Tuesday, 30 May 2017

तलाश


  हम सब को एक ही चीज की तलाश है । हम उसे पाने के लिये जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं , दिन - रात एक कर रहे हैं।
जितना अपने पास है , उससे अधिक चाहिये । एक घर हो गया
दूसरा चाहिये ।  कार नहीं है तो कार चाहिये ,कार है तो उससे अच्छा वाला ( आरामदायक )  चाहिये । हर कोई अपने जीवन स्तर को  ऊँचा उठाना चाहता है , वो सारी सुविधाएं अपने परिवार को  उपलब्ध कराना चाहते हैं । शायद जीवन की सफलता के यही पैमाने हैं । अमीरी , रहन - सहन , यश ,मान - सम्मान  जिसके पास है , दुनिया की नजरों में वही व्यक्ति पूजा जाता है । पर क्या खुशियाँ इनके होने से ही मिलती है । जिसके
पास यह सब नहीं क्या वह खुश नहीं हो सकता ।सच तो यह
है कि ऐसे भी हैं जिनके पास सब कुछ है परंतु स्वास्थ्य ठीक
नहीं है , उनके सुख - दुख में साथ देने वाले अपने नहीं हैं , किसी के पास सच्चे दोस्त नहीं हैं  तो किसी का परिवार नही  है। कुछ न कुछ कमी हर इंसान में होती है फिर भी हम उन्हें
नजरअंदाज कर उनके साथ जीते हैं वैसे भी  सबको सब कुछ
नहीं मिलता ,जितना  अपने पास है , जो मिल गया उसी के लिये  हम ईश्वर का धन्यवाद करें । कल जब मेरे पास ये होगा
तो मैं ये करूँगा वाली प्रवृत्ति छोड़ें क्योंकि जिंदगी का क्या
भरोसा , कब मुट्ठी में से रेत की भांति फिसल जाए। अपने आज
को जियें और जी भर जियें । जिस हाल में हैं सन्तुष्ट रहें ,खुश
रहें क्योंकि खुशियों को ढूंढने जाएंगे तो वो नहीं मिलेगी ,वो
तो हमारे आस - पास  ही बिखरी पड़ी है , बस हमारे महसूस
करने की देर है ,इन्हें समेट लीजिये अपने दामन में ।
     मत पूछो खुशियों की हद, मिलेगी ये कहाँ ।
     बिखरी है कण - कण में ,धरती से लेकर आसमाँ।
     घृणा नहीं , हिंसा नहीं ,प्रकृति का खूबसूरत समां।
     जी लो जी भर के, पाओ खुशियाँ ही खुशियाँ ।

  स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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Wednesday, 24 May 2017

साया


कल रात मैंने देखा एक पेड़ ,
जिसकी पत्तियां गिर गई थी ।
शाखाओं पर ढेर सारे,
चेहरे टँगे थे ।
कुछ गुमसुम , उदास , रोते ,
बेढंगे , बदसूरत चेहरे ।
स्याह बादलों के दैत्य ,
आग उगल रहे थे ।
आसमान रो रहा था ,
खून के आँसू ...
बर्फ बन रहे थे नदी और समंदर,
तालाब कीचड़ उछाल रहे थे।
जीव - जंतु भाग रहे थे,
इधर - उधर बेतहाशा ।
पुरवइया नम थी ,
धरती गर्म थी ।
पंछी व्याकुल से ,उल्लू हावी थे।
गिद्धों की फौज ,
चक्कर पे चक्कर काट रही थी ।
न जाने कैसा मंजर था,
बेजान मूर्तियों के ,
हाथों में ख़ंजर था ।
पत्थर भी रोते थे ,
मौत पे जश्न होते थे ।
कुछ काले साये
झण्डे उठाये घूम रहे थे,
न जाने किसे ढूंढ रहे थे।
क्या कोई तूफान या,
जलजला आया था ।
या ये आने वाली ,
बलाओं का साया था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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चेहरे पर चेहरे

