Monday, 8 May 2017

सन्तुलन

मेरी दादी अक्सर मुझे अपने समय की बातें सुनाया
करती थीं , उस समय के रहन - सहन , खान - पान की तुलना आज से करके अपनी नाराजगी भी जाहिर करतीं थीं । पर हाँ , वर्तमान की अच्छी बातों की तारीफ करना भी वह नहीं भूलती थी । उन्हें सलवार - कुर्ता बहुत भाता था ,कहती हमारे समय मे ये नही मिलता था वरना मै जरूर पहनती । मैं उनसे मजाक किया करती कि दादी अब भी पहन सकती हो।वृद्धों को अपना अतीत बहुत
याद आता है क्योंकि वे तब समृद्ध थे । उसी प्रकार युवा
हमेशा अपने भविष्य के बारे में सोचता है,सपने देखता है , अधिक अच्छा करने के बारे मे सोचता है। वृद्ध वर्तमान में अतीत देखते हैं और युवा अपना भविष्य ,यानी कि अपने वर्तमान से कोई सन्तुष्ट नहीं रहता ।आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसीलिए वर्तमान को सुधार काल कहा है  क्योंकि हम असन्तुष्ट रहते हैं तो सुधारने  का प्रयास
करते हैं , सन्तुष्ट हो गए तो कोई बदलाव लाने की बात
क्यों सोचेगा । दूसरी तरफ सन्तोष को सबसे बड़ा धन
कहा जाता है -
   गौ धन , गजधन ,बाजिधन ,और रत्न धन खान।
    जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान।।
             असन्तोष सुधार को जन्म देता है , विकास की
ओर अग्रसर करता है , वहीं विकास की अंधी दौड़ में भागते मनुष्य को नियंत्रित करने का काम करता है संतोष
जिस प्रकार घोड़े की गति की नियंत्रित करने के लिए
लगाम जरूरी है। मनुष्य के चंचल चित्त को नियंत्रण में
रखना जरूरी है , वरना वह बेलगाम घोड़े की तरह इधर - उधर  भागता  है  सही गलत की परवाह किये बिना ।धर्म यही काम करता है , इंसान को बुराई की ओर जाने से
रोकने का काम करता है ,मनुष्य के मन में किसी बात का
डर होता है तो वह कुछ गलत करने से डरता है चाहे वह
डर समाज का हो या पाप - पुण्य का।
                कहने का अर्थ यह है कि किसी भी चीज की
अति उचित नहीं है । आगे बढ़ने के लिए सुधार होते रहना
जरूरी  है तो जीवन  में सुख और शांति के लिए सन्तुष्ट
रहने की भी उतनी ही आवश्यकता है । जीवन में संतुलन
होना चाहिये ,न ही सब कुछ पाने की भागमभाग में शामिल होइए , न ही  वैराग्य धारण कर बैठ जाइए।
                  
स्वरचित - डॉ. दीक्षा चौबे , दुर्ग , छ . ग.
   
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