ढाल ( लघुकथा )
शर्मा जी के बेटे की नई - नई शादी हुई थी । खूब ढूढ़ के बहु लाये थे शर्माजी और उनकी पत्नी जानकी जी ।
पढ़ी -लिखी , नौकरी करने वाली , हर काम में चुस्त ।
पर जानकी जी को उसकी एक आदत बिल्कुल अच्छी
नहीं लगती , टपर - टपर बोलती बहुत है । उसको कुछ
बोल दो , बात को ठहरने भी नहीं देती , तुरन्त जवाब देती
है ।
कुछ समय बाद शर्मा जी के बड़े भाई के बेटे की शादी थी । उन्होंने अपनी हैसियत के हिसाब से बढ़ - चढ़
कर ही खर्च किया था ,लेकिन औरतों को सन्तुष्टि कहाँ
मिलती है , मेहमानों के सामने जेठानी जी जानकी को
मनमाना सुनाने लगीं । बेचारी जानकी , थोड़ी सीधी थी,
ऊपर से जेठानी का रोब ,चुपचाप सब सुन रही थी । पता
नहीं कहाँ से सुन रही बहु वहाँ आ पहुँची , और उसने अपनी सास का पक्ष लेते हुए जो खरी - खरी अपनी बड़ी
सास को सुनाई ,तो उनकी सिटी - पिट्टी गुम हो गई और वह चुप हो गई । आज पहली बार बहु का बोलना सास को नहीं अखर रहा था ...वह ढाल जो बन गई थी अपनी
सासु माँ के लिए ।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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