कहते हैं चेहरा ,दर्पण होता है मन का,
कह देता है सारी बात ...
क्यों नहीं जान पाते हम,
किसके मन में क्या छुपा ।
क्यों नहीं देख पाती पत्नी,
पति के मन में टूटते ,
विश्वास के तार ।
क्यों नहीं झाँक लेती आँखों में,
पीड़ा , अवसाद ।
छली क्यों जाती है नवयौवना ,
प्रेमी के रसपगी बातों में ।
क्यों  फँस जाता है व्यक्ति ,
झूठ के बुने जालों में ।
उलझ जाता है जमाने की,
फरेबी ,चिकनी बातों में ।
क्यों देती है पनाह मासूमियत,
धोखे और दरिंदगी को ।
क्या इस दर्पण में भी ,
कुछ लेप पुता होता है।
कुछ लोगों के चेहरे ही,
नकली होते हैं या ...
चेहरे पे चेहरे टँगे होते हैं।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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कीमत ( लघुकथा )

    दरवाजे की घण्टी बजी थी ... शायद पोस्टमैन था ..
हाथों में लिफाफा लिये सीमा चली आ रही थी , लो
आ गया एक और सौ रुपये का खर्च ...राखी है
तुम्हारी मुँहबोली बहन की ....न जाने कितनी बहनें
बना रखी हैं  आपने....।
       अरे ! इस बार देर से आई....रक्षाबन्धन को गए
तो एक सप्ताह हो गया...बस इतना ही कह पाया
प्रत्युत्तर में.....परन्तु अपने भाइयों के लिये राखी
छाँटते हुए सीमा का खुशी से दमकता हुआ चेहरा
अनायास ही याद आ गया । स्नेह भरे इन धागों का
भी भला कोई मोल चुका सकता है , तभी दरवाजे
की घण्टी पुनः बजी ।
    पोस्टमैन एक डाक देना भूल गया था....मैंने सीमा
को आवाज  दी ....तुम्हारे भाई का मनीऑर्डर है , शायद
राखी का ....मैंने महसूस किया सीमा की नजरें झुक
गई थीं.... शायद कुछ समय पहले कहा गया उसका
अपना ही वाक्य उसे आहत कर गया था ।
  स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग  ,  छत्तीसगढ़

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पिंजरा ( लघुकथा )

     पिकनिक जाने की खबर सुनकर सारा स्टॉफ चहक
उठा था । रागिनी को छोड़कर  , वह  अक्सर ऐसे आयोजनों में शामिल नहीं होती थी ,क्योकि उसके पति
को यह सब पसन्द नहीं था । उनसे पूछे बिना वह कोई
निर्णय नहीं ले सकती थी । छोटी से छोटी चीज भी
उसके पति ही लाकर देते थे ; न वह अपनी इच्छा से
कुछ पहन सकती और न खा सकती थी । उसका
वेतन भी उसके पति ही निकालते थे ।
     कहने को तो रागिनी है पढ़ी - लिखी , आत्मनिर्भर
पर उस परकटे तोते की तरह ....जिसे पिंजरे से निकलकर कुछ देर कमरे में खुला छोड़ दिया जाता है ।
     घण्टी बजी ....छुट्टी हो गई है या शायद रागिनी के
पिंजरे में जाने का वक्त .....।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Friday, 19 May 2017

खोटा सिक्का ( कहानी )

