ  दूर आगे जाकर रुकी लेकिन मेरी एक सहेली डर के मारे कि ट्रक वाला नहीं रोक रहा है  ट्रक रुकने के पहले ही कूद गई और उसे सिर पर चोट भी लगी । तब मुझे महसूस हुआ कि  लोगों को डराने का गलत असर भी हो सकता है और मानसिक स्थिति सबकी भिन्न - भिन्न होती है इसलिए हम सबके साथ एक समान व्यवहार नहीं कर सकते । पर बाद में उस घटना को याद करके  हम सभी खूब हँसे और जो ट्रक से कूद गई थी उसकी खूब खिंचाई भी हुई । अगर ट्रक वाला हमें कहीं ले जाता तो क्या होता? इस विषय पर भी हमने खूब चर्चा की ....हाँ इस घटना के बाद हमें घर से समझाईश मिली कि आते - जाते ऐसा कोई भी रिस्क नहीं लेना है

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़