दरवाजे की घण्टी बजी थी ... शायद पोस्टमैन था ..
हाथों में लिफाफा लिये सीमा चली आ रही थी , लो
आ गया एक और सौ रुपये का खर्च ...राखी है
तुम्हारी मुँहबोली बहन की ....न जाने कितनी बहनें
बना रखी हैं आपने....।
अरे ! इस बार देर से आई....रक्षाबन्धन को गए
तो एक सप्ताह हो गया...बस इतना ही कह पाया
प्रत्युत्तर में.....परन्तु अपने भाइयों के लिये राखी
छाँटते हुए सीमा का खुशी से दमकता हुआ चेहरा
अनायास ही याद आ गया । स्नेह भरे इन धागों का
भी भला कोई मोल चुका सकता है , तभी दरवाजे
की घण्टी पुनः बजी ।
पोस्टमैन एक डाक देना भूल गया था....मैंने सीमा
को आवाज दी ....तुम्हारे भाई का मनीऑर्डर है , शायद
राखी का ....मैंने महसूस किया सीमा की नजरें झुक
गई थीं.... शायद कुछ समय पहले कहा गया उसका
अपना ही वाक्य उसे आहत कर गया था ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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