     आज निमिष ने बैंक में अपनी नौकरी लगने की खबर सुनाई तो हर्षातिरेक से मेरी आँखें भर आईं ।
ईश्वर ने आज मेरी फरियाद सुन ली थी। निमिष ने अपनी योग्यता साबित  कर दी थी । समाज इन्हीं
सब से तो मूल्यांकन करता है व्यक्ति का । परीक्षा
में जो अच्छे अंक लाये वही अच्छा विद्यार्थी ; पढ़ -
लिख कर उच्च पद प्राप्त करे , खूब पैसा कमाए
वही सफल  इंसान , चाहे इसके लिए  उसने कितनों के साथ अन्याय किया हो , चाहे उसमें लाख बुराइयाँ हों , सब दब जाती हैं । उसमें अच्छे इंसान होने के अन्य गुण हो या न हो , दुनिया को उससे फर्क नहीं पड़ता परन्तु उनसे जुड़े लोगों को तो पड़ता है । क्यों हमारा समाज ऐसे थोथे मानदण्ड अपनाता है व्यक्ति को परखने का ? आज्ञाकारी , सेवाभावी , ईमानदार व्यक्ति इन मापदण्डों पर खरा न उतरे तो क्या घर , परिवार , समाज के लिये
उसका कोई महत्व नहीं रह जाता । किसी के पास बहुत
पैसे आ जाये और वह जरूरतमंद की मदद करने की
भावना नहीं रखता तो क्या वह समाजोपयोगी कहलाएगा ?
         निमिष और  शिरीष  मेरी दीदी के दो बेटे ,रूप -
रंग , देहयष्टि में दोनों ही श्रेष्ठ हैं । शिरीष  बचपन से ही
कुशाग्र बुद्धि निकला , हमेशा कक्षा में प्रथम स्थान
प्राप्त करता परन्तु उससे तीन वर्ष छोटा निमिष दिन
भर क्रिकेट में रमा रहता । चलते- फिरते , उठते - बैठते
उसके हाथ बॉलिंग की मुद्रा बनाते ही दिखते । वह नींद
में भी आउट - आउट बड़बड़ा उठता । पढ़ाई में विशेष
रुचि नहीं थी उसकी ।
       निमिष की नौकरी लगने की खुशी में मैंने सारे मोहल्ले में मिठाई बाँट डाली थी परंतु मेरे पति यश
की टिप्पणी ने मुझे आहत कर दिया था - इतनी खुश
तो तुम शिरीष के  एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में असिस्टेन्ट
मैनेजर बनने पर नही हुई थी , जितनी निमिष के बैंक
में क्लर्क की नौकरी लगने पर हो रही हो ।...शायद वह
अपनी जगह सही थे ।
        मुझे वह दिन याद आ रहा था जब मेरे बेटे आर्यन
के पैर में चोट लग गई थी और मैंने दीदी को फोन किया
था । शिरीष  घर पर था पर उसकी  पढ़ाई का समय होने के  कारण वह नही आया  । निमिष को बाहर ही
किसी से यह जानकारी हुई और वह दौड़ा - भागा चला आया था । उसने आर्यन को अस्पताल ले जाने में न सिर्फ मेरी मदद की बल्कि उसकी मरहम - पट्टी होते तक वहीं मेरे साथ बैठा रहा । मेरे पति यश की पोस्टिंग
बाहर थी इसलिये मैं दोनों बच्चों को लेकर अकेले ही
रह रही थी । नौकरी करते  हुए  बच्चों को लेकर अकेले
रहना; सचमुच कई बार बहुत परेशान हो जाती थी मैं ।
जब - जब मुझे सहयोग की आवश्यकता होती , निमिष
को भनक भर लगने की देर थी और वह हाजिर हो जाता था ।
      गैस सिलेंडर लाना है , सब्जी लाना है , ऑटो न
आने पर बच्चों को स्कूल छोड़ना है इत्यादि कई छोटे
मोटे काम वह खुशी से कर देता । मेरे लिये ही नहीं ,
उसके विशाल हृदय का द्वार हर किसी के लिये खुला
था । उसके दोस्तों की फेहरिस्त भी काफी लंबी थी ,
ऐसे इंसान को दोस्त बनाना कौन नहीं चाहेगा जो
निःस्वार्थ सबकी मदद करने को तैयार रहता हो। अपने पापा - मम्मी की भी वह हर बात मानता। उसके लिए
अपनी पढ़ाई या अपना खेल कुछ भी इतना महत्वपूर्ण
नहीं था ।नदी के कलकल बहते स्वच्छ जल की तरह
था उसका जीवन , जिधर राह मिली , उधर चल दी ।
       उसके उलट शिरीष अलग स्वभाव का था । दोस्त
हों या रिश्तेदार , हर सम्बन्ध में वह अपना फायदा देखता था ।दीदी - जीजाजी भी हर बात में उसका पक्ष
लेते । शिरीष की पढ़ाई , उसकी सुविधाओं का विशेष
ध्यान रखा जाता । कोई भी काम हो -निमिष तू जा , निमिष कर देगा न ! कई बार उसकी परीक्षा के समय
भी दीदी निमिष को उठा  देती। मैंने दीदी को कई बार
टोका भी ,परन्तु वह ध्यान नहीं देती....कौन सा अच्छे
नम्बर लाता है ।
        निमिष का मन शायद वह पढ़ नहीं पाती थी । बड़ा भाई इतना प्रतिभाशाली और छोटा भाई बड़ी
