उस रात मेरे बेटे को बहुत बुखार था । आधी रात को उसके सिरहाने पर बैठी मै उसके माथे की पट्टियां बदल रही थी .. अनायास ही माँ याद आ गई । तीज के अवसर पर इस बार मेरा मायका जाना मुश्किल था क्योंकि मेरा गर्भावस्था का आठवां माह चल रहा था ।भैया के घर पर माँ भिलाई आ गई थी और मैं भी वहाँ
आसानी से पहुँच गई । उस रात मै बहुत बेचैन थी ,नींद न आने के कारण बिस्तर पर करवटें बदल रही थी ।तब मां को पीलिया हो गया था ,वह स्वयं बीमार थी पर मुझे
तकलीफ में देखकर पता नहीं कब वह मेरे सिरहाने बैठ
कर मेरा सिर सहला रही थीं ।मेरे बगल में लेट कर वह
मेरी पीठ सहलाती रहीं ,पता नहीं कब मुझे नींद आ गई।
सुबह उठकर देखा तो वह पूरा खाना बनाकर
मेरे उठने का इंतजार कर रही थीं ।उस के दो दिनों बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया और फिर वहाँ से
वह वापस नहीं आई। मां चिरनिद्रा में लीन हो गई थीं।
वह रात उनके साथ मेरी आखिरी रात थी ।मां ऐसी ही होती है ,अपने बच्चे की सारी तकलीफ वह अपने हिस्से में ले लेती है और अपनी सारी खुशियाँ बच्चे के नाम कर देती हैं। आज भी अपनी तकलीफों में मैं मां को अपने आस - पास महसूस करती हूँ मानो कह रही हों - सो जाओ , सब ठीक हो जाएगा और अपने सारे दुःख - दर्द , तकलीफें उन्हें सौंप कर मै निश्चिंतता की नींद सो जाती हूँ । अब समझ में आया है सिरहाने पर बैठी मां के मायने है बच्चे के लिए सुकून भरी नींद ।।
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छत्तीसगढ़
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