शर्मा जी बहुत बीमार थे , सोचा उन्हें देख आऊँ ।
अस्पताल में उनके पास उनकी पत्नी बैठी थी । कुछ देर
उनके पास बैठा रहा । वो अपनी बीमारी का विस्तृत
वर्णन करते रहे । मैंने गौर किया , उन्होंने एक बार भी
अपने बड़े बेटे का जिक्र नहीं किया जो अमेरिका में जा
बसा था । इसके पूर्व जब भी मुलाकात होती , उनके
होठों पर अपने बड़े बेटे का ही नाम रहता था । राकेश
ने ये किया , राकेश ये लाया आदि आदि । राकेश ने
पढ़-लिख कर उनकी नाक ऊंची कर दी थी । वो उनका
गर्व था । पर ऐसा करते हुए वे कभी ये न सोचते कि
इन सब से उनके छोटे बेटे को दुख पहुँचता होगा जो
भले ही बहुत बड़ा मुक़ाम नहीं बना पाया ,पर उनके
साथ तो है ।
मै उनसे बात ही कर रहा था कि उनका
छोटा बेटा राजेश खाना लेकर आया , साथ ही दवाइयाँ
और ढेर सारे फल । आपने दवाई खाई पापा -आते ही
उसने पूछताछ की । हाँ बेटे , तुम निश्चिंत होकर ऑफिस
जाओ , उन्होंने कहा । माँ , इनका ध्यान रखना और कुछ काम हो तो फोन कर देना -कहकर राजेश चला
गया । खोटा सिक्का कहकर जिसे तिरस्कृत करते थे
आज वही उनकी देख - भाल कर रहा था । उनकी आँखों में अपराधबोध स्पष्ट नज़र आ रहा था । सच है,
वक्त खरे - खोटे का निर्णय कर ही देता है ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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