मुश्किल से पास हो रहा है । दोनों की तुलना हर बात
में होती थी । पड़ोसी , रिश्तेदार सभी के व्यवहार में
भेदभाव स्पष्ट दिखाई देता था । आखिर बच्चा  था
वह भी , दुखी तो होगा ही । कभी - कभी बहुत उदास
होकर वह मेरे पास आकर रोता था । मै उसे समझाती-
" तू किसी की बात को दिल से मत लगाना निमिष ।
तू तो दिल का हीरा है बेटा हीरा...जिसकी परख हर
कोई नहीं कर सकता । जीवन में सिर्फ पढ़ाई , नम्बर
ही सब कुछ नहीं है बेटा । तेरी सबसे बड़ी खूबी यही है
कि तू सच्चा इंसान  है । अपने सद्व्यवहार से तुम बहुत
आगे जाओगे ...तुम अपने - आपको कभी मत बदलना
निमिष , तुम ऐसे ही रहना । मैंने उसे अपने गले से लगा
लिया था । समय - समय पर मै उसे कई प्रेरक - प्रसंग
सुनाया करती थी । ऐसे लोग जो बहुत ही संघर्ष करके
जीवन में आगे बढ़े हैं । उद्यमी , संगीतकार , गीतकार , नृत्यांगना जो पढ़ाई के अलावा विविध क्षेत्रों में आगे बढ़े
उनके बारे में उसे बताया ताकि वह निराशा  व कुण्ठा
से ग्रसित न हो ।
       शिरीष का एन. आई. टी. त्रिची में दाखिला हो गया
था अतः वह पढ़ाई करने बाहर चला गया । निमिष कॉमर्स लेकर पढ़ाई करने लगा । कम अंकों से ही सही ,पर प्रत्येक कक्षा में वह पास होता रहा । बी. कॉम
की परीक्षा में अच्छे अंक लाने के लिये जीजाजी उसे
खूब डाँटते । कम अंक आने पर दीदी ने भी उसे ताने
दिए यहाँ तक कि उसे खोटा सिक्का भी कह डाला ।
निमिष के साथ उस दिन मेरी भी खूब खिंचाई हुई कि
मैं उसका साथ देती हूँ । दीदी ने मुझसे कहा - " सीमा
तेरा तो वह बहुत लाडला है ना ! अब तू ही उसे समझा
पढ़ - लिख लेगा तो उसके अपने जीवन के लिये सही
रहेगा । वरना कोई दुकान खोल के बैठना पड़ेगा ।"
     " दीदी , मै उसे समझाऊंगी और यदि आप लोग
थोड़ा धैर्य रखें तो वह जरूर सम्भल जाएगा । "धरती
की गहराइयों में दबे रहने पर भी सोना , सोना ही रहता
है , पीतल नहीं बन जाता ; हाँ उसका तपना जरूरी है
अपनी चमक पाने के लिये ।" लेकिन प्लीज, अभी उसे
ताने देना आप लोग बन्द कीजिये । उसे वक्त दीजिये ,
उस पर अपनी इच्छाओं को मत थोपिए ...कहीं भावावेश में उसने कोई गलत कदम उठा लिया तो ...।
       कितनी मुश्किल से सम्भला था निमिष और वह
अपनी जिम्मेदारी भी समझ गया  था । बी. कॉम. के बाद आगे पढ़ने को वह तैयार नहीं था लेकिन मैंने
उसे प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी के लिये मना लिया
और एक अच्छे कोचिंग सेंटर में उसका दाखिला भी करा दिया । अपने दोनों बच्चों के साथ मुझे उसकी
भी फिक्र लगी रहती । जब भी उसकी पसंद का नाश्ता
छोले - भटूरे या कटोरी चाट बनाती , उसे फोन कर देती,
साथ ही उसकी तैयारी के बारे में भी पूछ लेती । एक - दो , क्या कई परीक्षाओं में उसे सफलता नहीं मिली । यश के साथ - साथ दीदी - जीजाजी को भी मेरा प्रयास
निरर्थक लगता
" तू भी कहाँ उसके पीछे पड़ी है... पढ़ाई - लिखाई उसके बस की बात नहीं....उसे किसी बिजनेस में..."।
         " दीदी ,अभी उसकी उम्र ही क्या हुई है, उसे प्रयास करने तो दीजिये।" मैने दीदी को वाक्य भी पूरा
करने नहीं दिया था ।
      आज निमिष मेरी उम्मीदों पर खरा उतरा था । जब
आप बच्चों पर विश्वास रखते हैं तब उनकी भी इच्छा
होती है कि वे उसे बनाये रखें । हमारा अविश्वास उनके
मनोबल को तोड़ देता है और वे आत्मविश्वास खो देते
हैं । प्रोत्साहन और धैर्य बनाये रखना माता - पिता के
लिये सबसे ज्यादा जरूरी है, मैंने भी यह सबक सीखा
था जिंदगी से । मुझे  विश्वास है निमिष कल अपनी
सारी जिम्मेदारियों में खरा उतरेगा और एक न एक दिन
दीदी - जीजाजी भी इस खोटे सिक्के का असली मूल्य
अवश्य जान जाएंगे ।।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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Thursday, 18 May 2017

