Wednesday, 24 May 2017

साया


कल रात मैंने देखा एक पेड़ ,
जिसकी पत्तियां गिर गई थी ।
शाखाओं पर ढेर सारे,
चेहरे टँगे थे ।
कुछ गुमसुम , उदास , रोते ,
बेढंगे , बदसूरत चेहरे ।
स्याह बादलों के दैत्य ,
आग उगल रहे थे ।
आसमान रो रहा था ,
खून के आँसू ...
बर्फ बन रहे थे नदी और समंदर,
तालाब कीचड़ उछाल रहे थे।
जीव - जंतु भाग रहे थे,
इधर - उधर बेतहाशा ।
पुरवइया नम थी ,
धरती गर्म थी ।
पंछी व्याकुल से ,उल्लू हावी थे।
गिद्धों की फौज ,
चक्कर पे चक्कर काट रही थी ।
न जाने कैसा मंजर था,
बेजान मूर्तियों के ,
हाथों में ख़ंजर था ।
पत्थर भी रोते थे ,
मौत पे जश्न होते थे ।
कुछ काले साये
झण्डे उठाये घूम रहे थे,
न जाने किसे ढूंढ रहे थे।
क्या कोई तूफान या,
जलजला आया था ।
या ये आने वाली ,
बलाओं का साया था ।

स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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