दूर के ढोल ( कहानी )

      रुचि ....बताओ तो किसका पत्र आया है -  आफिस से  आते ही अक्षय  ने आवाज लगाई । अक्षय के हाथ  मे एक खूबसूरत लिफाफा था , उसे देखकर रुचि समझ
गई कि निशा दीदी का पत्र आया है ।
        यह लो तुम्हारा पत्र - अक्षय ने हाथ आगे बढ़ाया
पर जैसे ही रुचि ने उसे पकड़ना चाहा , अक्षय ने अपना
हाथ खींच लिया । दीजिये न ! रुचि पत्र को लेने के लिए
मचल पड़ी । वैसे अक्षय की मजाक करने की आदत उसे अच्छी लगती है ,पर दीदी के पत्र के लिए वह इंतजार भी तो नहीं कर सकती ।
       निशा , रुचि की प्यारी बहन , किस्मत की धनी
थी । एक ही घर में जन्म लेकर भी दोनों के रूप - रंग
और स्वभाव में जमीन - आसमान का अंतर था । निशा
दीदी बहुत ही खूबसूरत और शोख स्वभाव की थी ,
उनके  इस असाधारण रूप - सौन्दर्य को देखकर शहर
के जाने - माने रईस रमाकांत जी के सुपुत्र ऐसे मुग्ध
हुए कि उन्होंने विवाह करने की जिद ही ठान ली ।
       इतना अच्छा रिश्ता पाकर पिताजी भी तुरन्त
राजी हो गए । उनकी शादी के बाद एक बार रुचि
दीदी के घर गई थी । उनका शानदार बंगला देख कर
ही उसकी आँखें खुली रह गई थी , नौकरों - चाकरों
से घर भरा था ....किसी रानी से कम नहीं था उनका
वैभव ....।
        इसके विपरीत रुचि के नैन - नक्श साधारण थे।
उसकी शादी एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुई थी ।अक्षय
एक कम्पनी में इंजीनियर थे , वैसे उसे भी किसी बात की कमी नहीं थी , पर दीदी के सामने वह अपने आपको हमेशा बौना महसूस करती । उसे ईश्वर से बहुत
शिकायत थी , जिसने दो बहनों की किस्मत में इतना
भेदभाव किया था । अक्षय इस बात को समझता था ,
इसलिये हमेशा उसे खुश रखने की कोशिश करता ।
      निशा दीदी का पत्र पढ़कर रुचि खुशी से चहक उठी
-अक्षय , अगले हफ़्ते दीदी यहाँ आ रही हैं हमारे घर ।
अरे वाह! यह तो  खुशी की बात है - अक्षय ने कहा । पर, अचानक ही रुचि उदास हो गई । उसका बुझा हुआ
चेहरा देखकर उसने पूछा - तुम्हें क्या हुआ ?
      - अक्षय क्या दीदी को हमारा यह छोटा  सा घर
पसन्द आएगा ? कहाँ वे और कहाँ हम ।
   - ओह रुचि , तुम चिन्ता क्यों करती हो ? उन्हें हम
कोई तकलीफ नहीं होने देंगे । दिन भर घुमाएंगे , बाहर
खाना खिलाने ले जाएंगे , मै  ऑफिस से दो - तीन दिन
की छुट्टी ले लूंगा , अब तो हँस दो । पति की बातें सुनकर रुचि बहुत खुश हुई । वाकई , अक्षय उसका
बहुत खयाल रखते हैं ।
       पूरा सप्ताह निशा दीदी के इंतजार में बीता , आखिर दीदी आ गई , जीजाजी साथ नहीं आये थे ,
वह  अपने व्यवसाय के काम से बाहर गए थे । अक्षय
और रुचि का स्वागत देखकर दीदी बहुत खुश हुई ।सड़क किनारे पानीपूरी , चाट खाना ,बगीचे की
हरियाली को निहारना , पौधों को पानी देना जैसी
छोटी - छोटी बातें दीदी को इतनी खुशी प्रदान करेगी
रुचि ने सोचा न था । लगता था जैसे वो इन सब के
लिए तरस रही हों । जिसके पास जिस चीज की कमी
हो , वही उसके लिए अनमोल होती है । सड़क किनारे
झुग्गी - झोपड़ी में रहने वाले के लिए  खाना और
अच्छा घर एक सपना होता है , उसे पेड़ ,पौधों ,प्रकृति
की सुंदरता निहारने में क्या मजा आएगा ? दीदी के
साथ पूरा सप्ताह कैसे बीता , पता ही नहीं चला ।
    जाते वक्त दीदी ने खूब जिद की अपने साथ चलने
की । उनके असमर्थता जाहिर करने पर , जल्द ही
छुट्टी में  आने का वादा लेकर ही वे गई ।
       रुचि, दीदी के ठाठ - बाट से प्रभावित थी । वह
भौतिक सुख - सुविधाओं को सुखी जीवन का पर्याय
मानती थी । पर , अक्षय के विचार भिन्न थे । वह सादे
जीवन को ही अपना आदर्श मानता था और हमेशा
रुचि को समझाता कि महलों में लोग खो जाते हैं ,
इसलिये अधिक ऊँचा बनने का ख्वाब देखना ठीक
नहीं । पर , दीदी के वैभव से प्रभावित रुचि को कुछ
समझ में नहीं आता था और वह छोटी - छोटी बातों
को लेकर अक्षय से लड़ बैठती थी । यही बातें अक्सर
दोनों के बीच तनाव का कारण बन जाती थी ।
   सच का एहसास रुचि को तब हुआ , जब वह कुछ
दिनों के लिये दीदी के पास गई । दरअसल , अक्षय को
प्रशिक्षण के लिए ऊटी जाना पड़ा इसलिए रुचि निशा
दीदी के पास चली आई थी ।
       वाकई , उस महल में  दीदी गुम सी गई थी । उनकी
शोखियों को भारी आभूषणों ने दबा दिया था । नौकरों
की फौज  और समस्त सुख - सुविधाओं वाले उस बंगले
में एक सन्नाटा था । घर की जिम्मेदारियों , सास - ससुर
की सेवा में दीदी लगी रहती ।ये पहले की रुचि दीदी तो बिल्कुल  नही थी ।
    जीजाजी घर पर कभी - कभी ही रहते थे । रुचि
वहाँ दस दिन रही , पर उनसे एक - दो बार ही मुलाकात
हो पाई वो भी कुछ समय के लिए । हालांकि दीदी ने
उसे शहर घुमाया , अपनी सहेलियों से मिलाने ले गई,
पर रुचि का मन वहाँ नहीं लगा । उस दिखावे भरे
माहौल से वह जल्दी ही ऊब गई । दीदी अपनी उदासी
को मुस्कुराहट की ओट में छुपाने का असफल प्रयास
करती थी , यह देखकर रुचि को बहुत दुःख हुआ ।
    कितना सही कहा था अक्षय ने - दूर के ढोल सुहाने
होते हैं रुचि , दूर से हमें ढोलक की आवाज मधुर लगती
है , लेकिन जैसे - जैसे उसके पास आते जाते हैं , वही
आवाज कर्कश लगने लगती है और बिल्कुल करीब से तो उसे सुनना भी  असहनीय हो जाता है । आज रुचि को महसूस हुआ कि उसके पास तो अमूल्य सम्पत्ति है, हर परिस्थिति में जीने की प्रेरणा देने वाला अक्षय और
खुशियों से भरा उनका प्यार सा घर । छोटी - छोटी
बातों के लिये उसने अक्षय को कितना तंग किया था,
जाते ही माफी मांग लेगी उनसे । उसे अपने पति की
बहुत याद आ रही थी , उसने दीदी से अपने जाने का
निर्णय कह सुनाया और गुनगुनाते हुए तैयारी करने
लगी अपने प्रिय के पास जाने की ।
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स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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Tuesday, 16 May 2017

चिड़िया

बहुत दिनों बाद ,
मेरी रसोई में आई है चिड़िया ...
गर्मी से बेहाल होकर  या
जमाने की शिकायत करने ।।
मैंने डाले हैं बरामदे में
चावल के दाने ,
थोड़ा खाई ,थोड़ा  फैलाई है चिड़िया,
लगी  चहचहाने ।।
आने से इनकार कर रही है,
रोशनी कमरों के भीतर ,
कब्जा रोशनदान पे कर आई है चिड़िया,
घोसलों के बहाने ।।
झाँकने लगी हैं पेड़ों की शाखें ,
पत्ते कुछ भीतर गिरे हैं,
अपनी चोंच में  कुछ दबा ले आई है चिड़िया,
बच्चों को खिलाने ।।
चहकती , फुदकती ,
ठहरती न ,दिन भर उड़ती रहती,
मेहमान बनकर आई है चिड़िया ,
हमें कर्मठता का पाठ पढ़ाने ।।
बहुत दिनों बाद आई है चिड़िया,
आँगन में चहचचहाई है चिड़िया ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे ,
HIG 1 / 33 आदित्यनगर , दुर्ग , छत्तीसगढ़

Monday, 15 May 2017

* जन्म ( लघुकथा ) *

              शबनम अस्पताल में थी ....प्रसव - पीड़ा की हर लहर उसे अतीत के समंदर में खींच ले जाती थी ।
नवमी कक्षा में पढ़ाई छुड़ा दी गई ...पढाई में अच्छी होने
के बावजूद ....अपने से दस वर्ष बड़े वसीम से निकाह ...
दो वर्ष बाद बच्चा न होने पर उलाहना , मारपीट ....पीड़ा
गहराती जा रही थी । पति का दूसरा निकाह , सौतन के आने के बाद कूड़ेदान की तरह उपेक्षित ....। कुछ समय
पश्चात उसकी भी गोद भर गई थी । अपने - आपको
सम्पूर्ण साबित करके भी वसीम  से शिकायत नहीं कर
पाई थी । यह उसका तीसरा प्रसव था लड़के के लिए ।
                  पीड़ा की एक और लहर ....अपनी मासूम
बेटियों के चेहरों पर उसे अपनी ही झलक नजर आ रही
थी । आज तक कभी किसी बात का विरोध नहीं किया
लेकिन.....इस बार पीड़ा के इस समंदर से उबर कर आ
गई तो वह बोलेगी अपनी बेटियों के हित के लिए । परिस्थितयों से लड़ेगी ,उन्हें वो शिक्षा दिलाएगी जो उसे
न मिली ।उसमें एक अजीब शक्ति और उत्साह का संचार
हो रहा था .....मर्मान्तक पीड़ायुक्त आखिरी लहर । आत्मविश्वास भरी विजयी मुस्कान । पता नहीं इस बार
उसको बेटा हुआ या बेटी ....लेकिन उसने अपने अस्तित्व
के एहसास को जन्म दे दिया था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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Saturday, 13 May 2017

अब हमारी बारी


माता - पिता हमें जन्म देते हैं
हमें पालते हैं , शिक्षा देते हैं ।
अपना सुख - दुख भूल जाते हैं,
हमारी हर ख्वाहिश पूरी करते हैं।
अपनी खुशियों को होम कर देते हैं
ताकि हम खुश रहें , आगे बढ़ें ।
वो कर्ज लेते हैं हमारी पढ़ाई के लिए ,
फिर जिंदगी भर उसे चुकाते रहते हैं ,
अपनी इच्छाओं को मार के ।
उनके दिल को कितनी भी चोट लगे,
पर वो हमें नही रोकते दूर जाने से ।
उनकी दुनिया में कितने भी अंधेरे हों,
वो हमें उजाले देना चाहते हैं ।
बच्चों का भविष्य ,
जिसके लिए वो इतना त्याग करते हैं ,
बनने के बाद , हम क्या करते है ,
अपनी एक अलग दुनिया बसा लेते हैं।
उन्हें छोड़ देते हैं जिन्होंने  ,
हमारी परवरिश को अपने
जीने का उद्देश्य बनाया  ।
हम इतने स्वार्थी क्यों हो जाते हैं ?
क्यों नहीं अब हम ,
अपनी जिम्मेदारी निभाते ।
अब बारी हमारी है ,
उनका हाथ थामने की ।
उनकी देखभाल करने  की ,
उनके लिए  समय निकालने की ।
उनका सहारा बनने की ,
उनके लिए थोड़ा सा त्याग करने की ।
उनको समझने की ,
उन्हें खुशियाँ प्रदान करने की ,
जिसके वे हकदार हैं  ।।

स्वरचित - डॉ . दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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Thursday, 11 May 2017

ढाल (लघुकथा )

ढाल ( लघुकथा )
 
    शर्मा जी के बेटे की नई - नई शादी हुई थी । खूब ढूढ़ के बहु लाये  थे  शर्माजी और उनकी पत्नी जानकी जी ।
पढ़ी -लिखी , नौकरी करने वाली , हर काम में चुस्त ।
पर जानकी जी को उसकी एक आदत बिल्कुल अच्छी
नहीं लगती , टपर - टपर बोलती बहुत है । उसको कुछ
बोल दो , बात को ठहरने भी नहीं देती , तुरन्त जवाब देती
है ।
      कुछ समय बाद शर्मा जी के  बड़े भाई के बेटे की शादी थी । उन्होंने अपनी हैसियत के हिसाब से बढ़ - चढ़
कर ही खर्च किया था ,लेकिन औरतों को सन्तुष्टि कहाँ
मिलती है , मेहमानों के सामने जेठानी जी जानकी को
मनमाना सुनाने लगीं । बेचारी जानकी , थोड़ी सीधी थी,
ऊपर से जेठानी का रोब ,चुपचाप सब सुन रही थी । पता
नहीं कहाँ से सुन रही बहु वहाँ आ पहुँची , और उसने अपनी सास का पक्ष लेते हुए जो खरी - खरी अपनी बड़ी
सास को सुनाई ,तो उनकी सिटी - पिट्टी  गुम हो गई और वह चुप हो गई । आज  पहली बार बहु का बोलना   सास को नहीं अखर रहा था ...वह ढाल जो बन गई थी अपनी
सासु  माँ के लिए ।
     स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़

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